भगवान दास दरखान
कचहरी शुरू नहीं हुई थी। जिस कमरे में मुक़दमों की सुनवाई होती थी, अभी तक ख़ाली था। अलबत्ता सदर दरवाजे़ की दहलीज़ के पास दो मुलाज़िम किवाड़ों से टेक लगाये फ़र्श पर फसकड़ा मारे बैठे थे। कमरे के ठीक बीचोबीच दीवार से ज़रा हटकर रंगीन खाट पड़ी थी। यह चैड़ा चकला पलंग था। उसके पाये ऊँचे-ऊँचे थे। उन पर रंग-रोगन से निहायत खुशनुमा नक़्क़ाशियाँ बनी थीं। पलंग पर साफ़ सुथरी झलकती हुई सफे़द चादर बिछी थी। पाँयती की तरफ़ दोहती थी। उस पर रंगीन धागों से आँखों को भानेवाली क़शीदाकारी की गयी थी और हाशिया सुर्ख़ नोल का था। सिरहाने बड़े-बड़े मोटे तक़िये रखे थे।
कमरे के आगे लम्बा बरामदा था। बरामदे के सामने चैड़ा अहाता था, जिसके पूरबी कोने में घने दरख़्तों का झुण्ड था। बरामदे में और दरख़्तों के नीचे किसान, बकरे और भेड़ों को लड़ानेवाले और अलग-अलग पेशों से ताल्लुक़ रखने वाले कामगार जगह-जगह छोटी-बडी़ टोलियों में बैठे थे। उनमें बडी़ तादाद ऐसे मर्दों-औरतों की थी, जिनके मुक़दमों की सुनवाई सरदार की कचहरी में चल रही थी या जिनकी सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई थी। वे हँस रहे थे या अपने मुक़दमों के बारे में एक-दूसरे से विचार-विमर्श कर रहे थे। उनकी मिली-जुली आवाजा़ें का शोर आहिस्ता-आहिस्ता उभर रहा था, जिसमें सरायकी के साथ-साथ कहीं-कहीं बलूची भी मिली हुई थी।
तमाम आवाजें़ एकाएक बन्द हो गईं। हर तरफ़ गहरी ख़ामोशी छा गयी। कचहरी के सदर दरवाजे़ की दहलीज़ पर
बैठे हुए दोनों मुलाज़िम घबराकर उठे और नज़रंे झुकाकर मुस्तैदी से खडे़ हो गये। देखते ही देखते दरवाजे़ पर सरदार शहजो़र खा़ँ मजा़री प्रकट हुआ। वह घुटनों से भी नीची लम्बी कमीज़ और पूरे बीस गज़ की घेरदार शलवार पहने हुए था। उसके उजले लिबास पर इत्र लगा था, जिसकी तेज़ खुशबू से कमरे की फ़िजा़ महकने लगी। उसकी स्याह दाढी़ खूब घनी थी। मूँछें भी घनी थीं और चढी़ हुई थीं। आँखों से जलाल टपकता था। चेहरे पर रूआब और दबदबा था। पीछे, उसका कारदार चाकर खा़ँ सरगानी और हवेली का मालिशिया था। दोनों गरदनें झुकाये उसके पीछे-पीछे चल रहे थे।
सरदार को देखते ही मुलाज़िमों ने आगे बढ़कर उसके पैरों को हाथ लगाकर पैरनपून किया। ऊँची आवाज़ में दुआएँ दीं। ‘सई’ सरदार सदा जीवें। सुखी-सेहत होवें। खै़र-ख़ैरियत होवे। बाल-बच्चे सुखी सेहत होवंे। सब राज़ी-बाज़ी होवे।
सरदार मज़ारी ने हौले-हौले गरदन हिलायी और उनकी तरफ़ देखे बग़ैर कहा ‘‘खै़र-ख़ैर सलाये।’’ वह गरदन उठाये आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ा। रंगीन खाट के करीब गया। टाँगे समेटकर ऊपर पहुँचा। चाकर खा़ँ सरगानी ने झुककर उसके पैरों से ख़स्से उतारे। सरदार तक़ियों से टेक लगाकर बैठ गया। उसने दोनों पैरों के पंजे जोड़कर एक दूसरे से मिलाये और घुटने उठाकर ऊँचे कर लिए। सरगानी के इशारे पर एक मुलाज़िम बढ़कर आगे आया। उसके हाथ में ख़ीरी थी। यह सफे़द मलमल का ढ़ाई गज़ लम्बा टुकड़ा था, जिसे तह करके लगभग छह इंच चैड़ा कर लिया गया था। मुलाज़िम झुका और निहायत मुस्तैदी से ख़ीरी उसकी कमर और घुटनों के गिर्द लपेटकर बग़लबन्दी कर दी। फिर ख़ीरी के दोनों सिरे जोड़कर इस तरह दमोका लगाया कि आँखों के सिवा चेहरे का ज़्यादातर हिस्सा छुप गया।
बलूच नवाज़ सरायकी रईसों की परम्परा के मुताबिक़ जब इस तरह वेठ मारकर बैठ गया तो एक मुलाज़िम ने हुक्क़ा ताज़ा करके रंगीन खाट के करीब स्टूल पर रख दिया। सरदार ने हुक्के की नै सँभाली और होंठों में दबाकर कश लगाने लगा। तम्बाकू की खुशबू कमरे में फैलने लगी। मालिशिया फ़ौरन सरदार मज़ारी की पीठ के पास पहुँचा और तेज़ी के साथ उसके कन्धे और कमर हौले-हौले दबाने लगा।
कचहरी की कार्रवाई शुरू हुई, तो चाकर ख़ाँ सरगानी ने, जो पेशकार का फ़र्ज़ अदा कर रहा था, पहला मुक़दमा सुनवाई के लिए पेश किया। मुलाज़िम गड़रिया था और सरदार के सामने गरदन झुकाये सहमा हुआ खड़ा था। उसके खिलाफ़ यह इल्ज़ाम था कि उसकी रेवड़ की दो भेड़ें सरदार मज़ारी के एक खेत में घुस गयी थीं और मक्की के कई पौधों को नुकसान पहुँचाया था। गड़रिया गिड़गिड़ाकर माफ़ी माँगता रहा, क़समें खाकर यक़ीन दिलाता रहा कि आइन्दा ऐसी ग़लती नहीं होगी, मगर उसकी एक न सुनी गयी। सरदार की नज़र में जुर्म की नौइयत संगीन थी। लिहाजा उसे जुर्माने में पाँच भेडें़ मालखा़ने में पहुँचाने के अलावा तीन महीने जेल में कै़द रखने की सजा़ दी गयी।
चाकर खा़ँ सरगा़नी ने दबी जुबान से सूचित किया, ‘‘सई सरकार, जेल में जगह नहीं है।’’
‘‘जेल में जगह नहीं, तो मुजरिम को सुक्के खोह में डाल दिया जाये।’’ सरदार मजा़री ने हुक्म सुनाया, ‘‘जब तक जेल में जगह नहीं है, सजा़ पानेवाले तमाम कै़दियों को सुक्के खोह में डाल दिया जाये।’’
