मुंबई किसकी है? ये खोजने के पहले इस बात को खोजना जरूरी है कि ये सवाल उठा ही क्यों और कैसे?
मुंबई के स्वामित्व को लेकर जब भी सवाल उठते हैं वे कभी भी मुंबई के लिए या, मुंबई जिस प्रदेश की राजधानी है उस महाराष्ट्र के लिए, या मुंबई में रहने वाले मुंबईकर के लिए नहीं होते।
मुंबई के स्वामित्व का सवाल देश के तमाम नेता अपनी-अपनी राजनीति को भुनाने के लिए उठाते हैं।जब उत्तर भारत में मुख्यत: उत्तर प्रदेश या बिहार में चुनावी सरगर्मियां बढ़ती हैं। इन प्रदेशों का राजनीतिक तापमान बढ़ने लगता है तब उसे और गरम करने के लिए मुंबई पर सवाल उठाए जाते हैं। जब महाराष्ट्र में चुनाव होते हैं तो ये तमाम नेता और राजनीतिक पार्टियां मुंबई, मराठी और महाराष्ट्र की अस्मिता के बारे में एक ही स्वर में गाते नजर आते हैं। जितने तीखे लहजे में राहुल गांधी से लेकर आरएसएस और मुकेश अंबानी से लेकर शाहरुख खान तक मुंबई को देश की धरोहर कहते सुने जा रहे हैं वे सब महाराष्ट्र के चुनाव से समय खामोश क्यों हो गए थे।
विडंबना ये है कि इन सभी के पास राजनीतिक दल है, नेता हैं, एक राज्य है जहां चुनाव होना है, सत्ता का सिंहासन है जहां ये सब बैठना चाहते हैं, मतदाता हैं जिन के भरोसे सब सत्ता के सपने संजोए हुए हैं परंतु इन सभी के पास नहीं है तो बिहार के उज्जवल भविष्य का रोडमैप। वहां के मतदाताओं को देने के लिए चुनावी घोषणा पत्र जिसे सही तौर पर कार्यान्वित किया जा सके। ये सभी जानते हैं कि बिहार के इन मतदाताओं ने हर राजनीतिक दल को बिहार की गद्दी सौंपी है। सभी नेता फल-फूल गए परंतु बिहार वैसे ही रहा जैसा था।
जब इन नेताओं के पास नया कुछ देने के लिए नहीं है तो बिहारियों के हमदर्द बनकर बयानबाजी के चाशनी में घोला हुआ एक नफरत का डोज देते हैं। मुंबई किसकी? जैसे ही ये सवाल उठाया जाता है, मुंबई में इस बात पर ठाकरे खानदान आग उगलना शुरू करता है। क्योंकि उनके पास भी इस मुद्दे के सिवा कोई और मुद्दा ही नहीं है। और उनका टारगेट होते हैं वे उत्तर भारतीय जो मुंबई में वैसे ही आए जैसे ठाकरे आए थे। ठाकरे बंधुओं के इस रिएक्शन पर बिहार में राजनीति का मैच खेलने वाले या तमाम नेता ठाकरे खानदान और मराठियों को कोसना शुरू कर बिहार के मतदाताओं की सहानुभूति बटोरना चाहते हैं।
मुंबई को देखा जाए तो इन तमाम बड़बोले नेताओं का न उनके पूर्वजों का मुंबई को मुंबई बनाने में कोई योगदान रहा है। मुंबई में मराठी माणूस की बात करने वाले ठाकरे परिवार को मुंबई में किसी भी मराठी माणूस द्वारा किया कोई काम नजर नहीं आएगा। मुंबई में जो कुछ भी है वो सब मुंबई में सैकड़ों साल पहले आकर बसने वाले पारसियों, मारवाड़ियों और गुजरातियों ने बनाया है।1833 में जब तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ने मुंबई के तबके ‘कैंप मैदान’ जो आज का ‘आजाद मैदान’ है में घास चरने वाले जानवरों पर ‘ग्रेजिंग फी’ लगाई तब सर जमशेदजी जीजीभाय ने उस जमाने में 20 हजार रुपए देकर वहां मैदान अंग्रेजी हुकूमत से खरीदा और जानवरों के मालिकों को ग्रेजिंग फी से मुक्ति दिलवाई। उस जमाने में उसे ‘चारी मैदान’ कहा जाने लगा। जमशेदजी पारसी थे और जानवर कोली समाज के पाला करते थे जो मुंबई के भूमिपुत्र थे।
