- मुंबई पर हमले की जानकारी ज्यादातर लोगों को टीवी न्यूज चैनलों से ही क्यों मिली? ,
- क्यों अमिताभ बच्चन पिस्तौल रखकर सोए?
- क्यों सुरों की सरताज लता मंगेशकर तीन दिन में तीन सौ बार रोईं?
- क्यों तीन दिन तक उन्होंने टीवी बंद नहीं किया?
- क्यों शिल्पा शेट्टी को जैसे ही हमले का फोन आया तो उन्होंने तुरंत टीवी आन किया?
- हर कोई कहता दिखा कि हमला भयावह था, ये किस आधार पर कह रहा था? सिर्फ सुनकर या पढ़कर। (जी नहीं, टीवी चैनल की स्क्रीन पर एके 47 लिए खड़े आतंकी को देखकर, गोलियों की आवाज और स्टेशन पर मची अफरातफरी को देखकर। जलता ताज देखकर। सैंकड़ों की तादाद में कमांडो देखकर।)
भाई आपके प्रश्न बेहतरीन हैं, लाजवाब और आपके दर्द को भी बयां करता है मगर आपके सभी प्रश्न का उत्तर क्या सिर्फ़ इतना नही की व्यावसायिकता की दौड़ में आप तमाम लोगों ने पत्रकारिता का बलात्कार कर दिया है, निसंदेह कर रहे हैं। अयोध्या हो या गोधरा, बम के धमाके हों या मुंबई पर आतंकी हमला, आरुशी काण्ड हो या मोनिंदर काण्ड, आप सिर्फ़ एक प्रश्न के उत्तर दीजिये की क्या आपने और आपके जैसे तमाम लोगों ने, बड़ी बड़े पत्रकारों ने, पत्रकारिता के भीष्म ने सिर्फ़ पत्रकारिता की या निर्णयकर्ता बन गए ? प्रश्न सिर्फ़ टी वी पत्रकारिता से नही है अपितु अखबारों से भी।
मुम्बई का आतंकी हमला भारत पर हमला था और ख़बर में जैसा की आपने लिखा अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर, शिल्पा शेट्टी, यानी की बम के हादसे में भी टी वी की चमक दमक को भुनाने की लिए सितारे का सहारा, माफ़ कीजिये और याद कीजिये बहुत से नाम आपने छोर दिए हैं?
शायद आपको याद हो आपने आरुशी के पिता को आरुशी का हत्यारा साबित कर दिया था।
प्रिन्स का गढ्ढे में होने से निकालने तक आपकी तत्परता हमने टी वी में देखी है, या फ़िर यूं कहिये की देश ने झेली है, चलिए अब पत्रकारिता पर आ जाते हैं, ज्यादा पुरानी बात नही है जब पत्रकारिता ने व्यावसायिक रूप नही लिया था। पत्रकारिता के आधार स्तम्भ कहीं से पत्रकारिता पढ़ लिख कर नही आए, नाम मैं नही कहूंगा क्यौंकी आप ख़ुद जानते हैं। जो पढ़ लिख कर नही आए उन्होंने पत्रकारिता को जिया है, पत्रकारिता के लिए एक आयाम कायम किया है क्यौंकी वोह लाला जी के हाथों की कठपुतली नही हुआ करते थे, उनके पत्रकारिता में व्यावसायिकता नही हुआ करती थी, जो खंती पत्रकार हुआ करते थे और वरिष्ट पत्रकार स्वर्गीय गजेन्द्र नारायण चौधरी के शब्दों में पत्रकारिता कभी पढ़ लिख कर नही आ सकती क्यौंकी ये वो शय है जो लहू में दौड़ती है, जब एक पत्रकार साँस लेता है तो वोह पत्रकारिता से भरी होती है। आँखें खुलती है तो पत्रकारिता दिखता है, मगर इस के लिए पत्रकार होना जरुरी है ना की धंधेबाज, व्यावसायिक पत्रकार को इस से बेहतर शब्द नही मिल सकते।
भाई आप तो अपराध संवाददाता हैं, पत्रकार भी क्या आपको पता है की
- जस्टिस आनंद सिंह कौन हैं?
- क्या किसी टी वि चैनल पर आपने इन्हें देखा है?
- क्या किसी जज को पाँच साल की सजा मिलती है वोह मीडिया नजर से दूर हो सकता है?
- बाईज्जत रिहा होने के बाद एक जज को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल नही होने दिया जाता है आपको ख़बर है?
शायद आप जवाब दें ?
सेना का गुणगान करने वाली ये ही मीडिया अभी कुछ दिनों पूर्व मालेगाव कांड पर साध्वी के साथ सेना को जम कर कोस रही थी क्यौंकी ये ही तो पत्रकारिता है?
आज हमारा लोकतंत्र अपने चारो पाये से भले ही जर्जर हो चुका हो मगर हमारे देश के लोग एक हैं और हमारी एकता आज दुनिया देख रही है।
न्यायपालिका, व्यव्हारपालिका, कार्यपालिका और पत्रकारिता के शोषण और दोहन से आजिज लोगों का एक होकर इन चरों जरजर पाये का मरम्मत करना तय है।
जाति-पाती, कॉम धर्म, प्रान्त क्षेत्र, भाषा बोली से ऊपर एक भारतीयता का बिगुल बज चुका है,
बस और बस............................
4 comments:
वाह! क्या बात है। बहुत अच्छा ज़वाब दिया है । आज के वातावरण में पत्रकार भी भ्रमित हो रहे हैं -वे मानें या ना मानें। एक अच्छे लेख के लिए आभार।
विचारणीय लेख ......... देश के आज के हालात उनसे उत्पन्न परिस्थितियां बहुत से प्रश्न , बहुत सा आक्रोश। लेकिन उन सबके बीच व्यवसायिक प्रतिबद्धता और उसके प्रति जवाबदेही निःसंदेह कर्तव्यनिष्ठता और कर्तव्यपरायणता से जुडी भावना ही है जिसका ईमानदारी से निर्वाह किया जाना अत्यन्त जरूरी है। जब कोई इस भावना से हट कर महज़ खानापूर्ति करने में लगा जाता है तो ना वो अपने व्यवसाय के लिये उपयोगी है ना आमजन के लिये।
bahut achche.. inko aisa hi jawab dena chahiye....
भाई,
विनोद जी से जो आपने प्रश्न किया है उसका उत्तर देने में तो विनोद जी के आका भी घबडायेंगे. बड़े बड़े महारथी पत्रकार इस मुम्बई कांड को सिर्फ़ कैश करने में लगे हुए हैं, लोगों की भावना को बेचने में लगे हुए हैं.
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