भारत ऐसे पडोशीदेशों से घिरा है की वह चाह कर भी चैन से नही बैठ सकता है । एक पोस्ट में मैंने बांग्लादेश के हालात पर एक छोटी सी टिप्पणी किया था जिसे आप सबने काफी सराहा था । नेपाल भी कुछ कम नही है ... वह के बदले हुए हालात ने भारत को सोचने पर मजबूर कर दिया है । वहां की नई सरकार का रवैया भारत विरोध को इंगित कर रहा है । चाहे वह कोशी नदी के बाढ़ मामला हो या पशुपतिनाथ के मन्दिर में भारतीय पुजारियों से सम्बंधित मामला हो उसका रवैया एकदम निराशाजनक लगता है ।
प्रचंड की माओवादी सरकार अपनी नीतियों के जरिए पूरे नेपाल में ऐसा ढांचागत परिवर्तन लाने में लगी दिखती है, जिससे भारत-नेपाल के विशेष मैत्री संबंधों को तोड़कर दोनों देशों के बीच भविष्य में नहीं भरी जा सकने वाली खाई पैदा की जा सके ।
कुछ दिन पहले ही पशुपति नाथ मंदिर में सौ से ज्यादा माओवादियों ने घुसकर स्थानीय पुजारियों की नियुक्ति का विरोध कर रहे लोगों पर हमला बोल दिया। प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड ने दक्षिण भारतीय ब्राह्माणों को पूजा-अर्चना करने से रोक दिया और कहा कि अब वहां पूजा नेपाली पुजारी करेगे । बाद में प्रचंड के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करते हुए भारतीय मूल के पंडितों की बर्खास्तगी को अवैध करार दिया। यह विवाद महज भारतीय मूल के पंडितों की बर्खास्तगी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका व्यापक पहलू नेपालियों के बीच भारत विरोधी माहौल बनाना है।
1955 में नेपाल को महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता मिल गई, जिससे नेपाल की अंतरराष्ट्रीय छवि भी बदली। नेपाल विश्व के महत्वपूर्ण देशों से अनुदान की मांग करने लगा। इन सारे प्रयासों का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी था कि किसी भी तरह नेपाल पर भारत की पकड़ को ढीला किया जाए। 1816 के सुगौली समझौते का हवाला देते हुए प्रचंड ने कहा था कि नेपाल आज भी भारतीय उपनिवेशवाद के अधीन है। सुगौली समझौता ब्रिटिश काल में नेपाल के साथ किया गया था। इस समझौते के तहत नेपाल में आंशिक उपनिवेशवाद की शुरुआत की गई थी। लेकिन आजादी के बाद उन उपबंधों को भारत की सरकार ने निरस्त कर दिया था और नेपाल को हर तरह से एक स्वतंत्र इकाई के रूप में देखा। आज भारत की सदाशयता का फायदा उठाकर वहां पर भारत विरोधी माहौल को बनाया जा रहा है । यह एक गहरी साजिश का परिणाम भी हो सकता है। नेपाल में माओवादी सरकार का चीन द्बारा जमकर फायदा उठाया जा सकता है इससे भारत का परेशान होना स्वाभाविक है ।
चीन 1962 में भारत से युद्ध के बाद नेपाल को अपने सामरिक हितों के लिए महत्वपूर्ण मानने लगा। 1962 में चीन के विदेश मंत्री छन ई ने कहा कि नेपाल कई साल से विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ता रहा है इसलिए हम नेपाल के राजा को आश्वस्त करना चाहते हैं कि भविष्य में नेपाल पर किसी तरह के विदेशी आक्रमण की स्थिति में चीन सदैव नेपाल के साथ खड़ा होगा। निश्चित रूप से चीन का इशारा भारत की तरफ था। नेपाल ने 1973 के गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में नेपाल को शांति क्षेत्र घोषित करने की वकालत शुरू कर दी। इस प्रस्ताव को चीन और पाकिस्तान ने समर्थन दिया, जबकि भारत ने इसका विरोध किया।क्योकि नेपाल में ये सारे परिवर्तन भारत के विरोध में हो रहे थे।
1988 में नेपाल ने बडे़ पैमाने पर चीन से हथियार खरीदे। यह खरीदारी 1959 और 65 में की गई संधियों का खुला उल्लंघन थी। संधि में कहा गया था कि जब कभी भी नेपाल किसी अन्य देश से हथियारों की खरीद-फरोख्त करेगा तो भारत की स्वीकृति अवश्य लेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसे माहौल में भारत-नेपाल संबंधों में अचानक गिरावट आई और भारत ने सख्त कदम उठाते हुए नेपाल में जरूरी वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। इस कदम से नेपाल में हाहाकार मच गया , वस्तुओं के दाम आसमान को छूने लगे । इससे आपसी संबधों पर प्रतिकूल असर पड़ना स्वाभाविक था ।
नेपाल में माओवाद का प्रसार भारत का विरोध करके ही हुआ है ।माओवादी यह मानते है की नेपाल की गरीबी का मुख्य कारण भारत है। माओवादी संगठन भारत को नेपाल के पिछडे़पन का कारण मानते हैं। इस प्रकार आज वह भारत विरोधी वातावरण जो दिख रहा है , वह मओवादिओं की विचारधारा में ही समाहित है । नेपाल भारत का न केवल एक पड़ोसी देश है, बल्कि सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। अगर नेपाल धीरे-धीरे चीन की गिरफ्त में आ जाता है , तो भारत की समस्याएं बहुत बढ़ जाएंगी।भारत सरकार को वहां की जनता को विश्वास में लेकर ही कोई रणनीति बनानी चाहिए क्योकि वहां की जनता का भारत से गहरा लगाव रहा है ।
भारत को एक सुनियोजित तरीके से नेपाल को अपने प्रभाव में रखना होगा।एक दीर्घकालिक निति बनाकर उसपर इमानदारी से काम करना होगा ।
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