शिवसेना जिन 105 शहीदों की बात करती है जो संयुक्त महाराष्ट्र के लिए शहीद हुए या मुंबई को महाराष्ट्र में बनाए रखने के लिए जिन 105 लोगों ने बलिदान दिया उनमें मोहम्मद अली, श्याम लाल जेठानंद, मुनीम जी बलदेव पांडे, सय्याद कसम, मुंशी वजीर अली, दौलत राम माथुर दास, वेदी सिंह जैसे नाम भी देखने को मिलते हैं वे तो मराठी नहीं थे।
मुंबई का इतिहास बताता है कि मुंबई के मुंबईकर सिर्फ मराठी ही नहीं हुआ करते थे और मुंबई की विकास गाथा ‘बोम भाहिया (अच्छा समुद्र) से बांबे’ तक और ‘मुंबा आई’ से ‘मुंबई’ लिखने वाले कोली समाज, पुर्तगाल, अंग्रेज, पारसी, मारवाड़ी और गुजराती रहे हैं।
शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यदि संयुक्त महाराष्ट्र की बात करते हैं तो उन्हें मुंबई छोड़ पूरे महाराष्ट्र में करने लायक बहुत कुछ है। विदर्भ में किसानों की आत्महत्याएं, मराठवाड़ा का पिछड़ापन, नक्सलियों से परेशान गढ़चिरौली, भूमाफियाओं से भयभीत कोंकण ये कुछ ज्वलंत समस्याएं हैं जिसे आम मराठी माणूस वर्षो से जूझ रहा है परंतु इस महाराष्ट्र में पैसे का खेल नहीं है जितना मुंबई में है। तो क्या ये समझें मराठी अस्मिता की आड़ में ये दल सिर्फ मुंबई की बात कर अपनी तिजोरियां भर रहे हैं।
कांग्रेस भी यदि राजनीति से उठ कर इस बात पर सोचे तो मुंबई की चिंता छोड़ बाकि महाराष्ट्र के बारे में कांग्रेस को गौर करना चाहिए। वे लगातार राज्य में और केंद्र में सत्ता में हैं। जो कुछ महाराष्ट्र में और मुंबई में अच्छा या बुरा हो रहा है इसके दायित्व से वे मुंह मोड़ नहीं सकते है।
उद्योगपति, फिल्म कलाकार, गायक, खिलाड़ी, समाजसेवी, टीआरपी की होड़ में इस मसाले को लगातार जिंदा रखने वाले हिंदी, अंग्रेजी और मराठी न्यूज चैनल यदि मुंबई के मसले से दूर रहें तो मुंबई में न कोई उत्तर भारतीय पिटेगा न कोई मराठी उत्तर भारत में।
मुंबई किसकी? : इस झगड़े में कांग्रेस, भाजपा, जद यू, राजद, आरएसएस आदि बिहार में फायदे में हैं तो शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना महारष्ट्र में फायदे में हैं। घाटे में हैं तो मुंबई का आम आदमी। मुंबईकर जो मराठी भी पंजाबी भी उत्तर भारतीय भी पारसी भी गुजराती भी मुसलमान भी हिंदू भी क्रिश्चियन भी है क्योंकि मुंबईकर होने से उसके भारतीय होने पर सवाल उठा रहे हैं। महाराष्ट्र में महा इसलिए जोड़ा गया है कि महाराष्ट्रियों के दिल बड़े ‘महान’ होते हैं न कि वह देश से बड़ा है। और इतिहास की बात करें तो मुंबई पर मगध के सम्राट अशोक का राज था और मगथ वर्तमान के बिहार में है।