सुक्के खोह अन्धे कुएँ थे। ये चैड़े मुँहवाले ऐसे कुएँ थे, जो कभी सिंचाई के काम आते थे। मगर सूख जाने की वजह से न उनमें अब पानी था, न उसके निकलने की कोई संभावना थी। सरदार की निजी जेल जब कै़दियों से भर जाती और उसमें कोई गुंजाइश न रहती, तो क़ैदियों को सुक्के खोह में बन्द कर दिया जाता। वे अन्धे कुएँ में उठते-बैठते, सोते, खाना खाते और वहीं पेशाब-पाखाने से फ़ारिग़ होते। न उन्हें किसी से मिलने की इजाज़त होती, न बात करने की। खाना-पानी निश्चित वक़्त पर सुबह शाम रस्सी में बाँधकर पहुँचा दिया जाता। जाड़ा हो, गर्मी हो या बरसात, वे सुक्के खोह से बाहर न आते। अलबत्ता सर्दी के मौसम में कै़दियों को एक कम्बल दे दिया जाता और वह भी उनके घरवाले मुहैया करते। क़ैदियों को जो खाना दिया जाता, चाहे वे सरदार की निजी जेल में बन्द हों या सुक्के खोह में, उसकी की़मत भी सगे-सम्बन्धी ही अदा करते। अगर की़मत अदा न होती, तो कै़दियों को फा़का करना पड़ता। अक्सर कै़दी लगातार भूखों रहने से सिसक-सिसककर मर भी जाते। सुक्के खोह में साँप, बिच्छू और ऐसे ही ज़हरीले कीडे़-मकोडे़ भी होते, जो कभी-कभी कै़दियों की मौत की वजह बनते।
सरदार के फै़सला सुनाये जाने के बाद उस पर फौ़री तौर पर अमलदरामद शुरू हो गया। जुर्माने की अदायगी और सुक्के खोह में कै़द करने की ग़रज से मुजरिम को खींचते हुए कचहरी से बाहर ले जाया गया। सरदार का फै़सला आखि़री और अटल फै़सला था। उसके खि़लाफ़ किसी भी अदालत में न उज्रदारी हो सकती थी न अपील।
चाकर ख़ान सरगानी ने दूसरा मुक़दमा पेश किया। मुक़दमा सरदार शहजो़र खाँ मजा़री के सामने पहली बार पेश नहीं किया गया था, उसकी सुनवाई लगभग चार महीने से जारी थी। अब तक कई पेशियाँ पड़ चुकी थीं। मुक़दमा ख़ासा पेचीदा ओर निहायत संगीन था। लिहाजा़ सरदार मजा़री मसलेहत से काम लेते हुए उसे जानबूझकर तूल दे रहा था, कि गुज़रते वक़्त के साथ-साथ फ़रीका़ें के दिलों में पाया जानेवाला शदीद ग़म व गुस्सा ठण्डा पड़ जाये और उसके फै़सले से हर फ़रीक़ इस तरह मुतमइन हो जाये कि दिलों से बैरभाव हट जाये।
यह पानी के बँटवारे का पुराना झगडा़ था। नौइयत यह थी कि फ़रीकै़न एक ही रूदकोही से अपनी फ़सलों कीे सिंचाई करते थे। रूदकोही के खड्ड में पानी का ज़खी़रा कम था और फ़सलों के लिए ज़रूरत ज़्यादा थी। अंजाम यह हुआ कि पानी के बँटवारे पर झगड़ा पैदा हुआ। ऐसे झगड़े उन बारानी इलाक़ों में अक्सर होते हैं, जहाँ खेतों को रूदकोहियों से पानी दिया जाता है। डेरा ग़ाजी ख़ाँ और उसके आसपास के पहाड़ी इलाक़े में सिंचाई की यह व्यवस्था बहुत पुरानी है। इतनी पुरानी कि सही-सही नहीं पता कि यह कैसे प्रचलित हुई और किसने प्रचलित की। सिंचाई की इस व्यवस्था के तहत बारिश का पानी एक तरफ़ तो बरबाद होने से बचाया जाता है और दूसरी तरफ़ उसे खेती के लिए ज़्यादा उपयोगी बनाने की कोशिश की जाती है। होता यह है कि जब पहाड़ों पर बारिश होती,है तो पानी ऊँची-नीची चोटियों और चट्टानों की बुलन्दियों से ढलान की तरफ़ निहायत तेज़ रफ्तार से बहता है। मशहूर है कि उसके तेज़ धारे में ऐसी काट होती है कि अगर ऊँट उसकी ज़द में आ जाये, तो पैरों और कूचों की हड्डियाँ भी आरी की तरह काट देता है।
यह बरसाती पानी आन की आन में उफान और सैलाब की सूरत इख़्तियार कर लेता है। तेज़ और तीखे रेले में मुसाफ़िरों से भरी हुई बसें बह जाती हैं। फ़सलें बरबाद हो जाती हैं। इन्सान और मवेशी बह जाते हैं। पत्थर, मिट्टी और घास-फूस के बने हुए मकान ढह जाते हैं। हर तरफ़ जल थल हो जाता है। तबाही और बरबादी का बाज़ार गर्म हो जाता है। यही पानी, जो पहाड़ों और उसके दामन में बसने वालों के लिए रहमत का पानी बन सकता है, ज़हमत और मुसीबत बन जाता है।
लेकिन वे जगहें जहाँ रूदकोहियाँ मौजूद हैं, इस तबाही से महफूज़ रहती हैं। उन जगहों पर पानी के तेज़ बहाव का रुख़ मोड़ने के लिए ढलवान पर जगह-जगह मिट्टी और पत्थरों के मजबूत और ऊँचे-ऊँचे पुश्ते बनाये गये हैं। इस तरह बारिश का पानी छोटी-बड़ी नालियों से बहकर उस ज़मीन को जलमग्न करता है, जिस पर खेती-बाड़ी होती है। मगर ऐसी बारानी ज़मीन पर आमतौर पर सिर्फ़ एक फ़सल होती है, जिसमें मक्की के इलावा ज्वार और बाज़रा पैदा होते हैं।
ऐसी रूदकोहियाँ (जल संग्रह का एक तरीक़ा) पहाड़ियों की तलहटी में जगह-जगह देखने में आती हैं। लेकिन झगड़ेवाली रूदकोही इस से भिन्न थी, ज्यादा उपयोगी और देर तक काम आने वाली। अपनी नौइयत और उपयोगिता के ऐतबार से वह एक छोटे से बाँध की तरह थी। उसका निर्माण इस तरह किया गया था कि बारिश के पानी की तेज़ धारा पुश्तों से टकराकर जब अपना रास्ता बदलती, तो नालियों से गुज़रती हुई ढलान के उस तरफ़ बहकर जाती, जहाँ ज़मीन खोदकर पानी का ज़ख़ीरा करने का निहायत मुनासिब इन्तज़ाम था। पानी का यह ज़ख़ीरा ज़मीन की सतह से कुछ बुलन्दी पर था और उसका हिस्सा एक विस्तृत गुफा के अन्दर दूर-दूर तक फैला हुआ था।
पानी का यह ज़ख़ीरा, जिसे स्थानीय बोली में खड्ड कहा जाता है, पहाड़ी चट्टानों के सख़्त और बड़े-बड़े पत्थर तोड़-फोड़कर निहायत जी तोड़ मेहनत से बनाया गया था, ताकि गर्मी के मौसम में पानी सुरक्षित रहे। खड्ड का पानी आम घरेलू इस्तेमाल के भी काम आता था। खड्ड से खेतों की सिंचाई करने के लिए जो नहरें और नालियाँ बनायी गयी थीं, वे ख़रीफ के इलावा कभी-कभी रबी की फ़सल की काश्त के वास्ते भी पानी मुहैया कराती थीं।
