अनंत अंत......

अनंत अंत को तलाश करते हुए एक ऐसे पथ पर चल रहा हूँ जहाँ दूर दूर तक फैला अन्धकार है मुझे लगा ये मेरा वहम है लेकिन इस अंधकार से बाहर निकलने का कोई रास्ता मुझे नहीं मिल रहा है बहुत तलाश करने पर भी वो रौशनी की किरण नहीं दिखती जिसके लिए मै यहाँ आया.....


अनंत अंत

इस अर्थ हीन जीवन में
अनंत अंत के चक्कर में
भटकता सा चंचल मन मेरा है ,
कभी सोचता हूँ इस सृष्टि को
मेरे लिए रचा गया है , कभी
इनसे भागता सा मन मेरा है,
स्वयं को धिक्कारती सी आत्मा
सब कुछ पाने को बेताब शरीर दिखे है ,
अपनों के पापों से दूषित देखो
गंगा का निर्मल जल भी दिखे है,
सूरज की किरने भी अब तो
अपनों के लहू सी लाल दिखें हैं,
इस जीवन दाई हवा से पूछो
उसमे घुलता सा ज़हर ये किसका है,
अनंत अंत के चक्कर में
भटकता सा चंचल मन मेरा है,

3 comments:

Suman said...

nice

डा.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

बेहतरीन, रहस्यवाद से परिपूर्ण, शायराना सूफ़ियाना अंदाज़......
बड़े दिनों बाद मोहतरम; कहां रहे???
जय जय भड़ास

गुफरान सिद्दीकी said...

shuqriya suman ji rupesh bhai sahi kahan idhar jeevan ko samjhne ki nakam si koshish kar raha tha isi liye bharhaas par hazir nahi ho paya

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