440 स्क्वायर किलोमीटर में फैला ये शहर भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाता है। महाराष्ट्र राज्य की राजधानी मुंबई वैसे तो सात अलग-अलग समुद्री टापू से बना एक शहर है। ये सात टापू हैं कोलाबा, मझगांव, पुराना वूमेंस द्वीप, वडाला, माहिम, परेल और माटूंगा सियोन। 13वीं सदी में सात टापू वाला ये क्षेत्र मगध के चक्रवर्ती राज सम्राट अशोक के अधीन था। उनके पश्चात कुछ समय के लिए ‘सिलहारा’ वंश के अधीन रहा। राजा भीमदेव जिनके राज्य की राजधानी महिकावती (आज का माहिम और प्रभादेवी) हुआ करता थी। उसी समय इस इलाके में व्यापार की शुरुआत हुई। सन् 1343 में ये पूरा प्रदेश गुजरात के सुल्तान के आधिपत्य में आ गया।
सन् 1505 में एक पुर्तगाली ‘फ्रांसिस अलमीदा’ इस द्वीप पर आया तो उसे यहां की खाड़ी, सूरत की खाड़ी से भी जहाजों के दृष्टिकोण से पसंद आई। उसने इस द्वीप को नया पुर्तगाली नाम दिया ‘बोम भाहिया’ जिसका हिंदी का अनुवाद होगा ‘अच्छी खाड़ी’। सन् 1534 में पुर्तगाली हुकूमत ने इसे गुजरात के सुल्तान से जीत लिया। और यहां से मुंबई के विकास का सफर शुरू हुआ। 128 साल के शासन के बाद सन् 1661 में जब जब पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन के विवाह इंग्लैंड के राजा चाल्र्स द्वितीय के साथ संपन्न हुआ तो पुर्तगालियों ने इंग्लैंड के राज्य को ये द्वीप दहेज स्वरूप उपहार में दिया।
सन् 1668 में सूरत में व्यापार करने वाली इंग्लैंड की कंपनी ‘इंग्लैंड ईस्ट इंडिया कंपनी’ ने इंग्लैंड के राजा से भाड़े पर लिया। भाड़ा था सालाना 10 पाउंड सोना। और इस द्वीप का नाम ‘बोम भाहिया’ से बांबे हो गया। मुंबई के विकास के आगे सूरत की चमक कम होती गई। गुजरात के कई व्यापारी भी अंग्ररेजों के साथ मुंबई में आ बसे। पुर्तगालियों के समय ही पारसियों ने भी ईरान छोड़ मुंबई की ओर रुख करना शुरू कर दिया था। उनके धर्म जरोस्त्रा पर इस्लाम के लगातार बढ़ते हमलों ने उन्हें ईरान छोड़ने को मजबूर किया। सन् 1640 में दोरबजी नानाभाय पटेल ने मुंबई में प्रवेश किया। वे इस द्वीप पर आने वाले पहले पारसी थे।
पारसियों ने इस द्वीप से व्यापार ही नहीं किया लेकिन कई बार जब मुंबई पर हमले हुए तो वे कोली समाज के लोगों के साथ मिलकर पुर्तगालियों के नेतृत्व में जंग भी लड़े। आज की मुंबई भी देखी जाए तो पूरे शहर में पारसियों द्वारा किया गया योगदान ही सामने आता है।
पारसियों ने जितना भी कमाया वो सब इसी शहर पर न्यौछावर कर दिया। मुंबई में रेल, स्टॉक मार्केट, डाकयार्ड, विश्वविद्यालय, स्कूल, कॉलेज, धर्मशाला, बड़े होटल, क्लब, खेल के मैदान ये सभी पारसियों, गुजरातियों और अंग्ररेजों की देन हैं। पुर्तगालियों ने इस शहर का नामकरण किया। ‘बाम भाहिया’ और किया कुछ विकास, अंग्ररेजों ने इस बंबई कहना शुरू किया और बनाया विश्व का एक प्रमुख शहर। यहां के कुछ भूमिपुत्र कोली इसे मुंबा कहते थे। उन्होंने ये नाम मुंबा देवी से लिया जिसकी आज भी मुंबई में पूजा होती है। और अब इसे संवैधानिक रूप से ‘मुंबई’ कहा जाता है।
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