लो क सं घ र्ष !: आयोग एक दवा और एक मर्ज भी!


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हमारा देश कई प्रधान देश है। कृषि प्रधान तो था ही। क्रिकेट प्रधान तो है ही। होते होते देश अब आयोग प्रधान भी हो गया है। देश की आने और जाने वाली सरकार भी करें तो क्या करेंे। बिना आयोग के सरकारे नहीं चला करती। नई सरकार का नये आयोग गठन किए बिना गुजारा नहीं। वो सरकार ही क्या जो अपने कार्यकाल में आयोग का योगासन न करे। कितने आयोगों का गठन हो चुका! उनका हमारे लोंकतंत्र में क्या योगदान है इसका योग यहां पर किया जा रहा है।

आयोग बेराजगारी दूर करने का साधन। आयोग की इस देश को बहुत आवश्यकता है। सरकार किसी गंभीर,पेचीदगीभरी मुद्दे पर स्वेच्छा से या अनिच्छा से आयोग का गठन करती है। वो आयोग का गठन कर एक तरह से बेरोजगारी कम करती है। आयोग रिटायर व्यक्ति को काम देता है। सेवानिवृत्त होने के बाद खाली बैठना बेराजगारी नहीं तो क्या है! आप इसे बेराजगारी न माने तो अर्धबेरोजगारी तो है ही। अब आप इसे मानने से इंकार न करीएगा। करीएगा तो करीएगा। हम तो सेवानिवृत्त अधिकारी को बेराजगार ही कहेंगे।

आयोग अवकाश की पुन:प्रात्ति का एक फरमान। आयोग का गठन कर सरकार कई पुराने घुटे उच्च अवकाश प्राप्त अधिकारियों जिन्हें अनुभवी और दक्ष भी कहा जाता है, रख कर उनका अवकाश समाप्त करती है। आयोग में अवकाश प्राप्त पुराने घुटे हुए उच्च अवकाश प्राप्त अधिकारी ही क्यों! वो अपने घरों में बैठे-बैठे क्या करते। जब बैठना ही है तो आयोग में ही बैठे।

आयोग किसी व्वनप्राश से कम नहीं है। बल्कि सवाया ही बैठेगा। आयोग कें बैठने के नाम से कितने क्रब में पांव लटकाए अधिकारी उठ कर बैठ जाते है। सरकार कहती है सच सबके सामने लाया जाएगा। यह कहकर सत्यवादी हरिश्चंद्र का खिताब अपने नाम करती है। वही विपक्ष भी खुश उनको एक नया मुद्दा मिला। जनता भी इस आस में खुश कि न्याय होगा। यानी सब खुश यानी सबकी सेहत दुरूरत।

आयोग एक रामबाण। प्रजातंत्र के व्याधि को भेदने के लिए आयोग एक रामबाण है। किसी ज्वलंत मुद्दे की हवा निकालने, किसी अप्रिय स्थिती को टालने के लिए,वर्तमान में सच्चाई से फिलहाल बचने के लिए, बैठा दो आयोग। सब सेंटल हो जाएगा।

आयोग एक कछुआ। कई आयोग देश में बैठे तो बैठे रह गए। कुछ हिम्मत करके चले,भले ही मंथर गति से, तो मंजिल तक नहीं पहुंचे। कुछ ऐसे-तैसे पहुंचे तो उनकी रफट को सरकार ने पढ़ा ही नहीं। कुछ रपटों को जैसे-तैसे सरकार ने पढ़ा तो उन पर अमल किया नहीं। कुछ रपटों पर अमल करना चाहा मगर रपट कुछ जमी नहीं। कुल मिलाकर प्रजातंत्र को धीरे-धीरे परिपक्व कर रहा है आयोग।

आयोग एक नाव। जब-जब सरकार भंवर में होती है तो वो आयोग नाम की नाव चलाती है। वो नाव अपनी रपट के पतवार से सरकार को सुविधाजनक स्थिती में खे कर ले आता है। जिस रपट से वो सरकार का बेड़ा पार लगाता है उस रपट को मानने या न मानने की सुविधा सरकार के पास होती है।