फ़रीकै़न (वादी-प्रतिवादी) का ताल्लुक़ तमन मज़ारी के रस्तमानी और मस्दानी क़बीलों से था। वे सुलेमान पहाड़ की दक्षिणी तलहटी में खेती-बाड़ी के साथ-साथ भेड़ चरवाही भी करते थे। साँझी रूदकोही से अपने खेतों को पानी देते थे। यह इलाका बलूचिस्तान के बुक्ती क़बीलों के निवास स्थान, डेरा बुक्ती से लगा हुआ है, जो शहज़ोर ख़ाँ मज़ारी की एक बलूच बीबी को बाप की तरफ़ से विरासत में मिला था। इसलिए अब वह उस जागीर में शामिल था।
पानी के बँटवारे का झगड़ा बढ़कर धीरे-धीरे रस्तमानियों और मस्दानियों के दरमियान पुरानी क़बाइली दुश्मनी की शक्ल अख्ति़यार करता गया। बदले की कार्रवाई के तौर पर मवेशी उठा लिये जाते, फ़सलों को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश की जाती, रात केे अँधेरे में चोरी-छिपे पानी के बहाव का रुख़ मोड़ दिया जाता, ज़ख़ीरा यानी खड्ड के मुँह से रुकावटें हटा दी जातीं और अपने खेतों को ज़्यादा से ज़्यादा जलमग्न करने की गऱज़ से पानी की चोरी की जाती।
कई बार लड़ाई-झगड़े हुए, मगर पिछले हफ़्ते ज़बरदस्त हथियारबन्द मुठभेड़़ हुए। मुठभेड़ से पहले बाकायदा विरोधी फ़रीक़ को ललकारकर ख़बरदार किया गया था कि वह पूरी तैयारी के साथ मुक़ाबले पर आयें। इसलिए फ़रीकैन ने अपने-अपने क़बीले से जं़ग-आज़माओं और सूरमाओं को इकट्ठा किया, रात भर जागते रहे। सलाह-मशवरा करते रहे। अपनी और दुश्मन की ताक़त और असलहों का अन्दाज़ लगाते रहे और उसकी रौशनी में प्रभावशाली जं़गी कार्रवाई करने के मंसूबे बनाते रहे।
रात आँखों में कटी। सूरज निकला। धूप पहाड़ों की चोटियों से फैलती हुई नीचे उतरने लगी। सुबह हो गयी। वे कमर कसकर बक्कल के स्थान पर पहुँच गये। वे निहायत जोशो-ख़रोश से नारे लगा रहे थे। ढोल बजा रहे थे। पगड़ियाँ उछाल रहे थे। हाथों में दबे हुए हथियारों को सरों से ऊपर उठाकर लहरा रहे थे। तरह-तरह से खून को गरमा रहे थे। अपने हौसले बुलन्द से बुलन्दतर कर रहे थे। बलूचों की युद्ध संहिता में यह मुगदर मारना था।
वे कुछ देर तक आमने-सामने खडे़ रहे। मुगदर खींचकर अपनी ताक़त और दुस्साहस का प्रदर्शन करते रहे; फिर तलवारें सूँतकर और कुल्हाड़ियाँ और दूसरे हथियार सँभालकर वे आगे बढे़ और दाढ़ियाँ दाँतों तले दबाकर भयानक गुस्से के आलम में एक-दूसरे पर टूट पडे़। तलवार तलवार से और कुल्हाडी़ कुल्हाडी़ से टकरायी। गर्द के बादल उठे। फ़िजा़ धुआँ-धुआँ हो गयी। नारे बुलन्द से बुलन्दतर होते गये। शोर बढता गया। हर तरफ़ ख़ून के छींटे उड़ने लगे।
ग़ज़ब का रन पडा़। मगर बहुत ज़्यादा ख़ून-ख़राबे की नौबत न आयी। हुआ यह कि लडा़ई शुरू होते ही एक हिन्दू चीख़ता-चिल्लाता, दुहाई देता एक ओर से प्रकट हुआ और तेजी़ से दौड़ता हुआ क़रीब पहुँच गया। उसका नाम भगवानदास था। अधेड़-उम्र था। सिर और दाढी़ के बाल खिचडी़ थे, मगर जिस्म मज़बूत था। क़द ऊँचा था। पेशे के एतबार से वह दरखान था, यानी बढ़ई होने के साथ-साथ राजगीर का काम भी करता था और पड़ोस की बस्ती कोटला शेख़ में रहता था। उसके इलावा कोटला शेख़ में हिन्दुओं के चन्द और खा़नदान भी आबाद थे जो खेती-बाडी़ करते थे, भेड़ चरवाही करते थे या भगवानदास दरखान की तरह मेहनत-मज़दूरी करते थे।
भगवानदास दरखान भाग-दौड़ करने के बाद बुरी तरह हाँफ रहा था। उसका चेहरा पसीने से सराबोर था। उसकी पगडी़ खुलकर गले में आ गयी थी। सिर के लम्बे-लम्बे बाल बिखरे हुए थे। हक्कल की इत्तिला सूरज निकलने से पहले ही उसे मिल गयी थी। इत्तिला मिलते ही वह तारों की छाँव में घर से निकल खड़ा हुआ। उसने हक्कल के मुकाम पर जल्द से जल्द पहुँचने की कोशिश की और गिरते-पड़ते समय से पहुँचने में कामयाब भी हो गया। उसने निहायत दुस्साहस और बेबाक़ी का प्रदर्शन किया। अपनी जान की बाज़ी लगाकर वह बेधड़क लड़नेवालों की पंक्तियों में घुस गया। मेढ़ करने के लिए चीख़-चीख़कर दुहाई देता रहा और उनके दरमियान चट्टान की तरह तनकर खड़ा हो गया। उसने दोनों हाथ बुलन्द किये। तलवारों और कुल्हाड़ियों के वार हाथों पर रोके। वह ज़ख़्मी हुआ और ज़ख़्मों से निढाल होकर गिर पड़ा।
उसने मार-धाड़ बन्द कराने के लिए यह हथियार आज़माया था, जिसे बलूची में मेढ़ कहा जाता है। भगवानदास दरखान हिन्दू था और चूँकि हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, लिहाज़ा मुसलमान बलूच अपनी श्रेष्ठ क़बाइली परम्परा के मुताबिक उनकी जानो-माल का इस हद तक ख़याल रखते हैं कि उनको ऐसा समझा जाता है कि किसी को म्यार बनाने के बाद उसका खून बहाना या किसी तरह की तकलीफ़ पहुँचाना बलूचों की क़बाइली आचार संहिता की दृष्टि से अत्यन्त घृणित और जवाबी कार्रवाई जैसा माना जाता है। इसलिए भगवानदास दरखान की कोशिश और दुस्साहस सनकियों-सा साबित हुआ। हंगामा करने वाले ठण्डे पड़ गये। उठे हुए हाथ रुक गये। जो जहाँ था, वहीं रुक गया। लड़ाई फ़ौरन बन्द हो गयी। वैसे ही मेढ़ के लिए उस हिन्दू दरखान के अलावा अगर कोई सैयदज़ादा क़ुरान शरीफ़ उठाये साक्षात् फ़रीकै़न के दरमियान आ जाता या क़बीलों की चन्द बूढ़ियाँ सिर खोले, बाल बिखराये, गले में चादर डाले ठीक लड़ाई के दौरान रणभूमि में पहुँच जातीं, तो उनके सम्मान में भी लड़ाई बन्द करने का ऐलान कर दिया जाता।
