प्रभाष जोशी नहीं रहे, विगत ५ नवम्बर की रात देहावसान हो गया. प्रभाष जी के देहावसान के साथ ही शुरू हुआ अपने अपने को प्रभाष जोशी का करीबी, शिष्य और जानकार बताने की कवायद.
किसी ने इन्हें इतिहास पुरुष कहा तो किसी ने हिन्दी पत्रकारिता का एक स्तम्भ किसीं ने पत्रकारिता के सभी क्षेत्रों की नब्ज पकड़ने वाला महारथी तो किसी ने खेल या संगीत कि विधा का ज्ञाता.
वस्तुतः ये तमाम लेखनी प्रभाष जी के प्रति कितनी समर्पित थी ये यक्षप्रश्न ही रह जाएगा क्यूंकि कोई भला क्यूँ अपने दिल की बात जुबान पर लाये. हाँ प्रभाष जी के नाम के साथ अपने अपने कलम के व्यवसाय को चलाने वालों ने प्रभाष जी कि मौत को बेचने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
बहरहाल में अपने लेख के मुद्दे पर आ जाऊं......
५ नवम्बर को जोशी जी कि मौत हुई और अगले दिन लगभग सभी ब्लोगों पर इस से सम्बंधित ख़बरों की अम्बार थी. बचपन से जनसत्ता का पाठक और प्रभाष जी की लेखनी को पढने के कारण नि:संदेह मेरा मन भी विचलित हूँ रहा था कुछ लिखने का मगर एक पाठक की तरह सिर्फ पढ़ कर मैंने इस वरिष्ट पत्रकार को श्रद्धांजलि दी.
सुबह सुबह कम्पूटर पर था तो जितने मित्र जी मेल हो हूँ या याहू, ऑरकुट हो या फेसबुक या फिर फिर ब्लॉग परिवार के मित्र सभी से जोशी जी पर ही विचारों का आदान प्रदान कर रहा था फिर मन में विचार आया कि क्यूँ ना प्रभाष जोशी जी के बारे में गैर पत्रकार हिन्दी ब्लोगर से कुछ बात चीत की जाय. काफी लोगों से बात चीत हुई और तथ्य कम चौंकाने वाले नहीं रहे.
चिट्ठाजगत हिन्दी ब्लॉग को एक वरीयता देता है इन्ही वरीयता के आधार पर स्टार ब्लोगर कहलाने वाली एक महिला ब्लोगर से बात चीत ने सोचने पर मजबूर कर दिया. नमस्कार होने के उपरान्त मैंने पूछा कि जोशी जी नहीं रहे दुखद दिन है तो उत्तर कि कौन जोशी जी ?
अरे जनसत्ता वाले प्रभाष जोशी का अहले रात निधन हो गया, तो उत्तर अच्छा जनसत्ता के थे मगर मैंने तो नाम नहीं सुना जहाँ जहाँ गयी वहां वहां के हिन्दी अखबार की पाठक रही मगर इस नाम से सर्वथा अपरिचित ही हूँ.
जी हाँ ये एक ब्लोगर का जवाब नहीं अपितु दर्जनों हिंदी ब्लॉग जगत में अपनी उपस्थिति रखने वाली ब्लोगरों का ये ही जवाब था. फिर कुछ कविता कहानिया यानी की साहित्यिक लेख से सम्बंधित ब्लोगरों की तरफ मुड़ा तो यहाँ भी जवाब में वो ही धाक के तीन पात हाथ में आये मन खिन्न हो उठा.
माफ़ कीजिये यह खिन्नता इन ब्लोगरों पर नहीं था और ना ही अपने आप पर था तो आखिर था किस पर ?
जिस तरह से पत्रकारिता से जुड़े हुए ब्लोग्विद, अखबार हो या टीवी पत्रकारिता सब ने प्रभाष जी के ज्ञान का गुणगान किया, हिन्दी और पत्रकारिता में इनके योगदान का वर्णन किया ने मानो प्रभाष जी को एक इतिहास पुरुष बना दिया. आज लोग हिन्दी से कितना प्रेम करते हैं ये अंतर्जाल की गवाही से सिद्ध हो जाता है. पढ़े लिखे लोंगो का हिंदी के प्रति निष्ठा और दायित्व मानो दूर कहीं दिया जल रहा हो और इस बड़े समुदाय में अगर प्रभाष जी जाने माने नहीं थे तो कैसे पत्रकारिता ने प्रभाष जोशी को इतिहाश पुरुष बना दिया ?
