सांस्कृतिक मूल्यों के बहाने सच अस्वीकार्य !

आर्य और द्रविड़ पहली बार इस देश में आए, तब से आज तक हजारों प्रथाएं बनी, टूटी। हिमालय से हिंद महासागर तक फैला ये प्रायद्वीप ना जाने किस किस दौड़ से गुजर चुका है, लोग बदले, शासक बदले, समाज बदला परन्तु गाहे-बगाहे अभी भी भारतीय संस्कृति के नाम पर अनेक तरह की आवाजें सुनने को मिलती है।

कुछ लोगों को टीवी कार्यक्रम से संस्कृति का हनन होता दिखता है तो कुछ को पाश्चात्य इसके पीछे सभ्यता नज़र आती है। शायद हमही वो देश या फ़िर समाज रहें हैं जिसने हर काल में परिवर्तन का झंडा बुलंद किया है परन्तु फ़िर भी अनेक स्वर सुनने को मिलते हैं कि "हमारा सांस्कृतिक मूल्य घट रहा है"

कुछ बड़े ही आश्चर्यजनक कारण बताये जाते हैं हमारे घटते मूल्यों के पीछे, जैसे कि

  • प्रेमी युगल सबके सामने वैलेंटाइन डे मानते हैं।
  • टीवी पर परिवार के सामने सच बोला जा रहा है।
  • लोग कपड़े छोटे पहनते हैं, (विशेषकर लड़कियां)
  • शादी से पहले खुले में सम्बन्ध (विशेषकर स्त्रियों के)
  • धर्म कर्म से घटता स्नेह इत्यादि इत्यादि।

अब कुछ बड़े ही रोचक तथ्य हैं हमारे देश के विरासत की ;

  • हर देवता एक से अधिक पत्नियों के पति रहे हैं , राधा और कृष्ण की पूजा होती क्योँ है वो तो सिर्फ़ एक प्रेमी युगल थे (रुक्मिणी का नाम पता नही किसको मालुम है, परन्तु राधे राधे आधा हिन्दुस्तान करता मिलता है और हाँ उनका मिलना और प्रेमालाप अत्यंत ही सार्वजनिक था)।
  • हम महात्मा के देश से हैं और हमारा मूल मंत्र "सत्यमेव जयते" ही है फ़िर अपने पिछली गलतियों को पुरे परिवार या समाज के सामने स्वीकार करने में हर्ज़ क्या है)
  • तीसरी बात कपडों की, वो कौन सा युग था जहाँ स्त्रियाँ पुरे कपड़े में छुपी थी, शायद इतिहास या माइथोलोजी न बता पाए, हमारे समाज में गणिकाएँ अपने भड़काऊ कपडों के लिए ही जानी जाती थी और उनका स्थान समाज (शहर) के मध्य में ही होता था।
  • आधे से अधिक देवतागण का जन्म बिना शादी और सामाजिक मर्यादा के ख़िलाफ़ ही हुआ है, कुछ प्रसिद्द सुंदरियों को तो महारत हासिल था बिना शादी के सम्बन्ध बनाने में (अप्सराएं) ,हमारे बजरंगबली, केसरी नंदन हैं, अंजनी पुत्र हैं, पवन पुत्र भी हैं और तथाकथित रुद्रावतार भी हैं।

ये सारे उदाहरण उनके लिये हैं जो सांस्कृतिक मूल्यों और घटते संस्कार की बात करते हैं।

कुछ सच भी है जिसको स्वीकार कर हमारे generation को उनका due credit भी मिलना चाहिए....

  • ये देश अब चंद नही बल्कि १२० करोड़ लोगों का है, और कमोबेश सभी के पास कुछ न कुछ तो है।
  • मेरा मतलब लोगों के पास कम से कम अनेक opportunity तो हैं ही।
  • आज हमें तीसरी दुनिया कहने वाले लोग हम से दोस्ती करने को व्याकुल हो रहे हैं।
  • आज फिरंगी भी हमारे देश मैं नौकरी करने आ रहे हैं।
  • हम विदेशी कम्पनियों को खरीद भी रहे हैं और चला भी रहे हैं।

ऐसा कब हुआ की हमारे पुरुखों ने दूसरो के सामने घुटने न टेके हों, चाहे वो मुग़ल हो या मंगोलियन, चाहे वो अंग्रेज हों या रसियन, आज हमारे इस जेनरेशन ने पुरी सोच को बदल दिया है, लोग न केवल हमें seriously लेने लगे हैं परन्तु हमारे बिना किसी का काम भी नही चलने वाला, दुसरे शब्दों में , दुनिया के रफ़्तार के साथ न केवल हम आगे बढे हैं परन्तु सब को (बहुत को) पीछे भी छोड़ा है। अगर ये सब ग़लत नही है तो क्योँ हम नाहक ही हंगामा खड़ा करते हैं , सभ्यता और संस्कृति के नाम पर क्योँ आज की generation की हर चीज़ बुरी मानी जा रही है ?