मेढ़ की दृष्टि से तात्कालिक ढंग पर जं़ग बन्द हो गयी। भगवानदास दरखान की फ़ौरी तौर पर मरहम पट्टी की गयी और उसे कोटला शेख़ पहुँचा दिया गया। रस्तमानी और मस्दानी शूरवीर भी अपने-अपने ज़ख़्म लिए चले गये। मगर उनके चेहरों पर अभी तक भयानक क्रोध छाया हुआ था। आँखें शिकार पर झपटनेवाले बाज़ की तरह चमक रही थीं। ख़ून खौल रहा था। शूरवीरों का जोश सवा नैजे़ पर था। दोनों तरफ़ खींचातानी और ग़मो-गुस्सा का वातावरण था। उस वक़्त सूरते हाल निहायत संगीन हो गयी, जब तीसरे रोज़ सूरज डूबने से कुछ देर पहले मस्दानी क़बीले का एक ज़ख़्मी चल बसा। मृतक के घर में कुहराम मच गया। उसके भाइयों और क़बीले के दूसरे लोगों के सीनों में बदले की आग शिद्दत से भड़क उठी और मस्सत करने यानी ख़ून के बदले ख़ून की तैयारियाँ जा़ोर-शोर से होने लगीं। बदले की ऐसी कार्रवाई को लस्टदबीर कहा जाता है।
रस्तमानियों को जब उस लस्टदबीर का पता चला, तो उधर भी लोहा गरम हुआ। मरने-मारने की तैयारियाँ शुरू कर दी गईं। फ़ौरन डाह का बन्दोबस्त किया गया। इसके लिए यह तरीक़ा अपनाया गया कि एक ऐसे शख़्स को डाहडोक मुकर्रर किया गया, जिसका ताल्लुक़ एक तटस्थ क़बीले से था। डाहडोक क़द्दावर जवान था और मँझा हुआ ढोलकिया था। दिन चढ़े वह गले में ढोल डालकर निकला और ढोल बजाकर हर तरफ़ मुनादी करने लगा। वह पहले तड़ातड़ कई बार ढोल पर तमची से चोट लगाता और फिर बायाँ हाथ झटककर ख़ास अन्दाज़ में इस तरह थाप देता, जिसका स्पष्ट भाव यह था कि लड़ाई का ख़तरा सरों पर मँडरा रहा है। रणभेरी बजने वाली है। वह दिन ढले तक इसी तरह फ़रीकै़न को ख़बरदार करता रहा।
डाह का ऐलान होते ही एक बार फिर दोनांे तरफ़ जं़ग की तैयारियाँ होने लगीं। मगर कुछ ऐसे क़बीले भी थे, जो इस लड़ाई-झगड़े में अभी तटस्थ थे। उनका ताल्लुक़ बलचानी और सरगानी क़बीलों से था। वे ख़ून-ख़राबे के बजाय फ़रीकै़न में सुलह-सफ़ाई कराने की ख़्वाहिश रखते थे। उन्होंने आपसी सलाह-मशवरे से ‘मेढ़ मरका’ यानी लड़ाई-झगड़ा ख़त्म कराने का मंसूबा बनाया। मृतक के क़बीले को अपने आगमन की ख़बर दी और सुलह कराने की ग़रज़ से पहुँच गये। उनके साथ क़बीलों के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित लोग थे। इलाके़ का एक सैयदज़ादा था और जिस क़बीले के हाथों क़त्ल हुआ था उसके प्रतिष्ठित लोग भी थे।
बातचीत की शुरूआत हुई, तो फ़िज़ा में निहायत खिंचाव था। फ़रीकै़न एक-दूसरे के खिलाफ़ संगीन इल्जाम लगा रहे थे। दुश्मनी के साथ-साथ मरहूम के भाइयों का रवैया निहायत बर्बरतापूर्ण था। ऐसा महसूस होता था कि ‘मेढ़ मरका’ का मंसूबा नाकाम हो जायेगा। सुलह-सफ़ाई की कोशिश बेकार जायेगी। सूरते-हाल सँभलने के बजाय बिगड़ने लगी। मगर प्रतिष्ठित लोगों और बुजुर्गों ने ठीक वक़्त पर हस्तक्षेप किया। बीच का रास्ता अपनाया। उत्तेजित और बिफरे हुए नौजवानों का गुस्सा ठण्डा किया। मृतक के सगे-सम्बंधियों को मस्सत करने से रोका। बदले की कार्रवाई के ख़तरनाक और दूरगामी नतीजों से ख़बरदार किया।
धीरे-धीरे तनाव कम होने लगा। चेहरों पर छायी हुई मलिनता और झुँझलाहट का गुबार छँटने लगा। आँखों से निकलती हुई चिनगारियाँ बुझने लगीं। प्रतिष्ठित जनों की ख़्वाहिश थी कि ख़ून के बदले खून के बजाय मरहूम के खून की कीमत और घायलों का तावान, आपसी रज़ामंदी से निश्चित कर दिया जाये। लेकिन मृतक की माँ ज़रीना बीबी खून की क़ीमत और तावान लेने के लिए तैयार न र्हुइं। वह बेवा थी। उसके पाँच बेटे थे। एक के हलाक़ होने के बाद चार रह गये थे। चारों कड़ियल जवान थे। उनके कद ऊँचे और जिस्म मज़बूत थे। वे भी अपनी माँ से सहमत थे। वे बार-बार माँग कर रहे थे कि उनकी प्रतिशोध भावना की आग सिर्फ इसी सूरत में ठण्डी पड़ सकती है कि सरों की पगड़ियाँ गरदनों में डालकर और मुल्जिमों की तरह नज़रें झुकाकर बाकायदा सबके सामने माफ़ी माँगी जाये। उनके कब़ीले के प्रतिष्ठित लोग भी यही चाहते थे। मगर विरोधी फरीक़ को यह माँग किसी तरह मंजूर न थी। वह उनके कब़ीले की आन का खुला अपमान था।
देर तक बहसा-बहसी होती रही। कोई नतीजा न निकला। दोनों फरीक अपनी अपनी जगह पर अड़े हुए थे। आखिरकार यह तय हुआ कि चन्द रोज़ बाद फिर सिर जोड़कर बैठा जाये और सुलह कराने की नये सिरे से कोशिश की जाये। उस वक़्त तक लड़ाई-झगड़ा न होगा। मेढ़ यानी जंगबन्दी का पूरी तरह लिहाज़ रखा जाये। किसी तरह की उत्तेजना का प्रदर्शन नहीं किया जाये।
तटस्थ क़बीलों के प्रतिष्ठित लोगों और बुजुर्गों ने, जो मारधाड़ के बजाय सुलह और मेल-मिलाप के ख़्वाहिशमन्द थे, अपनी कोशिश बराबर जारी रखी। फ़रीकै़न से लगातार राब्ता क़ायम रखा और ऐसा तरीक़ा अपनाना चाहा, जो दोनों के लिए क़बूल करने लायक़ हो। आखि़र वे इसमें कामयाब भी हो गये। बलूचों के क़बीलाई कानून के मुताबिक़ यह बिंज का तरीक़ा था। उसकी नौइयत यह थी, कि सज़ा के तौर पर मृतक के एक भाई से विरोधी क़बीले की किसी लड़की का रिश्ता तय कर दिया जाये, जो मेढ़ मरका के हिसाब से बिंज कहलाता था।
बिंज का दस्तूर सिर्फ़ बलूचों में ही नहीं, मुल्क़ के कुछ दूसरे इलाक़ों के क़बीलों और बिरादरियों में भी प्रचलित है और उसे सवार कहा जाता है।
