अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक आंकलन के हवाले से 2002 में दुनियाभर से करीब 12 लाख बच्चों की तस्करी हुई। वहीं युनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट आफ स्टेट के आकड़ों (2004) का दावा है कि दुनिया में तस्करी के शिकार कुल लोगों में से आधे बच्चे हैं। अकेले बच्चों की तस्करी से हर साल 10 अरब डालर के मुनाफे का अनुमान है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के बाल मजदूरी से जुड़े आकड़ों (2000) का अनुमान है कि सेक्स इंडस्ट्री में 18 लाख बच्चों का शोषण हो रहा है। इनमें भी खासतौर से लड़कियों की तस्करी विभिन्न यौन गतिविधियों के लिए हो रही है। इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का यह भी अनुमान है कि घरेलू मजदूरी में भी लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। ऐसे बच्चों की तस्करी करने के लिए इनके परिवार वालों को अच्छी पढ़ाई-लिखाई या नौकरी का झांसा दिया जाता है। युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रंस फंड, फेक्ट शीट (2005) का अनुमान है कि दुनिया के 30 से ज्यादा सशस्त्र संघर्षों में बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है। कुछ बच्चों को गरीबी तो कुछ को जबरन उठाकर सेना में भर्ती किया जाता है। 1990 से 2005 के बीच सशस्त्र संघर्षों में 20 लाख से ज्यादा बच्चे मारे गए। युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रंस फंड, फेक्ट शीट (2005) ने यह भी कहा है कि अक्सर पिछड़े, अनाथ, विस्थापित, विकलांग या युद्ध क्षेत्र में रहने वाले बच्चों को सैन्य गतिविधियों में लगा दिया जाता है।
प्राकृतिक आपदाओं की ऊहापोह में बच्चों की तस्करी करने वाले गिरोहों की सक्रियता भी बढ रही है। इस दौरान यह गिरोह अपने परिवार वालों से बिछुड़े और गरीब परिवार के बच्चों को निशाना बनाते हैं। इसके अलावा गरीबी के चलते कई मां-बाप अपनी बेटी को आर्थिक संकट से उभरने का उपाय मानते हैं और पैसों की खातिर उसकी शादी किसी भी आदमी के साथ कर देते हैं। इन दिनों अधेड़ या बूढ़े आदमियों के लिए नाबालिग लड़कियों की मांग बढ़ती जा रही है। उन बच्चों के बीच तस्करी की आशंका बढ़ जाती है जिनके जन्म का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है। युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड, बर्थ रजिस्ट्रेशन के मुताबिक 2000 में 41 प्रतिशत बच्चों के जन्म का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ। बच्चों की कानूनी पहचान न होने से उनकी तस्करी करने में आसानी हो जाती है। ऐसे में लापता बच्चों का पता-ठिकाना ढ़ूढ़ना मुश्किल हो जाता है। तस्करी और लापता बच्चों के बीच गहरे रिश्ते का खुलासा एनएचआरसी की रिसर्च रिपोर्ट (2004) भी करती है जिसमें कहा गया है कि भारत में एक साल 30 हजार से ज्यादा बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज होते हैं, इनमें से एक-तिहाई का पता नहीं चलता है। तस्करी के बाद ज्यादातर बच्चों का इस्तेमाल खदानों, बगानों, रसायनिक और कीटनाशक कारखानों से लेकर खतरनाक मशीनों को चलाने के लिए किया जाता है। कई बार बच्चों को बंधुआ मजदूरी पर रखने के लिए उनके परिवार वालों को एडवांस पैसा दिया जाता है। इसके बाद ब्याज का पैसा जिस तेजी से बढ़ता है उसके हिसाब से बच्चों को वापिस खरीदना मुश्किल हो जाता है। इसके साथ-साथ अंग निकालने, भीख मांगने और नाजायज तौर से गोद लेने के लिए भी बच्चों की तस्करी के मामले बढ़ रहे हैं।