कृपया बदलाव को धैर्य से स्वीकार करें और सत्य को आत्मसात भी करें !!!

लेखक : - रणधीर झा

10 comments:

वन्दना said...

rajneesh ji
lekh likhne ka uddeshya samajh aata hai.....magar iske liye hum apne mulyon ko kyun chodein....mana badlav jaroori hai aur hota bhi hai magar uske liye ashlilta ko manna koi jaroori to nhi na..........aapke lekh ka uddeshya achcha hai magar uske liye hamein apne sanskar to nhi chodne chahiye........kya videshon mein aisa hota hai ..nhi na to phir hum kyun chodein .........han badlaav ko sweekarna chahiye magar apni soch ko nhi badalna chahiye kam se kam naitik mulya to bane hi rahne chahiye.........meri to yahi soch hai.

निर्मला कपिला said...

वन्दना सही कह रही है सही कहा आपने कि बदलाव आना चाहिये मगर आप पश्चिम का हाल देख रही है यही हाल हमारा भी होगा is pragatee kaa ye matalav naheeM ki ham sabhee seemaaye tod den kya main chaahoongee ki meree betee yaa beta us tarah kaa jeevan jeeye jo aaj kuch gumrah bache jee rahe hain sab kuch khule aam hone se kya chhote bachon par asar nahin padegaa? un ke bhavishy kaa kyaa hogaa sabhee maa baap itane samajhdaar naheeM jo unhen is vinaash se bacha rakhem kuch baten aapkee bhee sahi hain baki fir sahi aur likhiye aabhaar

हरि जोशी said...

दरअसल जो संस्‍कृति के ठेकेदार बनते हैं, उन्‍हें संस्‍कृति के विषय में कुछ पता ही नहीं हैं।

anuradha srivastav said...

सभ्यता और संस्कृति के नाम पर विवाद कोई नये नहीं हैं। पीढी दर पीढी चलें आ रहें हैं। वक्त के अनुसार बदलाव आना भी चाहिये और उसे समाहित करना भी चाहिये । बस जरूरत है"सार-सार को गह्यी रहें थोथा देही उडाये" वाली मानसिकता को लेकर चलने की।

रंजनी कुमार झा (Ranjani Kumar Jha) said...

बदलाव को धैर्य से स्वीकार करें और सत्य को आत्मसात भी करें.

बस इसको रहने दें बाकी सभी स्वीकार्य है,
हमारी संस्कृति की क्षद्मता प्रारंभ से ही हमारे गले कि हड्डी रही है.
सोचनीय लेख

अग्नि बाण said...

विचारणीय आलेख,
मगर सच कड़वी होती है सो सच को स्वीकार करे कौन,
यहाँ तो अपनी डफली और अपना राग है.

रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) said...

प्रतिक्रिया के लिए सभी मित्रों का आभार.

Thats Fine said...

पुरातन विशेषज्ञ साबित कर चुके हैं कि आर्य हिन्द निवासी ही थे, बाहरी नहीं. फिर क्यों हम ब्रिटिश शासकों द्वारा लिखवाये गये इतिहास को सच मान उसे अपने लेखन का हिस्सा बना रहे हैं?

ravi said...

change yadi achha ke liye ho raha hai to aCCEPT karna chahiye . lekin jo english man apni family ko save karne ke liye india ka joint family ka study kartein hain . ab hum logo unhilogo ka formula accept kar rahein hain . pata nahi is PIZZA BURGER wale change se kiska bhala hoga .
God bless................

ravi said...

change yadi achha ke liye ho raha hai to aCCEPT karna chahiye . lekin jo english man apni family ko save karne ke liye india ka joint family ka study kartein hain . ab hum logo unhilogo ka formula accept kar rahein hain . pata nahi is PIZZA BURGER wale change se kiska bhala hoga .
God bless................

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