बिंज होने वाली लड़की, गुलज़री के बाप का नाम नूर बख़्श रस्तमानी था। वह खेती-बाड़ी के इलावा खजूर की फ़सल का ठेका लेने वाला ज़मींदार भी था। नूरबख़्श रस्तमानी अपने क़बीले का खुशहाल और अहम सदस्य समझा जाता था। पानी के बँटवारे के झगड़े का वह इस हैसियत से साफ़ तौर पर अहम किरदार था कि उसके खेतों का रकबा ज़्यादा बड़ा था और उसके खेत झगड़ेवाली रूदकोही से सटे हुए भी थे। हथियारबन्द लड़ाई में भी वह आगे-आगे था और बढ़ चढ़कर हमले कर रहा था। मृतक के सिर पर जो घातक घाव थे, चश्मदीद गवाहों के मुताबिक वह भी नूरबख्श़ रस्तमानी की कुल्हाड़ी के वार से हुआ था।
नूरबख़्श रस्तमानी को प्रतिष्ठित लोगों और बुजुर्गों के दबाव के सामने खुलकर इन्कार करने की जुर्रत न हुई, मगर वह अपनी बेटी को बिंज बनाने के लिए किसी तरह तैयार न था। वह शदीद परेशानी में मुब्तिला था। उसकी बड़ी बहन शीरीं की दुखभरी ज़िन्दगी उसके सामने थी। क़त्ल की एक वारदात के बाद क़बीले के सामूहिक फै़सले के मुताबिक शीरीं को भी बिंज बनने पर मजबूर कर दिया गया था। बिंज तय होने के बाद शीरीं का, मृतक के बड़े भाई के साथ निकाह पढ़ाया गया। वह बूढ़ा था और दमे का पुराना मरीज़ था। सिर और दाढ़ी-मूँछों के बाल सफ़ेद हो चुके थे। वह न सिर्फ़ शादीशुदा था, बल्कि उसकी दो बीवियाँ भी मौजूद थीं। शीरीं रूख़सत होकर अपने शौहर के घर पहुँची तो उसने सिर्फ, सुहागरात उसके साथ बितायी। वह भी इस तरह कि अपनी प्रतिशोध भावना की शान्ति के लिए। वह उसे मादरज़ाद नंगा करके रात भर तरह-तरह से यातनाएँ पहुँचाता रहा। ज़लील और बेइज़्ज़त करता रहा। सुबह होते ही उसे मैके भिजवा दिया गया। दुबारा न कभी बुलाया, न उससे मिला और न ही तलाक दी। शादी से पहले वह जवानी की उमंगों से भरी एक खूबसूरत और बाँकी किशोरी थी। एक ही रात में वह जलकर राख हो गयी थी। उसका रंग-रूप धुँधला गया था। आँखों के कमल बुझ गये थे। चेहरे पर वीरानी छा गयी थी।
उस सदमें को वह कुछ अरसे तक तो बरदाश्त करती रही, फिर उसका मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया। वह हर वक़्त ख़ामोश बैठी शून्य में घूरती रहती। न किसी से बोलती, न बात करती। पूछने पर भी कुछ न कहती। माँ को गुमान हुआ कि किसी तरह के डर से इसका दिल कमज़ोर हो गया है। इसलिए तैर रैच कराया गया। उस तरीक़े के इलाज के मुताबिक़ शीरीं को बिस्तर पर चित लिटाकर पीतल का कटोरा पानी से भरकर रख दिया जाता था। उसमें शीशा पिघलाकर डाल दिया जाता। यह क्रिया कई बार की गयी, लेकिन कोई फ़ायदा न हुआ। शीरीं का दवा-इलाज बराबर होता रहा। दवा के साथ-साथ टोने और टोटके भी आजमाये जाते। इसलिए शामरज़ मँगवाया गया। यह हरे रंग का गोल पत्थर था, जिस पर विभिन्न रंगों के नन्हे-नन्हे बेलबूटे थे। उसमें सूराख़ किया गया और एक डोरी में पिरोकर शीरीं के गले में डाल दिया गया, ताकि कोई भूत-प्रेत और झपेट हो, तो उसका असर ख़त्म हो जाये। इसी मक़सद के लिए शीरीं के सिरहाने आसान परी रखा गया। यह भी हल्का कोयलानुमा बदबूदार पत्थर था। ख़ातून बीबी की मन्नत मानी गयी। पाक-साफ़ होकर तरह-तरह के खाने पकाये गये और ऐसी महफूज़ जगह पर पकाये गये, जहाँ कोई मर्द न जा सके। खाना भी ग़रीब-गुरबा और मुहताजों को इस तरह खै़रात में दिया गया, कि सामने बिठाकर खिलाया गया। उसमें किसी बच्चे, मर्द या गर्भवती औरत को बिल्कुल नहीं शामिल किया गया। ऐसी मन्नत को बीबी दस्ती कहा जाता है।
मगर न कोई मन्नत कारगर साबित हुई, न कोई दवा-दारू काम आया और न टोना-टोटका। शीरीं का पागलपन बढ़ता गया। न खाने का होश रहा, न पहनने का। कभी हँसती, कभी फूट-फूटकर रोती। कभी झुँझलाकर जिस्म के तमाम कपड़े झर्र-झर्र फाड़ देती और बिल्कुल नंगी हो जाती। पालगन का शदीद दौरा पड़ता, तो आँखें लाल हो जातीं। चेहरे पर डर तैरने लगता। उसी डर की हालत में घर से बाहर निकल जाती। जिधर मुँह उठता उधर चली जाती। बाप उस वक्त तक जिन्दा था। वह बार-बार उसे पकड़कर वापस लाता। जब वह उसके पागलपन से बहुत आजिज़ आ गया तो घर में कै़द कर दिया। पैरों में लोहे की जं़जीर डाल दी। हर वक्त कड़ी निगरानी भी की जाती, ताकि वह घर से बाहर न जा सके।
एक रोज वह किसी तरह घर से निकल गयी। बाप को ख़बर मिली। वह घोडे़े पर सवार होकर उसकी तलाश में निकला। आखि़र वह उसे बस्ती से दूर एक वीरान रास्ते पर मिल गयी। आलम यह था कि लिबास तार-तार था और एक तरह से बिखरा हुआ पड़ा था। वह मादरज़ाद नंगी थी और रास्ते से हटकर जंगली झाड़ियों की ओट में पड़ी थी उसकी बुरी हालत देखकर पता चलता था कि किसी ने उसे अपनी हवस का शिकार बनाया है। यह उसकी बेटी शीरीं न थी, उसकी इज़्ज़त और मर्यादा तार-तार हो चुकी थी , वह शर्म से नज़रें झुकाये उसके क़रीब पहुँचा और अपनी पगड़ी सिर से उतारकर उसके जवान और नंगे शरीर पर डाल दी।