आयोग सरकार का एक सेफटी वाल्व है। जिसका वाल्व समय समय पर सरकार के राजनैतिक नफे नुकसान के हिसाब से फैलता सिकुड़ता है। जिससे लोगों का आक्रोश निकल जाता है और सचाई कही वाल्व में अटक जाती है। उसका कुछ अंश लटकता हुआ दिखता है कुछ अंश छुपा रहता है। सरकार सेफ रहती है। क्योंकि सचाई कितना दिखना है कितना उघाड़ना है, ये सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है।

आयोग एक चिमटा। सरकार जिसको पकड़कर सच को झाड कर उठाती है। नगं हाथों से पकड़ेगी तो उसके हाथ जलने का खतरा बना रहता हैं। कमब्ख्त सच ऐसी ही चीज है। वो इस चिमटे से अपने चूल्हे की आग को दूसरे के चूल्हे में डाल सकती है। दूसरे चूल्हे की आग से अपने चूल्हें की आग भी जला सकती है।

आयोग एक खेल। गंभीर मुद्दों पर खेला जाने वाला एक छुपा हुआ खेल। जिसे सरकार और विपक्ष एक दूसरे के साथ खेलते है। जब सतारूढ़ दल गठित करता है तो विपक्ष आयोग पर और उसकी रपट पर सवाल खडे क़रता है। विपक्ष जब सरकार में आती है वो गर किसी आयोग का गठन करती है तो विपक्ष जो कभी सरकार थी, वो आयोग और उसकी रपट पर सवाल उठाता है।आयोग-आयोग का खेल सरकारपक्ष-विपक्षी दल संजीदा हो खेल-खेल में खेलते रहते है!

आयोग एक फुकनी। सरकार जिससे जनता के करोड़ों रूपये उस सच को जानने में फुकती है।जिसे जनता पहले से एक दमड़ी खर्च किए बिना ही जानती और समझती है।

आयोग एक ड्रा टेस्ट मैच। जनता प्रतीक्षारत। देखे क्या परिणाम आता है! परिणाम आने पर ही तो पता चलेगा कौन सही कौन गलत ! अवव्ल रिजल्ट तो आता नहीं। रिजल्ट आता भी है तो पता चलता है कि सरकार ने उसे सार्वजनिक नहीं किया। अक्सर परिणाम की ड्रा वाली परिणिती होती है। न खेलते हुए भी हारा कौन! प्रतीक्षारत जनता क्योंकि वो प्रतीक्षारत है।

आयोग एक अजीब-सी कशमश। गठित करो तो मुसीबत न करो तो मुसीबत। रपट आए तो बवाला न आए तो बवाला। कार्यकाल बढाओ तो सवाल। समय से पहले भंग करो तो सवाल। कुल मिलाकर आयोग सबको खुश न करना वाला सबको कुछ न कुछ देने वाला कोई अजब-सा सरकारी शह है।

आयोग एक ठण्ड़ा बस्ता। जिसमें तत्कालीन आक्रोश जो उबाल मारता है, को डाला जाता है। जबतक इसमें से कुछ निकलता है तबतक सब जानने का जोश ठण्ड़ा पड़ जाता है। क्या हुआ था! क्यों हुआ था! क्या निकला है! क्या आया है! जो होना था सो हो गया में बदल जाता है।

आयोग एक औजार। जिसमें सत्तारूढ़ दल का सेनापति अपने तेज से रपट में धार लगाता है। उसकी रपट को कोई अपनी तलवार बनाता है तो कोई अपनी ढाल बनता है। उसकी रपट कुछके विश्लेषण का धुरा बनेगी तो कुछके बहसों को सिरा बनेगी।

आयोग एक पहल। आयोग किसी सच को सामने लाने के लिए एक पहल है। जो एक पहल बन शुरू होती है और एक पहेली बन खत्म होती है।

अनूप मणि त्रिपाठी

09956789394


लोकसंघर्ष पत्रिका में जल्द प्रकाशित

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