अभी अभी गाँव से आया हूँ। कहने को होली थी मगर गाँव इसलिए जा सका क्यूँकी भाई की शादी थी। बहरहाल बहाना कोई भी हो सालो बाद इस बार होली में अपने गाँव था। अपना गाँव सुनकर ही मानो ह्रदय के सारे तार एक अद्भुत अहसास से प्रफुल्लित हो जाते हैं सो मेरा भी हो रहा है और याद आ रहा है एक सिनेमा का नाम "मेरा गाँव मेरा देश" ।
होली के दिन जैसे जैसे करीब आते गए याद आता गया वोह बचपन का लड़कपन और उसी एहसास से होली की पूर्वसंध्या पर इन्तजार करने लगा धुरखेल (होलिका दहन) का। रात तक दालान पर बैठा रहा की लोग अब आयेंगे की तब आयेंगे और सभी गाते बजाते सा रा रा रा करते बरहम बाबा के शरण में जा कर धुरखेल करेंगे मगर........
होली की सुबह आम दिनों से पहले होती है क्यूँकी मांस की व्यवस्था करनी रहती है, मिथिला में रहने वाले जानते हैं की गिने चुने दिन मांस का सेवन करने वाले मिथिलावाशी के लिए होली भी उसी एक दिन में से आता है जिसके लिए बड़ी जद्दो जहद करनी पड़ती है की कहीं बकरी न मिल जाए, मांस छागर का ही होना चाहिए वगैरह वगैरह। सो बस सुबह का समय इसी इन्तजाम में।
घर का काम काज निबटाते आ गयी दोपहर मगर कोई ना आया तो वो था गावं का हमारा संयुक्त होली जो सिर्फ़ यादों में सिमट आया है। ना ही कोई रंग गुलाल ना ही धूल की बहार, मिट्ठी और कादो (कीचड़) का तो कहीं अता पता नही, हो भी कैसे जब लोग ही नदारद।
होली के दिन जैसे जैसे करीब आते गए याद आता गया वोह बचपन का लड़कपन और उसी एहसास से होली की पूर्वसंध्या पर इन्तजार करने लगा धुरखेल (होलिका दहन) का। रात तक दालान पर बैठा रहा की लोग अब आयेंगे की तब आयेंगे और सभी गाते बजाते सा रा रा रा करते बरहम बाबा के शरण में जा कर धुरखेल करेंगे मगर........
होली की सुबह आम दिनों से पहले होती है क्यूँकी मांस की व्यवस्था करनी रहती है, मिथिला में रहने वाले जानते हैं की गिने चुने दिन मांस का सेवन करने वाले मिथिलावाशी के लिए होली भी उसी एक दिन में से आता है जिसके लिए बड़ी जद्दो जहद करनी पड़ती है की कहीं बकरी न मिल जाए, मांस छागर का ही होना चाहिए वगैरह वगैरह। सो बस सुबह का समय इसी इन्तजाम में।
घर का काम काज निबटाते आ गयी दोपहर मगर कोई ना आया तो वो था गावं का हमारा संयुक्त होली जो सिर्फ़ यादों में सिमट आया है। ना ही कोई रंग गुलाल ना ही धूल की बहार, मिट्ठी और कादो (कीचड़) का तो कहीं अता पता नही, हो भी कैसे जब लोग ही नदारद।
हम भी नहा धोकर हो लिए फ्रेश, चढाया कुरता पायजामा और जेब में लाल हरा अबीर (गुलाल) की तभी ढलते सूरज के साथ कहीं ढोल बाजा की आवाज सुनाई दी। जोश और उत्साह के साथ निकला और आ गया सड़क पर तो देखा की हमारे बगल में रहने वाले मलाह ( मछुआरे) होली को गँवई फगुआ के तरीके से ही मन रहे हैं, आंखों में चमक आयी जोश हुआ दूना और शामिल हो गया मैं भी उसी टोली में।
होली तो मना ली मगर सोचता रहा की गाँव का फगुआ रहा की नही, कैसे लौट के आयेगी हमारी होली।
आज भी सोच ही रहा हूँ......
शायद आप उत्तर दें।
होली तो मना ली मगर सोचता रहा की गाँव का फगुआ रहा की नही, कैसे लौट के आयेगी हमारी होली।
आज भी सोच ही रहा हूँ......
शायद आप उत्तर दें।
4 comments:
gaanw ke holi ke mithaas ki baat hi kuchh alag hai...
सही कहा भाई आपने, बस उस मिठास में होती कमी तकलीफ देती है.
भाई सही कहा आपने,
गाँव मैं भी गया था और अपनी गाँव वाली होली को तरसता ही रहा,
उम्मीद करता हूँ हमारा होली हमें वापस मिलेगा.
तस्वीर सुंदर है, गाँव की याद करा गया.
धन्यवाद
बढ़िया फोटो, देख कर अपुन का भी दिल गाँव जाने का हो रिया है भाई.
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