कहने की बात नहीं की प्रभाष जी ने पत्रकारिता से अपनी पहचान बनाई, पत्रकारिता को अपने कार्य के दौरान अपनी महत्वाकांक्षा के लिए उपयोग किया नि:संदेह पत्रकारिता में व्यवसायिकता को घुसाने में अहम् योगदान दिया अपने अंतिम समय में इस व्यवसायिकता के पत्रकारिता पर हावी होने पर आहत जरूर थे मगर इतने नहीं जितने पत्रकारिता के फ़ौज ने जताने की कोशिश की. तहलका के हिन्दी पत्रिका में उनके लेख स्पष्ट कहते हैं की व्यवसायिक होड़ में लेख किस तरह व्यावसायिक था.
आज मिडिया की गुणवत्ता आम जनों में समाप्त प्राय है, मगर खबर का बाजार हमेशा की तरह सजा हुआ है. देश के खोकले स्तंभों ने इस देश को खोखला किया है और इन्हीं स्तंभों को मिडिया की जरुरत भी. निराला हों या दिनकर, नागार्जुन हों या प्रेमचंद इन सबके साथ अगर किसी को खड़ा करना हो तो हमारी पत्रकारिता किसी को भी साथ लगा सकती है, किसी को भी हिन्दी के महापुरुषों के श्रेणी में डाल सकती है और ऐसा ही कुछ प्रभाष जोशी के लिए भी किया.
धन्य है मीडिया.
9 comments:
ye mera india hai...........yahan ka media sabse mahan hai.........phir ye sab dekhne aur sunne ki aam janta ko aadat si pad chuki hai..........sochiye aam janta ke baare mein jab itne vikhyat patrkar ke baare mein ye haal hai to bechari janta ka kya hota hoga........jai ho media ki.
प्रभाष जी के कृतित्व से परिचित हूँ, पढ़ा है उन्हें ।
हाँ, ये कहना सच है आपका कि मीडिया का रोल कुछ विचित्र तो था । एक मोनोटोनस अभियान जैसा लगा सब कुछ । सजीवता के साथ ? शायद नहीं ।
प्रविष्टि सुन्दर है । आभार ।
आपकी पोस्ट ने सब जमी धूल झाड़ दी।
सारी पोल खोल कर रख दी!
आपकी शब्दांजलि पढकर अभिभूत हूं।
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जल में रह कर भी बेचारा प्यासा सा रह जाता है।
जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
Achhaa kiya jo ye link mujhe diya..Joshi ji ke bareme mujhe jaankaaree to thee lekin is aalekh zariye kayi jaankariyan mili...!
ब्लॉगर तो ब्लॉगर को ही जानेगा
अखबार वालों को कैसे पहचानेगा
# परिदृष्य तो यही है, लेकिन मुन्ना भाई, एक हिन्दी वाला दूसरे हिन्दी वाले को जानता होएगा ?
ब्लॉग तो अब आया है,
उस से पहले वो स्टार् ब्लॉगर हिन्दी तो पढ़ता ही रहता होएगा....
प्रभाष जी अपनी ज़हर बुझी मीठी ज़बान से पिछले 5-6 दशकों से हिन्दी पट्टी की वैचारिकता की मिट्टी पलीद करते रहे हैं.
एक हिन्दी वाला अगर इन्हें, नही जानने का बहाना कर रहा है, तो उस के कुछ गहरें कारण होंगे, हमें पड़ताल करनी चाहिए, ब्लॉगर्ज़ वर्ल्ड से बाहर निकल कर.
निराला हों या दिनकर, नागार्जुन हों या प्रेमचंद इन सबके साथ अगर किसी को खड़ा करना हो तो हमारी पत्रकारिता किसी को भी साथ लगा सकती है, किसी को भी हिन्दी के महापुरुषों के श्रेणी में डाल सकती है...............सही कहा आपने।
अति सुन्दर ...
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