कुछ देर वह उसके पहलू में निढाल और खिन्नचित खड़ा रहा, फिर उसके सिरहाने बैठ गया। ममता ने जोश मारा, तो दिल भर आया। आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। वह हौले-हौले बेटी का सिर थपकने लगा। बेटी ने आँखें खोलकर बाप को देखा और कराहती हुई उठकर बैठ गयी। उसने बाप से कोई बात न की। उसकी वीरान आँखों में न शर्म थी, न पश्चाताप। चेहरा बिलकुल सपाट था। एकाएक उसने बाप को गुस्से से देखा और जिस्म पर लिपटी हुई पगड़ी खींचकर एक तरफ़ फेंक दी। बाप ने फौरन पगड़ी उठा ली और उसका बदन ढाँप दिया लेकिन वह बाज़ न आयी पगड़ी हटाकर फिर अलग कर दी। बाप ने दोबारा उसका बदन ढाँपा। कई बार ऐसा हुआ।
बाप के लिए उसका पागलपन असद्वय हो गया। चेहरे पर झुँझलाहट के साये फैल गये। वह भी गुस्से से पागल हो गया। उसने शीरीं के गाल पर तड़ाक से थप्पड़ मारा। दूसरा मारा, तीसरा मारा। उसका गुस्सा कम होने के बजाय बढ़ता गया। वह लगातार लात-घूँसें चलाता रहा। यहाँ तक कि वह हाँफने लगा।
शीरीं ने आपत्ति नहीं की। वह न रोई, न चिल्लायी, न उसने फ़रियाद की, न दुहाई दी। चुपचाप मार खाती रही। उसकी एक आँख सूज गयी थी। ज़ख़्मी होंठ से ख़ून रिस रहा था। वह जम़ीन पर ख़ामोश और बेहाल पड़ी थी। उसके सिर के बाल धूल में सने हुए थे। चेहरा भी धूल-सना होकर मटियाला हो गया था। मगर वह ज्यादा देर तक उस हालत में न रह सकी। उसने करवट बदली और उठकर बैठ गयी। एक बार फिर उस पर पागलपन का दौरा पड़ा उसने जिस्म से लिपटी हुई पगड़ी का एक कोना पकड़कर खींचा और उसे तार-तार कर एक तरफ घृणा के साथ फेंक दिया।
बाप ने गुस्से-भरी नज़रों से उसे देखा। पगड़ी उठायी और उसी से शीरीं के जिस्म को लपेटकर गठरी बनायी। उठाकर घोड़े पर डाला। खुद भी सवार हुआ और घोडा़ सरपट दौडा़ने लगा। मगर वह अपने घर न गया। सुनसान और टेढे़-मेढे़ रास्तों से गुज़रता हुआ एक वीरान लोप में पहुँचा। यह ऐसा, मुका़म था, जिसके तीन तरफ़ काले-काले पत्थरों की बंजर पहाड़ियाँ थीं। उनमें बसेरा करनेवाली चिड़ियाँ भी काली-काली थीं। घोडा़ लोप में दाखि़ल हुआ और उसकी टापें उभरीं, तो चिड़ियों का एक झुण्ड भर्रा मारकर उडा़ और स्याह बादल की तरह फ़िजा में बिखर गया। बाप ने उनकी तरफ़ कोई ध्यान न दिया। घोडा़ एक पहाडी़ के दामन में रोक, नीचे उतरा। बेटी को घोडे़ की पीठ से नीचे उतारकर पथरीली ज़मीन पर एक तरफ़ डाला। वह बिल्कुल गुमसुम थी। खा़ली नज़रों से बाप के चेहरे को तक रही थी, मगर उसने मुड़कर बेटी की तरफ़ न देखा। कमर से बँधा हुआ खंजर निकाला। बेटी की तरफ़ बढा़ उसके धूल-सने बालों को एक हाथ से पकड़कर सिर झुकाया। घुटनों के बल फ़र्श पर बैठा और खंजर से बेटी का गला काट डाला। खून का फव्वारा उबला, जिसके छींटों से बाप का चेहरा भी ख़ून से तर हो गया।
खंजर से ज़िबह करने के बाद वह चन्द लम्हे तक बेटी के तड़पते हुए जिस्म को देखता रहा। उसकी घनी दाढ़ी और मूँछों के सख़्त बालों पर ख़ून के लाल क़तरे बिखरे हुए थे। आँखों के चिराग़ जल रहे थे, बुझ रहे थे। वह रुक-रुककर गहरी साँस भरता रहा। फिर उसने खून-सना खंजर मज़बूती से पकड़ा और एक चट्टान से अड़ाकर पूरी ताकत़ से अपने सीने में उतार दिया। वह निढाल होकर गिरा और धूल में लिथड़ा हुआ पथरीली ज़मीन पर फड़कने लगा। नूरबख़्श रस्तमानी को इस भयानक घटना की सूचना एक चरवाहे से मिली। वह बदहवासी के आलम में घोड़ा दौड़ाता हुआ लोप में पहुँचा। सूरज लोप की पहाड़ियों की चोटियों पर जगमगा रहा था। उसकी रंगत सुर्ख़ पड़ती जा रही थी, जिससे स्याह पहाड़ियाँ भी हल्की लालिमा लिए हुए दीख रही थीं। ऊपर आसमान पर चीलों और गिद्वों का एक झुण्ड मँडरा रहा था। एक पहाड़ी की तलहटी में उसके बाप और बहन शीरीं के जिस्म क़रीब-क़रीब पडे़ थे। लाल ख़ून जमकर स्याह पड़ गया था। दोनों मर चुके थे।
बाप का हाथ अभी तक खंजर के मूठ पर जमा हुआ था। गरदन एक तरफ़ ढुलक गयी थी। बहन की ज्योतिहीन आँखें खुली थीं। वे पल-पल सुर्ख़ होते हुए आसमानों को तक रही थीं। नूरबख़्श रस्तमानी की उम्र उस वक़्त सोलह बरस के लगभग थी। हालाँकि उसके सिर और दाढ़ी के बालों में अब कहीं-कहीं सफ़ेदी झलकने लगी थी, मगर उस दिल दहला देने वाले दृश्य को वह अब तक भुला न सका था। नूरबख़्श रस्तमानी अपनी लाडली बेटी गुलज़रीं को बिंज बनाकर अपनी बड़ी बहन शीरीं की तरह, दिल हिला देने वाले उस रूप में किसी भी तरह नहीं देखना चाहता था, जिसे याद करके वह हमेशा तड़प उठता था। वह उदास और बहुत परेशान था। गुलज़रीं का रिश्ता अपने हमरुतबा एक ख़ुशहाल घराने के नौजवान से तय कर चुका था, जो लाहौर के एक काॅलेज में अपनी तालीम पूरी कर रहा था। रिश्ता तय करने के बाद वह दलोर के तौर पर पच्चीस हज़ार रूपये भी ले चुका था। यह वह रक़म थी, जो बलूचों के समाजी दस्तूर के मुताबिक़ लड़की के माँ-बाप उसके होने वाले शौहर से वसूल करते हैं। बहावलपुर और उसके आस-पास के इलाका़ें में भी यह रस्म आम है। अलबता दलोर की रक़म को सम्भा कहा जाता है।
गुलज़रीं अगर मेढ़ मरका की वजह से बिंज बन जाती है, तो नूरबख़्श को दोहरा नुक़सान होता। इस तरह उसकी बेटी न सिर्फ़ मृतक के वारिसों की प्रतिशोध-भावना की भेंट चढ़ जाती, बल्कि उसे दलोर के पच्चीस हजार रूपये भी वापस करने पड़ते।
इसलिए उसकी ख़्वाहिश थी कि गुलज़रीं ब्याहकर अपने होने वाले शौहर के पास चली जाये और उसके साथ हँसी-खुशी जिन्दगी बसर करे और दलोर की पच्चीस हजार की रक़म ख़ून की क़ीमत के तौर पर मृतक के वारिसों को दे दी जाये। लेकिन पंचायत के मेढ़ मरका का फै़सला उसकी ख़्वाहिश के उलट होने वाला था।