बाल तस्करी की हर अवस्था में हिंसा की सिलसिला जारी रहता है और ऐसे बच्चे आखिरी तक गुलामी का जीवन ढ़ोने को मजबूर रहते हैं। ऐसे बच्चे भरोसेमंद आदमियों के धोखा दिए जाने चलते खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। यह भी अजीब विडंबना है कि ऐसे बच्चे अपनी सुरक्षा, भोजन और आवास के लिए शोषण करने वालों के भरोसे रहते हैं। यह बच्चे तस्करी करने वाले से लेकर काम करवाने वाले, दलाल और ग्राहकों के हाथों शोषण सहते हैं। ऐसे बहुत सारी परेशानियों के चलते उनमें हताशा, बुरे सपने आने या नींद नहीं आने जैसे विकार पैदा होते हैं। तब कुछ बच्चे नशे की लत में पड़ जाते हैं और कुछ आत्महत्या की कोशिश तक करते हैं।
बाल तस्करी से जुडे़ सही और पर्याप्त आकड़े जमा कर पाना बहुत मुश्किल है। ऐसा इसलिए क्योंकि तस्करी के तार अंतर्राष्ट्रीय और संगठित अपराध की बहुत बड़ी दुनिया से जुड़े हैं। यह इतनी भयानक, विकराल और अदृश्य दुनिया है कि इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना आसान नहीं है। यह शारारिक और यौन शोषण के घने जालों से जकड़ी एक ऐसी दुनिया है जिसको लेकर सटीक नतीजे तक पहुंच पाना भी मुश्किल है। कई बार आकड़ों में से ऐसे लोग छूट जाते हैं जिनकी तस्करी देश के भीतर हो रही है। फिर यह भी है कि कई जगहों पर तस्करी के शिकार लोगों की आयु या लिंग का जिक्र नहीं मिलता।
दुनिया भर में बच्चों की तस्करी सबसे फायदेमंद और तेजी से उभरता काला धंधा है। क्योंकि एक तो इसमें न के बराबर लागत है और फिर नशा या हथियारों की तस्करी के मुकाबले खतरा भी कम है। इस धंधे में बच्चे कीमती सामानों में बदलते हैं और मांग-पूर्ति के सिद्धांत के हिसाब से देश-विदेश के बाजारों में बिकते हैं। तस्करी में ऐसा जरूरी नहीं है कि बच्चों को अंतर्राष्ट्रीय सीमा के बाहर ही ले जाया जाए। एक बड़ी संख्या में बच्चों की तस्करी गांवों से शहरों में भी होती है। इसके अलावा पर्यटन से जुड़ी मांग और मौसमी पलायन के चलते भी तस्करी को बढ़ावा मिलता है। देश के भीतर या बाहर, दोनों ही प्रकार से बच्चों की तस्करी भयावह अपराध है। इसलिए बच्चों की तस्करी रोकने के लिए सार्वभौमिक न्याय का अधिकार देने वाले कानून की सख्त जरूरत है। फौजदारी कानूनों को न सिर्फ मजबूत बनाने होंगे बल्कि उन्हें कारगर ढ़ंग से इस्तेमाल भी करने होंगे। बच्चों की तस्करी से जुड़ी सभी गतिविधियों, लोगों और एंजेसियों पर फौजदारी कानून के तहत कार्रवाई हो। इसके अलावा शोषण से संरक्षण देने वाले ऐसे कानून और नीतियां हो जो बच्चों की तस्करी रोकने के लिए सीधे असर सकें। इनमें पलायन, बाल मजदूरी, बाल दुरुपयोग और पारिवारिक हिंसा से जुड़े कानून आते हैं। यहां एक और बात स्पष्ट है कि बच्चों की तस्करी रोकने के कानूनी उपाय तब तक बेमतलब रहेंगे जब तक कानूनों को इस्तेमाल करने और उनकी निगरीनी करने की उचित व्यवस्था नहीं रहेगी। साथ ही साथ तस्करी के शिकार बच्चों को तेजी से पहचानने के लिए कारगर तरीके बनाने और उन्हें अपनाने की भी जरुरत है।
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तस्करी को पालेर्मो प्रोटोकाल (2000) के अनुच्छेद 3 और 5 में दी गई परिभाषा के मुताबिक : ''व्यक्तियों की तस्करी का अर्थ धमकी या जबरन या अपहरण जालसाजी, धोखे, सत्ता के गलत इस्तेमाल, असहायता की स्थिति, किसी दूसरे व्यक्ति पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति की सहमति पाने के लिए पैसे, लाभ के लेन-देन के लिए व्यक्तियों की भर्ती, परिवहन, स्थानांतरण, शरण या प्राप्ति है।''
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शिरीष खरे
C/0- Child Rights and You
189/A, Anand Estate
Sane Guruji Marg
(Near Chinchpokli Station)
Mumbai-400011
www.crykedost.blogspot.com
I believe that every Indian child must be guaranteed equal rights to survival, protection, development and participation.
As a part of CRY, I dedicate myself to mobilising all sections of society to ensure justice for children.
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