अभी हाल ही में मेरे मित्र, सुपरिचित व्यंग्यकार डॉ यश गोयल ने एक रोचक किंतु चिंतित करने वाली प्रवृत्ति की तरफ़ ध्यान आकृष्ट किया है. हुआ यह कि उन्होंने किसी सामयिक विषय पर एक व्यंग्य लिख कर एक स्थानीय समाचार पत्र को भेजा. व्यंग्यकार प्राय: अपने व्यंग्य का निशाना सामयिक घटनाओं को बनाते ही हैं. उस समाचार पत्र ने डॉ गोयल के व्यंग्य को प्रकाशित करने से इंकार कर दिया. इसमें कोई खास बात नहीं है. हर संपादक का अपना चयन-विवेक होता है, होना चाहिए, और मुझे नहीं लगता कि कोई भी लेखक इस बात से आहत होगा. लेकिन यहां बात कुछ अलग थी. व्यंग्यकार को बताया गया कि उनका वह व्यंग्य इसलिए उस समाचार पत्र में नहीं छप सकता कि जिस प्रसंग पर वह व्यंग्य आधारित है उसे उस अखबार के एक राइवल अखबार ने सबसे पहले उठाया था. यानि अगर आपका प्रतिद्वन्द्वी अखबार कोई मुद्दा उठा दे तो फिर आपके अखबार के लिए उस मुद्दे से संबद्ध तमाम चीज़ें वर्जित हो जायेंगी. मैं सोच सकता हूं कि जब व्यंग्य नहीं छपेगा तो उस मुद्दे पर कोई खबर भी नहीं छपेगी, क्योंकि वह मुद्दा पहले एक प्रतिद्वन्द्वी अखबार उठा चुका है. अब इस बात को ज़रा एक पाठक की निगाह से देखिये. आप जो अखबार खरीदते और पढ़ते हैं, उसमें कोई खबर महज़ इसलिए नहीं छपेगी कि उस खबर को पहले एक प्रतिद्वन्द्वी अखबार उठा चुका है. भाई, यह तो सीधे-सीधे एक पाठक के अधिकार का हनन हुआ ना!
ऐसा कोई एक अखबार ही करता हो यह भी नहीं है. डॉ गोयल ने ही हिंदी के एक और प्रतिष्ठित, राष्ट्रीय समाचार पत्र का ज़िक्र करते हुए बताया है कि उस अखबार ने उन्हें यह साफ कह दिया कि वह बहनजी के बारे में कोई व्यंग्य नहीं छपेगा. मुझे नहीं पता कि इस नीति में बहनजी की आलोचना वाले समाचार भी शामिल हैं या नहीं. हो, या न हो, क्या यह ग़लत नहीं है कि कोई अखबार किसी या किन्हीं लोगों को इस तरह की सुरक्षा प्रदान करे? मैं नहीं जानता कि इस तरह के निर्णय के पीछे क्या है? विज्ञापन बंद हो जाने का भय, या प्रशासनिक दादागिरी से होने वाले संभावित नुकसान की चिंता? या कुछ और? चाचा ग़ालिब याद आते हैं “बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब/कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.”
ये दोनों प्रसंग एक चिंताजनक परिदृश्य की ओर इशारा करते हैं. इतना साफ़ है. आज एक अखबार किसी खास विषय पर लिखी रचना को अस्वीकार कर रहा है, कल वह किसी खास बिंदु पर आए समाचार को ब्लैक आउट करेगा. और कल की क्या बात! हमने जिस दूसरे अखबार का उल्लेख किया, वह तो आज भी यह कर रहा है. अभी वह व्यंग्य को अस्वीकर कर रहा है, कल को समाचार को करेगा. या क्या पता, आज भी करता ही हो.
विचारें कि क्या ये प्रवृत्तियां यां एक स्वस्थ जनतंत्र में स्वीकार की जानी चाहिए?
अगर नहीं, तो यह भी सोचें कि ऐसे में क्या किया जाना चाहिए कि इन पर लगाम लगे.
--डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
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