नव वर्ष का संकल्प, २००८ की संध्या को लिया २००९ की सुबह भूल गया.

साल २००८ का समापन और २००९ का आगमन, चलो ये भी समाप्त हो गया और छोड़ गया इस दरमियाँ लोगों की संवेदनशीलता , राष्ट्रवाद, और भारतीयता का अगम्य छाप। २००८ का साल भारत के लिए मिला जुला रहा, सफलता और असफलता दोनों पलडे बराबर ही रहे मगर आतंकवाद ने देश को ज्यादा परेशान किया बाढ़ की आपदा तो जातिगत भेदभाव। दिल्ली, जयपुर, हैदराबाद बम धमाके हुए तो अन्तोगत्वा मुंबई पर आतंकी हमला।

मुंबई काण्ड के बाद तो लगा की जैसे सारा भारत एक सूत्र से पिरोया हुआ है, सभी को मानवीय संवेदना, इंसानी पीड़ा राष्ट्रीय दुःख का अपार सागर ने एक धागे में बाँध दिया हो, जहाँ देखो वहीँ सिर्फ़ भारतीयता ही भारतीयता ! बड़ा शुभ संकेत लग रहा था, मगर क्या ये ही हकीकत थी? सच्चाई थी ? कि मुंबई काण्ड के सामाप्त हुए अभी महीना नही बीता और हम हिन्दुस्तानी, समस्त भारतवासी को जश्न ने आ घेरा ? हम भूल गए की हम अभी कुछ दिन पूर्व मोमबत्ती जलाकर संवेदना दे रहे थे (शायद विदेशों से सीखा हो) लिपस्टिक कांड पर महिला बोखलाकर मुंह काला करने की सलाह तक दे डाली मगर ३१ दिसम्बर की शाम जश्ने आम में क्या महिला क्या पुरूष क्या भारतवाशी सब के सब अपने शहीदों की चिताओं पर सुर और सुरा के मद में मस्त। शायद ये ही हमारा नए साल का संकल्प था?

इन्हीं चिन्तनों में लीन था जब ३१ कि शाम को बस में विचारते घर पहुंचा। पहुँचते ही समाचारों का बुखार खबरिया चैनल घुमाने लगा और अफ़सोस के साथ शर्म पत्रकारिता पर की बेचने की जुगत में ये कहीं बाढ़ का पानी बेचते हैं तो कहीं आतंक पर शहीद हुए जवानों का रक्त और नए साल की पूर्व संध्या पर मदिरा के साथ अर्ध नग्न महिलाओं का हुजूम। आश्चर्य तब लगा जब पत्रकारिता के प्यादे शराब के नशे में चूर लोगों से नए वर्ष पर संकल्प की बात पूछते नजर आए और जिसका लडखडाती आवाज ने भी जोश के साथ जवाब दिया।

शराब कबाब और शबाब पर थिरकता हमारा लोकतंत्र या रोटी के लिए जद्दोजहद करता आम आदमी का लोकतंत्र ?

नव वर्ष की पूर्वसंध्या पर सरकार की तरफ़ से दो चेतावनी भी थी, शराब पी कर गाड़ी चलने वालों पर जुर्माना या सजा और पहली जनवरी को गाड़ी का भोंपू बजाने पर जुर्माना। दिल्ली के फार्म हाउस की देर रात तक चलती पार्टियों में से किसी ने शराब नही पी ना ही ३१ की रात को किसी पुलिस वाले ने या पत्रकार ने पी, ये लोग कितने सुधर गए हैं और फार्म हाउस में अब कीर्तन का कार्यक्रम चलने लगा है! क्यौंकी पीता तो सिर्फ़ वो गरीब है जो सड़क पर कमाकर खाता है और वहीँ सो जाता है, थोडी सी पी ली तो पुलिस वाले की कमाई।

कुछ दिनों पूर्व मुंबई में भी भोंपू रहित दिवस मनाया गया और ६००० लोगों ने जुर्माना भरा, ये एक आंकडा है दिल्ली में शायद ये १००० तक पहुंचा मगर क्या ये आंकडा सच्चाई है या सिर्फ़ आंकडा ? मैंने बस से यात्रा किया और देखा कि लोग कितने सजग हैं, नि:संदेह दोष प्रशाशन या पुलिस या सरकार को नही क्यूंकी हां भारतवाशी कानून को तोड़ना अपना अधिकार जो समझते हैं, संवेदना के नाम पर लोगों के साथ आंसू बहाना और पकिस्तान पकिस्तान, हिंदू मुसलमान के नाम पर भेड़ कि झुंड में एक साथ आवाज !

क्या यही भारतीयता है?
क्या इसी दम पर हम एक होने का दावा करते हैं?
इसी पर हम विकसीत होने का दंभ भरते हैं ?

हमारे सारे दावों पर आसाम का बम धमाका ने मुहर लगा दी। साबित कर दिया हमारी एकता की डोर की मजबूती को, हमारे राष्ट्रवाद को, हमारे ढकोसले को, और बुद्धिजीवियों के लिए छोर गया एक और बहस ! पत्रकारों के लिए एक और रपट ! नेताओं के लिए कुछ और वायदे !

शायद ये हमारी नियति है। प्रश्न अनुत्तरित है ?

1 comment:

anuradha srivastav said...

प्रभावी लेख .........आपका लेखन सोचने को मजबूर करता है।

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