नई पीढी की साख पर बट्टा लग गया है .....

यह शर्म की बात है की आज भी इतने प्रयासों के बाद रैंगिंग जारी है। कुछ दिन पहले ही हिमाचल प्रदेश के डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद मेडिकल कॉलिज में हुई रैगिंग के कारण गुड़गांव के छात्र अमन काचरू की मौत हो गई . आंध्र प्रदेश के एक एग्रीकल्चर कॉलिज की छात्रा त्रिवेणी ने भी रैगिंग से परेशान होकर जहर पी लिया। इसके बाद से ही रैगिंग पर अंकुश लगाने के तमाम उपायों पर बहस हो रही है । देश में रैगिंग पर लगाम कसने के लिए राघवन कमिटी का भी गठन किया गया है. पर इतना तो तय है की केवल कमिटी बना देने भर से रैंगिंग ख़त्म नही हो सकती है. अब कुछ विशेष उपाय करना होगा । यु जी सी ने भी कहा है की जो संस्थान रैंगिंग को रोकने में असफल रहते है , उनके फंड में कटौती की जा सकती है । सुपिम कोर्ट ने इन राज्यों को नोटिस भी भेजा है । देखते है की अब कुछ कदम आगे उठाया नही जाता है या नही । हैरानी की बात है की देश के प्रमुख बड़े बड़े संस्थानों में खूब रैंगिंग होती है । मेडिकल कालेज तो इस मामले में कुख्यात है । इस बार तो हद ही हो गई रैंगिंग ने एक छात्र की जान ले ली । वहशीपन की सारे हदे पार हो गई । ऐसे डॉक्टर किसी का क्या भला करेगे । वैसे भी आज ज्यादातर डॉक्टरों की साख बची कहा है ....ऐसी घटनाओं से तो सिक्षा व्यवस्था पर कालिख पुत गई है । अब जिम्मेदारी हमारी सरकार पर और शिक्षा संस्थानों पर है की वे अपने मुंह पर पुते हुए कालिख को कैसे साफ़ करते है । साथ ही हमारी नई पीढी की साख पर भी बट्टा लग गया है । कुछ सोचो यार ऐसा क्यों हो रहा है ?... परवरिश में कहाँ कमी रह गई है ?

3 comments:

डा.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मार्क भाई यकीन मानिये कि जो बच्चे मेडिकल या इंजीनियरिंग में गरीब परिवारों से कड़ा संघर्ष करके आते हैं वो रैगिंग वगैरह के चक्कर में नहीं पड़ते हैं बस कस कर पढ़ाई करते हैं ये सुअरपन तो उन हरामियों का रहता है जिन्हें पहले से ही दिमाग पर पैसे और बाप की ताकत की चर्बी चढ़ी रहती है। कानून तो हर अपराध के संबंध में हैं उसके बनने मात्र से कुछ नहीं होता उसका कड़ाई से पालन भी कराया जाना चाहिये जिसके लिये नैतिक मूल्यों की जरूरत है जो कि कबके पतित हो चुके हैं।
मुझे आपकी इस पोस्ट ने याद दिला दिया मेरा मेडिकल का पहला साल और रैगिंग...
सीनियर्स ने सारे कपड़े उतरवा कर ग्राउंड में खूब दौड़ाया था उस दिन के बाद कुछ लड़के बहुत क्षुब्ध रहे लेकिन समय के साथ सब भूल गये, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा बल्कि मजा आया क्योंकि मैं तो पैदा ही नंगा हुआ था उसके बाद महीनों तक जब भी वो चिरकुट सीनियर जिनमें न हड्डी न बोटी थी मिलते तो मैं पूछता कि सर! कपड़े उतार कर कालेज आया करूं क्या? सालों की नाक में दम कर लिया था रुला दिया था,मेडिकल कालेज में अधिकांश साले पोकल हड्डी ही हुआ करते हैं और फिर हमारे बड़े भाईसाहब वैसे भी शहर के "शरीफ़" लोगों में ही गिने जाते थे तो किसी की हिम्मत नहीं थी कि हाथ उठाता, जब मैंने ज्यादा सता लिया तो कुछ ने तो भाईसाहब से शिकायत कर दी कि मैं उन्हें परेशान करता हूं; अब भी जब कुछ सीनियर्स मिल जाते हैं तो कहते हैं कि तुम बिलकुल नहीं बदले बल्कि भड़ास के माध्यम से तुम्हारी नंगई और परिपक्व हो गयी है। मैं आइना दिखाना बंद नहीं करूंगा,मेरा नंगापन उनका ही अक्स है घबराते क्यों हैं? भड़ास के द्वारा ऐसे लोगों को कसकर पेला और रगेदा जाएगा.....
जय जय भड़ास

mark rai said...

jee rupesh jee aapne apana anubhav batlaya.. usake liye thanks .. aap khud medical college ke student rahe hai ..mujhase jyaada janate hai . aap ka waisa vyaktitw tha jisake chalte aap bach gaye lekin aaj jab ranging ki wajah se kisi ki jaan jaati hai to yah to katai bardaast nahi kiya jaa sakata hai .

प्रदीप said...

केवल कानून बनाने से कुछ नहीं होगा. जब तक बच्चों में रैगिंग-विरोधी संस्कार नहीं डाले जायेंगे तब तक इस अभिशाप से पीछा नहीं छूटने वाला...

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