पत्रकारिता के पेट से एक दिन भड़ास का जन्म हुआ। दो नाम सामने आए यशवंत सिंह और डा.रूपेश श्रीवास्तव। किसी ने लिखा कि ये दोनो भड़ास के दो ध्रुव हैं एक "भ" है दूसरा "स" है बाकी जो बीच में हैं वो सब "डा़" हैं। यशवंत हमेशा से बाजारवाद के प्रभाव में रहे और डा.रूपेश श्रीवास्तव एक बाग़ी किस्म के सुधारवादी व्यक्ति जिनपर बाजार या बाजारवाद का न तो कोई प्रभाव पड़ा न वे इसके समर्थन में रहे। यशवंत सिंह चूंकि परंपरागत पत्रकारिता से आए थे तो उनका कहना है कि आजकल के दौर में संपादकीय नैतिकता की उम्मीद नहीं करनी चाहिये लेकिन डा.रूपेश श्रीवास्तव का कहना रहा कि यदि मीडिया में संपादक जैसी संस्था अनैतिक व पक्षपाती हो जाए तो फिर मीडिया अपने दायित्त्व पूरे न करके मात्र छ्ल और छद्म ही फैलाएगा। संपादक की गलती किसी भी हाल में क्षम्य नहीं होनी चाहिये। डा.रूपेश श्रीवास्तव अकेले ही फौज हैं और गलत बातों पर भिड़ जाते हैं कष्ट उठा लेना, मार खा लेना उन्हें स्वीकार है लेकिन जो गलत है वो हर हाल में गलत है चाहे सामने वाला कोई भी हो। यशवंत सिंह पूरी तरह से दिमाग से लिखते हैं, वे व्यवसायिक अभ्यास से अच्छे लेखक बन चुके हैं लेकिन डा.रूपेश श्रीवास्तव का लेखन सिर्फ़ दिल से जुड़ा रहता है वे जरा भी व्यवसायिक नहीं हैं और न ही शायद अच्छे लेखक हैं भावुकता में आकर कभी-कभी अत्यंत कड़ी भाषा का भी प्रयोग करते हैं ये बिना विचारे कि उन पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है। इस पर डा.रूपेश श्रीवास्तव का कहना है कि वे सत्य कहने कोई समझौता नहीं करेंगे, संविधान का आदर करने का मतलब ये नहीं कि उसका दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ़ बोलने में डरा जाए। निजी तौर पर यशवंत सिंह दारू और मुर्गा के शौकीन हैं जबकि डा.रूपेश श्रीवास्तव नशे से कोसों दूर हैं और शाकाहारी हैं क्योंकि भोजन संबंधी व स्वास्थ्य को लेकर उनकी अपनी निजी धारणाएं हैं जिनका आधार उनकी उच्च आयुर्वेद की शिक्षा है। ऐसे सैकड़ों अंतर हैं जो कि यशवंत सिंह और डा.रूपेश श्रीवास्तव को एक मंच पर साथ में खड़ा रख ही नहीं सकते। मैं इस बात को श्रंखला के रूप में लिखना चाह रही हूं क्योंकि अब तक लाखों लोगों को ये नहीं पता कि ये दोनो एक जमाने से एक साथ नहीं हैं।
जय जय भड़ास
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