फलों का राजा आम और लोकतंत्र का राजा आम आदमी! क्यों ठीक कहा न? दोनों में इतनी समानताएं हैं कि कौन आम है और कौन आम आदमी यह तय कर पाना मुश्किल है। गौर फरमाईये...आम आदमी की पूछ ही एक खास मौसम (चुनावी) में होती है और आम का भी अपना एक खास मौसम होता है। बाकी दिनों में इन दोनों को कोई याद नहीं करता। आम आदमी को नेता याद नहीं करते और आम को विक्रेता याद नहीं करते।
दूसरी समानता...दोनों को राजा की उपाधि मिली है, जबकि ये राजा है ही नहीं। लोकतंत्र का राजा कहा जाने वाला आम आदमी एक दिन का राजा और 5 साल के लिए प्रजा बन जाता है, वहीं फलों का राजा आम गर्मियों में तो राजा रहता है, पर अन्य महीनों में इसका हाल पीडि़त प्रजा जैसा ही होता है। तीसरी समानता...आम जब पक जाता है तो लाल-पीला हो जाता है और आम आदमी जब नेताओं के कृत्य देख-सुनकर पक जाता है तो वह भी ठोड़ी देर के लिए लाल-पीला हो जाता है। चौथी समानता...आम जब तक पेड़ पर है, एकजुट है, उसका स्वाद खट्टा है, तब तक उसकी रखवाली होती है और जैसे ही वह पक जाता है, मीठा हो जाता है तो उसकी बिकवाली शुरु हो जाती है। आम आदमी भी जब तक एकजुट है, जागरुक है तब तक उसकी बात सुनी जाती है, जैसे ही वह अलग हुआ, दूर-दूर हुआ, उसके अरमानों को बेच दिया जाता है।
पांचवी समानता...जब तक आम, आम आदमी के पास है तब तक वह आम ही रहता है, लेकिन जैसे ही वह खास (व्यापारी) के पास पहुंचता है, उसका दामकरण कर दिया जाता है यानि उसकी कीमत तय हो जाती है। ठीक वैसे ही जैसे आम आदमी जब तक आम बना रहेगा, उसकी कोई वैल्यू नहीं होती। लेकिन जैसे ही कोई आम आदमी खास (नेता, मंत्री, पुलिस, अधिकारी इत्यादि) बनता है, उसकी कीमत आसमान छूने लगती है। यहां आश्चर्य की बात यह है कि आम और आम आदमी के बीच इतनी समानता होते हुए भी वे एक दूसरे के किसी काम नहीं आते। न तो आम, आम आदमी को पूछता है और न हीं आम आदमी, आम की जानकारी रखता है।
लेकिन इस बार थोड़ा उल्टा हुआ पर खास ने सारा गणित ही गुडग़ोबर कर दिया, पर कैसे? इतनी भीषण महंगाई में जहां, साग, पात, सब्जी, दाल, चावल, रोटी आम आदमी से दूर जा रहा है, सुना है आम अब सस्ता होकर आम आदमी के घर में आ रहा है। खबर है कि आम की पैदावार कुछ 10 एक प्रतिशत ज्यादा हुई है, जिसकी वजह से आम की कीमत आम आदमी की पहुंच के भीतर आ गयी है। सुना, गुना और समझा फिर निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह कैसे हो गया? लेकिन मेरी जिज्ञासा शांत होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा, क्योंकि एक खास वर्ग ने आम को कब्जे में लेने की योजना बना ली है। वह खास अब आम को गोदाम में भर देगा, भले ही आम अपने मीठे रस से आम आदमी को स्वाद चखाना चाहता हो पर वह खास ऐसा नहीं होने देगा। खास ने कसम खा ली है कि आम भले ही सड़ जाए, गल जाए पर उसे आम आदमी को नहीं खाने देगा या यूं कहें कि आम और आम आदमी का मिलन नहीं होने देगा। दु:ख इस बात का है कि आम जब खुद पैदावार बढ़ाकर, दो कदम चलकर आम आदमी तक पहुंच रहा था, तो न जाने क्यूं खास के पेट में दर्द हो गया? एक सुखद संयोग बन रहा था। आम, आम आदमी से मिलता, अपने सुख-दु:ख शेयर करता, भविष्य की योजनाएं बनाता, पर शायद खास को इस बात की भनक लग गयी थी कि आम और आम आदमी का मिलन कहीं खास के लिए 'कड़वा स्वाद' न बन जाए? इसलिए खास ने ऐसी चाल कि आम, आम ही रह गया और आम आदमी का काम तमाम हो गया....
जय भड़ास जय जय भड़ास
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