सबसे ज्यादा जलजला तो हमारे हिन्दुस्तानी मीडिया के हाथ लगा, आख़िर हो भी कैसे नही, हिन्दुस्तान की सरकार के क़दमों चिन्ह पर चलते हुए हमारी मीडिया सब कुछ के लिए अमेरिका का मोहताज जो हो जाती है, राजनेता की तरह पत्रकारिता के भी दामाद अमेरिका जो ठहरे, सो बस जूता ही जूता-मौजा ही मौजा।
जूता से स्वागत
सबसे हद तो भारत के पत्रकारों ने कर दी, बेचने की होड़ और लाला जी की सेवा में सदैव तत्पर ये पत्रकारों की जमात ने जुटे और जैदी की कवायद तो शुरू की मगर नजरिया सिर्फ़ व्यावसायिक ख़बर बेचना, लोगों की भावना बेचना, संवेदना बेचना और बेचना अपनी पत्रकारिता को।
जूते को बेचा, बुश को बेचा मगर क्या पत्रकारिता पर खड़े उतरे ?
क्या जैदी जैसा जज्बा, जोश और पत्रकारिता है हमारे देश के पत्रकारों में ?
क्या ये पत्रकारिता के साथ इन्साफ कर रहे हैं ?
क्या व्यवसाय की होड़ में लाला जी की दुकानदारी के ये चाकर लोगों की जुबान बन रहे हैं ?
कहाँ है हमारा बहादुर पत्रकार
या फ़िर प्रेस का कार्ड और लोगो लगा कर लालबत्ती का सुख भोग रहे हैं ?ख़बर के नाम पर मनोरंजन और बेस्वाद व्यंजन पडोसने वाले इन पत्रकारों ने जैदी के लिए मुहीम चलायी है ?
कहाँ है जैदी?
क्या हो रहा है जैदी के साथ?
प्रश्न बहुत सारे हैं मगर जवाब देने वालों में पत्रकार नही क्यौंकी इन्हें इन्तेजार है अगला जूता कौन फेंकेगा, हमारी एक्सक्लूसिव और फुटेज कैसे बनेगी।
प्रश्न है मगर अनुत्तरित ?
2 comments:
बढिया व सटीक पोस्ट लिखी है।
बहुत सही लिखा है,मन के कई सवालों को उठाया है आपने, जो आज सभी के जेहन में कौंध रहे हैं...
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