अमित भाई बस स्पष्ट उत्तर दीजियेगा

अमित भाई बस स्पष्ट उत्तर दीजियेगा वैसे उम्मीद तो कम ही है क्योंकि बात हिंदू,मुसलमान या जैन की है ही नहीं बात तो ये है कि जब भी किसी ऐसी आस्था की होती है जो कि सवालिया हो तो हम चुप्पी साध जाते हैं ये तो आप भी कई बार कर चुके हैं, महावीर सेमलानी भी कर चुके हैं उन्होंने तो ऐसी चुप्पी साधी है कि आज तक साँस ही न ली जबकि उनसे रूबरू मुलाकात भी कर चुके हैं लेकिन विषय पर न आए। आप चाहते हैं तो उत्तर आपके सवाल से ही निकाल कर दे देती हूँ कि बस इतना साफ़ कर दीजिये कि हिंदू संगठनों में चाहे वह मुंबई में हनुमान जयंती मनानी हो या राम नवमी जैन लोग क्या करते हैं शीर्ष पदों पर घुस कर? जब जैनों को राम या कृष्ण से कोई लेना देना नहीं है वेदों को नहीं मानते हैं आप तो तीर्थंकरो को मानते हैं फिर भाड़ में जाएं राम और राम का मंदिर और आग लगे बाबरी मस्जिद को; आप बता दीजिये कि कोठारी बंधु कारसेवा में क्या करने गए थे??अब आप कहेंगे कि उनका कारसेवा से कोई लेना देना नहीं था वे तो अयोध्या में मेडिकल स्टोर खोलने के लिये दुकान देखने गये थे भोले बेचारों को दुष्ट हिंदुओं ने बरगला कर अपने साथ ले लिया और धोखे से मरवा दिया??? या सचमुच जैन हिन्दू होते हैं जो चाह कर भी अपने तीर्थंकरों और राम-कृष्ण को साथ नहीं खड़ा करते लेकिन पीछे से दंगों के दौरान मुसलमानो को मारने काटने में हिन्दुओं की मदद करते हैं?????
मुंबई में होने वाले सारे हिन्दुओं के उत्सवों में जैन लोग इतने आगे खड़े रहते हैं कि लगता है कि जैन हिन्दू ही हैं जबकि ऐसा कुछ नहीं है। सारे कारण बता दीजियेगा एक साथ सभी श्वेताम्बरों-दिगम्बरों से बात करके वरना फिर आगे दिक्कत होगी कि आप कहेंगे कि ये बात तो फलाँ समुदाय की है वे अलग हैं आदि आदि इत्यादि।
आप जैसे भाई बहनों के लिये भाई फ़रीद जी ने एक प्यारी सी कविता लिखी है जिसे आसानी से कोई भी हिन्दू,मुसलमान या जैन पचा पाए तो मान जाऊंगी कि आप सत्य को यथावत स्वीकारने का साहस रखते हैं कि रहस्यदर्शन भी हमारी दर्शन परंपरा का ही एक पड़ाव है वह हिन्दू भी मानते रहे और मुस्लिम भी मानते हैं जैन मानते हैं या नहीं ये आप बताइयेगा।
एक पागल का प्रलाप

कम्बल ओढ़ कर वह और भी पगला गया,
कहने लगा मेरा ईश्वर लंगड़ा है.... काना है, लूला है, गूंगा है।
'निराकार' बड़ा निराकार होता है, नीरस, बेरंग, बेस्वाद होता है।
कट्टर और निरंकुश होता है।

वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है। उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है।

जितने तरह के आदमी,
जितने तरह के पेड़, पौधे, पहाड़, और जानवर, उतने तरह के ईश्वर तो होने ही चाहिए।
इतना तो अपना हक़ बनता है।

जो ईश्वर को दुरदुराते रहते हैं, उनका भी ईश्वर होता है,
नंगे पांव, नंगे बदन, गरियाते, गपियाते।

पागल को सभी ढेला मारते हैं।
ईश्वर कभी लंगड़ा होता है क्या ?
काना होता है क्या ?
लूला होता है क्या ?
गूंगा होता है क्या ?

वह अचरज में इतना ही पूछ पाता है
कि हम लंगड़े, काने, लूले, गूंगे हो सकते हैं तो ईश्वर के लिए मुश्किल है क्या ?



मेरा ईश्वर

मेरा और मेरे ईश्वर का जन्म एक साथ हुआ था।

हम घरौन्दे बनाते थे,
रेत में हम सुरंग बनाते थे।

वह मुझे धर्म बताता है,
उसकी बात मानता हूँ,
कभी कभी नहीं मानता हूँ।

भीड़ भरे इलाक़े में वह मेरी तावीज़ में सो जाता है,
पर अकेले में मुझे सम्भाल कर घर ले आता है।

मैं सोता हूँ,
रात भर वह जगता है।

उसके भरोसे ही मैं अब तक टिका हूँ, जीवन में तन कर खड़ा हूँ।
:- रचनाकार भाई फ़रीद जी की अनुमति के बिना उद्घृत कर रही हूँ अग्रिम माफ़ी के साथ यदि उन्हे ये लगे कि कविता चुरा ली गयी है:)
जय जय भड़ास

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