माना जाता है कि श्रीनगर के हब्बा कदल इलाक़े में स्थित है शीतलेश्वर मंदिर 2000 साल पुराना है ।
अब इसमें स्थानीय मुस्लिम आबादी की मदद से फिर से पूजा-अर्चना शुरू हुई है और पंडितों ने इसमें ख़ुशी-ख़ुशी हिस्सा लिया है ।
जर्जर अवस्था में पहुँच चुके इस मंदिर को कश्मीरी पंडितों के एक संगठन ने स्थानीय मुस्लिम आबादी के सहयोग से फिर से आबाद किया है ।
कश्मीर घाटी में पिछले अनेक वर्षों से अशांति रहने के बावजूद वहीं रहने वाले अनेक कश्मीर पंडितों के संगठन – कश्मीर पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉक्टर त्रिलोकी नाथ ने मंदिर का दरवाज़ा खोलने के बाद स्थानीय मुसलमानों के प्रति आभार व्यक्त किया ।
उन्होंने कहा, "हम अपने मुसलमान भाइयों के आभारी हैं जिन्होंने हमारे दरवाज़े पर दस्तक दी और कहा कि चलो इस मंदिर को फिर से आबाद करते हैं।"
समिति के सदस्यों ने मंदिर का फिर से निर्माण करने में सहायता की और राज्य सरकार से भी सहयोग की अपील की है ।
डॉक्टर त्रिलोकी नाथ के अनुसार हिंदू श्रद्धालुओं की आस्था के मुताबिक मानवीय सुरक्षा से संबंधित आठ भैरव भगवान हैं जिनमें से एक ने दो हज़ार वर्ष पहले हब्बा कदल में निवास किया था और बाद में उस जगह का नाम ही शीतल नाथ पड़ गया ।
इस मंदिर के आसपास बसी ज़मीन है और हिंदू हाई स्कूल भी है जहाँ पढ़ने वालों में स्थानीय मुस्लिम बच्चों की संख्या ज़्यादा हैं ।
डॉक्टर त्रिलोकी नाथ का कहना है कि पिछले बीस वर्ष में मंदिर में दो बार आग लग गई जो स्थानीय मुस्लिम नागरिकों ने बुझाई और एक बार उसमें एक भीषण बम धमाका भी हुआ था ।
त्रिलोकी नाथ बीस वर्ष पहले हुई आख़िरी पूजा-अर्चना के बारे में कहते हैं, "वर्ष 1990 में पूजा हो रही थी और गोलियाँ चलने की आवाज़ आई। दूसरे दिन मैंने मंदिर के दरवाज़े पर ताला लगा देखा। वो ताला हमने आज खोला है । "
शीतलेश्वर मंदिर के आसपास सिर्फ़ चार पंडित परिवार रहते हैं जबकि पूरे हब्बा कदल क्षेत्र में इस समय 27 परिवारों का निवास है ।
संघर्ष समिति दरअसल उन कश्मीर पंडितों का संगठन है जिन्होंने 1990 में चरमपंथी गतिविधियाँ शुरू होने के बावजूद कश्मीर घाटी को नहीं छोड़ा है। घाटी छोड़ चुके पंडितों की संख्या के बारे में सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन त्रिलोकी नाथ कहते हैं कि घाटी में रह रहे पंडितों की संख्या आठ हज़ार के आसपास हो सकती है ।
स्थानीय पंडितों ने कश्मीरी मंदिरों में बाहरी पुरोहितों के दाख़िले पर सरकार को एक स्मरण पत्र भी पेश किया है । समिति चाहती है कि इन मंदिरों में कश्मीरियों को ही पूजा और प्रबंध के अधिकार दिए जाएँ ।
डॉक्टर त्रिलोकीनाथ कहते हैं, "हमारी एक अलग क्षेत्रीय पहचान है। हमारे मंदिर में अलग तरह से पूजा होती है। हमें हमारे धर्म पर अपने स्थानीय अंदाज़ में अमल करने का अधिकार दिया जाना चाहिए । "
समिति के एक प्रतिनिधि संजय टिक्कू ने बताया कि घाटी में चरमपंथी गतिविधियाँ शुरू होने के बाद से क़रीब छह सौ मंदिरों के पुरोहित भाग गए थे और स्थानीय पंडितों के घाटी छोड़कर चले जाने से भी ये मंदिर वीरान हो गए.
उन्होंने बताया कि इन मंदिरों में से अब तक 37 मंदिरों को फिर से आबाद किया गया है ।
1 comment:
अच्छी खबर है यह तो!!
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