पार जाने लगे, दर्द हद से
टीस उठने लगे, हर तरफ़ से
पैर बढ़ने लगे , हर कदम से
लोग जुटने लगे , जब शहर से
तो समझो मामला गड़बड़ है ...
न न्योता न नेतान नुक्कड़ न नाटक
अब तो खुलने लगे ख़ुद अपने ही फाटक
आंख मिलने लगे, जब नज़र से
तो समझो मामला गड़बड़ है......
सारे राही हैं, मंजिल का सबको पता
धर्म और जाति न कोई बंधा
सुर मिले हैं सुरों से ,अब कुछ इस तरह
शर्म भी जब शर्माने, लगी है शरम से
तो समझो मामला गड़बड़ है....
पार जाने लगे, दर्द हद से
पैर बढ़ने लगे , हर कदम से
तो समझो मामला गड़बड़ है...........
2 comments:
भाई बस इसी बात की कमी थी तो आपने पूरी कर दी:) है न रजनीश भाई......
मनोज भैई,
शानदार लिखा, पेले रहिये.
डोक्टर साहब भी तुकबंदी में कम नही हैं.
जय जय भड़ास
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