पंचायत बैठने में अभी दो रोज़ बाक़ी थे। नूरबख़्श ने आख़िरी कोशिश की। वह रातों-रात छुपता-छुपाता शाह मीर पहुँचा। चाकर ख़ाँ सरगानी से खुफिया तौर पर मिला। उसे सूरते-हाल से आगाह किया। अपना दुख-दर्द बताया, गिड़गिड़ाया। पाँच सौ रूपये निकालकर सरदार के लिए नज़राना पेश किया और यह ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि पंचायत के बजाय सरदार अपनी कचहरी में मुक़दमें का फैसला करें और उसकी बेटी गुलज़रीं को बिंज होने से बचा लें।
चाकर ख़ाँ सरगानी से मिलने के बाद नूरबख़्श फ़ौरन वापस चला गया।
सरगानी एकान्त में सरदार शहजोर ख़ाँ मज़ारी से मिला। नूरबख़्श रस्तमानी ने जो पाँच सौ रूपये नज़राने के दिये थे, पेश किये। नूरबख़्श की परेशानी बयान की और दबी जुबान में यह भी बताया कि वह क्या चाहता है। चाकर ख़ाँ सरगानी किसी के लिए जान की बाज़ी लगा देने वाला और वफ़ादार होने के साथ-साथ सरदार मज़ारी का राज़दार और सलाहकार भी था। इसलिए सरदार मज़ारी ने पूरी तफ़सील सुनने के बाद सूरते-हाल का जायज़ा लिया। सरगानी से सलाह मशवरा किया और पंचायत में मेढ़ मरका का फै़सला होने के पहले ही मुक़दमा अपने हाथ में ले लिया।
मुक़दमें की सुनवाई शुरू हुए कई घण्टे गुज़र चुके थे। क्वार के महीने का तपता हुआ सूरज चढ़कर आसमान के बीचो-बीच पहुँच गया था। गर्मी बढ़ गयी थी। कचहरी में मस्दानियों के दो इज़्ज़तदार लोगों के अलावा मृतक की बेवा माँ ज़रीना बीबी और उसके बेटे भी मौजूद थे। रस्तमानियों के इज़्ज़तदार लोगों के साथ-साथ नूरबख़्श भी अदालत में हाज़िर था।
कचहरी पर सन्नाटा छाया था। सब ख़ामोश थे। सरदार शहज़ोर ख़ाँ मज़ारी भी चुप था। पिछली पेशियों में फ़रीकै़न बयान दे चुके थे। गवाहियाँ भी हो चुकी थीं। सबूत भी मुहैया किये जा चुके थे। फ़रीकै़न और उनके गवाहों के बयानों पर जिरह भी की जा चुकी थी। अब वह मरहला आ गया था कि सरदार मज़ारी को मुक़दमे का फैसला सुनाना था, मगर वह फैसला सुनाते हुए हिचकिचा रहा था। मुक़दमे की कार्रवाई की शुरुआत ही से अन्दाज़ा हो गया था कि उसे सोच-समझकर फै़सला सुनाना होगा। मुक़दमा बहुत पेचीदा और संगीन था। फै़सले की तीन ही साफ़ सूरतें थीं, और वे ये थीं कि मृतक के वारिसों को तैयार किया जाये कि ख़ून की क़ीमत के तौर पर नक़द रक़म वसूल कर लें और अगर वे इस पर राज़ी न हों तो रस्तमानियों पर दबाव डाला जाये कि मस्दानियों की माँग के मुताबिक माफ़ी माँग लें। इसके अलावा नूरबख़्श रस्तमानी की बेटी गुलज़रीं को बिंज क़रार देने का तरीक़ा था, जो तटस्थ क़बीलों के प्रतिष्ठित लोगों और बुजुर्गों ने तजवीज़ किया था। लेकिन नूरबख्श से नज़राने की सूरत में पाँच सौ रूपये लेने के बाद वह ऐसा नहीं करना चाहता था।
मगर वह जो भी फै़सला करता, किसी फ़रीक में इतनी जुर्रत न थी कि उसे क़बूल करने से इन्कार करता। वह सरदार था और उसका फै़सला आखि़री फै़सला था, लेकिन फै़सला ज़बरदस्ती थोपने की सूरत में यह अंदेशा था कि मेढ़ मरका पर पूरी तरह अमल न होता और फ़रीकै़न की लड़ाई और दुश्मनी ख़त्म होने के बजाय और बढ़ जाती। किसी बहाने छेड़छाड़ होती और एक बार फिर सशस्त्र संघर्ष होता। ख़ून-ख़राबा होता। कुछ मारे जाते, कुछ ज़ख़्मी होते। यह सूरते-हाल सरदार मज़ारी के लिए शर्म और बदनामी का बाइस होती। उसके इन्साफ़ पर धब्बा लगता। लिहाजा उसकी कोशिश यह थी कि ऐसा फैसला करे, जिसे दोनों फ़रीक़ राज़ी-खुशी मंज़ूर कर लें।
सरदार मज़ारी इस उधेड़बुन में मुब्तिला था और हुक्के की नै होंठांे में दबाये आहिस्ता-आहिस्ता कश लगा रहा था। उसी वक़्त भगवानदास दरखान कचहरी में दाखि़ल हुआ, मगर दरवाजे़ ही पर ठिठककर रह गया। सरदार ने उसे देखा, तो पहली ही नज़र में पहचान गया।
पिछले जाड़ों का जिक्र है। सरदार मज़ारी ने बड़ी बेटी की शादी से पहले अपनी हवेली के सदर दरवाजे़ का नवीनीकरण कराया, तो फाटक के बदरंग और सड़े गले किवाड़ बदलकर नये बनवाये थे। इस काम के लिए चाकर ख़ाँ सरगानी ने भगवानदास दरखान को लगाया था, जो अपनी हुनरमन्दी और महारत के लिए मशहूर था। उसकी रिहाइश का बन्दोबस्त भी हवेली के वसाख यानी मेहमानख़ाने के उस हिस्से में कर दिया गया था, जहाँ नौकर-चाकर और दूसरे खि़दमतगार कोठरियों में रहते थे।
भगवानदास बहुत मेहनती और कार्यकुशल था। हमेशा अपने काम से काम रखता। सूरज निकलते ही वह औज़ार सँभालकर अपनी कोठरी से निकलता और सूरज डूबने तक काम में जुटा रहता। अलबत्ता मंगल को वह छुट्टी करता। सोमवार की शाम को वह कोटला शेख चला जाता और बुधवार की सुबह वापस काम पर चला आता। उसके इन रोजमर्रा के कामों में कभी फर्क न आया। सरदार मज़ारी चाहता था कि हवेली के सदर दरवाज़े की तामीर का काम जल्द से जल्द खत्म हो जाये। इसलिए एक बार उसने भगवानदास दरखान को रोकना चाहा, तो वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। आजिज़ी से बोला ‘‘साईं तू सरदार है, तू मुजस्सिम शेर-है। तेरा हुक्म सिर आँखों पे। पर मैं मंगलवार को इधर नहीं रह सकता। मंगलवार को मैं बस्ती में सिर्फ अपना मन्दिर बनाने का काम करता हूँ। कोई दूसरा काम नहीं करता।‘‘
