नर्म सबेरा कभी रूह में शामिल था । अब पास भी नही फटकता । कहीं दूर ... चला गया ।
आज भी सबेरा निकलता है । रूप बदल कर । जिसे हम गर्म सबेरा कहते है ।
हमारी प्रकृति में इतना बदलाव ! हजम नही होता ।
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1 comment:
भाई मार्कण्डेय सबेरा हज़म ही तो कर डाला, सारे मौसम पचा डाले इंसान ने अपनी अंधी लालच में और अब रोता है कि ये क्या हो रहा है अभी तो भयानक कुदरती तांडव होना शेष है...
जय जय भड़ास
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