पिछली पोस्ट दबाव के चलते हटा दी है ये भड़ास के इतिहास में कई बार होगा

हाल ही में पांच दस मिनट पहले एक पोस्ट अजमल कसाब कि प्रकरण पर लिखी थी। तत्काल प्रतिक्रिया हुई। कहीं दूसरी जगह से नहीं मेरे ही परिवार से कि उस पोस्ट को हटा दो वरना तुम्हारी वजह से हम सबकी बदनामी होती है पुलिस स्टेशन जाना पड़ता है, तुम्हें लोग मारते-पीटते हैं फिर भी तुम इतने निर्लज्ज हो चुके हो कि किसी की बात नहीं मानते। आदरणीय भाईसाहब ने तत्काल पिछले साल गणेशोत्सव पर उस घटना का जिक्र कर डाला कि तुम्हारे लिखने के कारण सोसायटी के लोगों ने तुम्हें घर में घुस कर मारा और उल्टा पुलिस कम्प्लेन्ट भी करी तो पुलिस ने भी सताया, जिसका दुष्प्रभाव कच्चे मन के बच्चों के ऊपर पड़ा कि अब उनके बच्चे सोसायटी में दबे सहमें से रहते हैं। मेरी भतीजी मेरी माता जी के साथ आकर रोते हुए कहती है कि पता नहीं क्यों हमारे पापा ने आपको भाई कहा है, आपके कारण कितनी बदनामी होती है। माताजी को पता नहीं किस भ्रम वश दिमाग में एक बात बैठ गयी है कि मैंने उन्हें घर से भगा दिया है(सोचने वाली बात है कि जिसके साथ ऐसे लोग तक आकर महीनों रह जाते हैं जिनसे कोई सामाजिक रिश्ता वास्ता नहीं है तो माताजी को क्यों भगाऊंगा लेकिन मेरा दुर्भाग्य है कि मेरी सोच से असहमति ही है जो उनके मन में इस तरह के पूर्वाग्रह पैदा कर देती है)।। भाईसाहब दुनियादार आदमी हैं तो उनका ऐसा सोचना स्वभाविक है कि मैं ऐसा कोई काम न करूं कि मुझे जूते पड़ें और उनकी बदनामी हो। वो अपने बच्चों को शरीफ़ आदमी बनने के संस्कार दे रहे हैं निःसंदेह हर परिवारी व्यक्ति को ऐसा करना चाहिये, झगड़े-फसाद से डरना चाहिए।
लेकिन मैं क्या करूं कि
इज़्ज़त जाने के डर से गलत बात का विरोध करने की फ़ितरत खत्म नहीं होती?
गलत को गलत और सही को सही कहने में भय नहीं लगता?
मौत से डर नही लगता?
झूठे सामाजिक सम्मान की कोई चाहत नहीं है?
जो लोग मुझे मार पीट रहे हैं या गालियां दे रहे हैं उनपर भी दया आती है?
जो लोग मेरा आदर करते हैं उनका मुझसे स्वार्थ है ऐसा हमेशा सत्य होता है क्या??
निंदा और आदर दोनो का मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है मैं प्रूफ़िंग कर चुका हूं?
दिल और दिमाग दोनो की सुनता हूं लेकिन तुम सहमत नहीं हो तो क्या करूं??
हज़ारों सवाल हैं जिनमें देश गौण हो जाता है। मुझे पीट रहे हैं वो कौन हैं मेरे पड़ोसी जो शरीफ़ हैं, शराबी हैं, गाली-गलौच करते हैं, धर्म के नाम पर धमाल करते हैं, आस्था के नाम पर हिंदू-मुस्लिम-ईसाई बन कर लड़ते-मरते हैं,हिंदी मराठी का झगड़ा करते हैं, जो दब जाए उसे पीस डालते हैं और जो दबा ले उसके तलवे चाट लेते हैं क्या इनमें से किसी को भी किसी हुमा नाज़ की परवाह है? क्या इन्हें पता है मुख्तारन माई या इरोम शर्मिला क्यों चर्चित हैं? कसाब और करकरे इनके लिये बस कुछ दिन चर्चा का विषय हैं उसके बाद टीवी पर डांस शो देखना, दो रुपए का समाचार पत्र पढ़ कर एक घंटे ट्रेन में बकैती कर लेना; क्या इन्हें अफ़जल गुरू प्रकरण में दिलचस्पी है? क्या इन्हें पता है कि अरुणाचल प्रदेश में चीन की क्या हरकते हैं? क्यों काश्मीर या मिजोरम जैसे सीमावर्ती प्रदेशों में केन्द्र सरकार के प्रति नफ़रत पनप जाती है? क्या संविधान की समीक्षा करी जानी चाहिये? देश चल कैसे रहा है? बस टैक्स दो और बोझ की तरह जिंदगी जिये जाओ, शरीफ़ आदमी बन कर। बच्चों के बर्थ डे में उन्हें खिलाओ जिनके गले तक पेट भरा है ये शराफ़त है शरीफ़ों की। ईद - दीवाली पर हज़ारों रुपया अपव्यय कर डालो दिखावे के लिये ये शराफ़त है।
साला दिमाग फिर गया है शराफ़त मेरे ऊपर चढ़ ही नहीं पा रही है, काश मैं भी नपुंसक बन सकता। यार मेरी मदद करो मुझे सामाजिक षंढ बना तो ताकि मैं शराफ़त की जिंदगी जी सकूं और मेरे परिवार को मुझ पर गर्व हो सके। मैं लज्जित हूं अपने भाईसाहब और माताजी से कि उनकी अपेक्षाओं पर सही नहीं उतर सका। मुझे मौत भी नहीं आती कि ये लोग कुछ समय शोक मना कर शेष जीवन सुख से रह सकें। इस लिये ईश्वर से भी प्रार्थन है कि और थुक्का फ़जीहत न करवाओ जल्दी भेजो किसी को उठाने के लिये वरना हमारे जैसा बोझ खुद तो उठने से रहा इस दुनिया से
जय जय भड़ास

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