आज कई दिनों से देख रहा हूं कि देख रहा हूं कि अवधूत गुप्ते नाम के मराठी फिल्म निर्माता ने महान महाराष्ट्र के राजनैतिक आधार पर एक फिल्म "झेंडा" बना कर अपने लिये मुसीबत पाल ली है। सारी राजनैतिक पार्टियो के चिट्टू-पिट्टू को अपनी फिल्म दिखाते फिर रहे हैं कि भाई अभी देख कर अपने गैरकानूनी राजनैतिक सेंसर से पास कर दो तब प्रदर्शन के लिये आगे बढ़ाएं वरना बाद में उठ कर कोई भी नौटंकी शुरू कर देगा कि इसमें कि अमुक बात हमें पसंद नहीं है इसलिये हम और हमारी चिरकुट पार्टी के चूहे-छछूंदर मिल कर सिनेमा का पर्दा फाड़ देंगे। अब बेचारे गुप्ते बाबू ठाकरे से लेकर राणे तक की सहमति असहमति के मोहताज हैं कि कहीं ये गुंडे उनकी अभिव्यक्ति को आग न लगा दें। महेश मांजरेकर की बात अलग है वो अगर "शिक्षणाचा ची आईच्या घो...." यानि शिक्षा की मां का भो...... आगे क्या है आप सबको अंदाज है इसलिये महेश ने आगे का नाम लिखने की जरूरत महसूस नहीं करी। ये महेश की कहानी शिक्षा के बारे में है अब ठाकरे परिवार या राणे परिवार का तो शिक्षा से लेना देना है नहीं उन्हें तो अंग्रेजी की चाटने से फुरसत नहीं है। ये सारे मिल कर फिल्म झेंडा की एक एक रील चाट कर उसकी मैय्या करे दे रहे हैं। सेंसर बोर्ड को इस देश में समाप्त कर देना चाहिये क्योंकि अब तो सेंसर का काम राजनैतिक पार्टियां चलाने वाले कर रहे हैं पहले उनकी सहमति जरूरी हो गई है।
जय जय भड़ास
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