भगवानदास दरखान ने ठीक ही कहा था। उन दिनों उस पर एक ही धुन सवार थी, और वह थी कोटला शेख में मन्दिर की तामीर और यह काम भी वह तने-तन्हा कर रहा था। कोई बाल बच्चा भी नहीं था, न बीवी थी। कुछ बरस पहले उसकी बीबी जिन्दा थी वह उसकी दोस्त और हमदर्द थी। उसी के रोकने पर भगवानदास दरखान ने शरणार्थी बनकर बम्बई जाने का इरादा छोड़ दिया था जहाँ उसका छोटा भाई और कई रिश्तेदार पहले ही पहुँच चुके थे। बीवी के मरने के बाद ज़िन्दगी में जो खालीपन पैदा हो गया था, उसे भरने के लिए भगवानदास दरखान ने मन्दिर बनाने की ठानी और इस काम के लिए मंगल का दिन ख़ासतौर पर तय कर दिया। उसकी बीवी का इन्तिकाल मंगल ही को हुआ था। वह हफ्ते में छह रोज़ मेहनत करता और जो कुछ बचता उसे मन्दिर की तामीर पर लगा देता।
गरज कि सरदार शहज़ोर खाँ मज़ारी ने उसे दोबारा रोकने की कोशिश नहीं की। भगवानदास पूरी लगन और तल्लीनता से सरदार-मज़ारी की हवेली में काम करता रहा। फाटक के ऊँचे-ऊँचे किवाड़ों की जोड़ी तैयार करने के साथ-साथ हवेली के सामने के हिस्से की तामीर का काम भी उसी ने अंजाम दिया। किवाड़ों की जोड़ी पर इस नफ़ासत और बारीक़ी से फूल बूटे और ऐसी सज्जल मेहराबें बनायी कि हवेली की शान दोगुनी हो गयी। जो देखता वाह-वाह करता। सरदार मज़ारी उसके काम से इस क़दर खुश हुआ कि रुख़सत करते वक़्त पचास रूपये बतौर इनाम दिये।
भगवानदास दरखान पहली बार सरदार मज़ारी की कचहरी में हाज़िर हुआ था। हालाँकि वह मुकद्में का एक अहम गवाह था। फ़रीकैन ने अपने बयानों में उसका ज़िक्र भी किया था, मगर किसी ने उसे बतौर गवाह पेश नही किया था।
सरदार मज़ारी टकटकी बाँधे उसे चन्द लम्हे तक तकता रहा, फिर हाथ के इशारे से क़रीब बुलाया। वह आगे बढ़ा और सँभल-सँभल कर कदम उठाता हुआ सरदार के सामने पहुँच गया। दस्तूर के अनुसार दुआ-भरे जुमलों से ताबेदारी ज़ाहिर की। ‘सई सरदार सदा जीवे। बाल-बच्चे सबकी खै़र हो।‘ वह सरदार के क़दमों की तरफ झुका मगर पैरनपून के लिए पैरों को हाथ न लगाया। झुका हुआ सिर उठाया और सीधा खड़ा हो गया। सरदार शहज़ोर खाँ मज़ारी को उसका रवैया नागवार लगा, मगर अनदेखी से काम लिया। उसने ग़ौर किया, भगवानदास दरखान की दाढ़ी और मूँछों के बाल कुछ और सफेद हो गये थे। वह अब कमज़ोर और निढ़ाल नज़र आ रहा था। सिर पर ढीली-ढाली पगड़ी थी और गर्मी के बावजूद बदन पर मटमैली चादर लिपटी हुई थी। उसके माथे पर पसीने की बूँदें थीं और आँखें बुझी-बुझी थीं।
सरदार मज़ारी को उसी वक़्त याद आया कि वह मंगल का दिन था और उस रोज़ भगवानदास सिर्फ अपना मन्दिर बनाने का काम करता था। उसने हैरत से दरयाफ्त किया, ‘‘दरखान! आज मंगल है। आज तू कैसे आ गया? तूने आज मन्दिर बनाने का काम नही करना?‘‘
‘‘न सई, मैं अब मन्दिर नही बनाता।‘‘
‘‘क्यों?‘‘सरदार को और ज़्यादा हैरत हुई।
भगवानदास दरखान ने कोई जवाब नहीं दिया। ख़ामोशी से बायीं तरफ सिर झुकाया। गरदन के पास अड़सा हुआ चादर का कोना दाँतों से पकड़कर एक झटके से अलहिदा कर दिया। चादर ढुलककर नीचे गिर गयी। भगवानदास ने अपने दोनों हाथ फैलाकर सामने कर दिये, जो कुहनियों तक कटे हुए थे।
‘‘सई जो दरखान मन्दिर बनाता था, उसका मरन हो गया। जब दरखान ही न रहा तो मन्दिर कैसे बन सकता है?‘‘ उसने सर्द आह खींची, ‘‘मेरा मन्दिर बनाने का सफना (सपना) सफना ही रह गया। वह कभी पूरा न होगा।‘‘
कचहरी पर सन्नाटा छा गया। हर शख़्स खामोश था और हैरान और परेशान नज़रो ंसे भगवानदास की कटी हुई बाँहों को देख रहा था जिन्हें वह परकटे कबूतर की तरह हौले-हौले हिला रहा था। चन्द लम्हे गहरी खामोशी छायी रही, फिर सरदार मज़ारी की आवाज़ उभरी, ‘‘भगवानदास , तेरे ये हाथ मस्दानियों और रस्तमानियों की लड़ाई में मेढ़ कराते हुए कट गये थे?‘‘
‘‘ना सई, कटे नही, जख्मी थे।‘‘ भगवानदास ने सफाई दी, ‘‘जब बस्ती में ज़ख़्म ठीक नहीं हुए, पकने और सड़ने लगे थे, तो मैं शहर जाकर सरकारी अस्पताल में भर्ती हो गया। वहाँ डॉक्टरों ने दोनों हाथ काट दिये। मैं अब तक अस्पताल ही में था। पिछले इतवार को कोटला शेख़ वापस पहुँचा था।‘‘
‘‘यह तो बहुत बुरा हुआ। ऐसा नही होना चाहिए था।‘‘ सरदार ने अफ़सोस ज़ाहिर किया, ‘‘तेरे साथ बहुत ज़ुल्म हुआ।‘‘
‘‘न सई, कोई जुलुम-शुलुम नहीं हुआ। जब लड़ाई-भिड़ाई होती है, तो ऐसा होता है। कोई मरता है, कोई ज़ख़्मी होता है।‘‘ भगवानदास ने मुड़कर मृतक की माँ की तरफ देखा, ‘‘मुझे तो यह दुख है कि मेढ़ कराने के लिए कुछ पहले पहुँच जाता, तो शायद जरीना बीबी का पुत्तर बच जाता। कई ज़ख़्मी होने से बच जाते।‘‘ फिर उसने थोड़े से अन्तराल के बाद कहा, ‘‘सई मैं तो यह सोंचकर कचहरी में आया था कि मेंढ़ मरका....‘‘
‘‘ठीक है, ठीक है।‘‘ सरदार ने उसे आगे कुछ कहने न दिया, ‘‘भगवानदास तू नेक बन्दा है। तूने बहुत चंगा काम किया।‘‘ सरदार मज़ारी का चेहरा अचानक लाल हो गया। आँखों से जलाल टपकने लगा। उसने प्रलयंकारी दृष्टि से सामने खड़े मस्दानियों और रस्तामानियों को देखा। हाथ उठाकर भगवानदास दरखान की तरफ़ इशारा किया और तीखे लहजे़ में मस्दानियों को सम्बोधित कियाः-
‘‘इसे देख रहे हो, यह तुम्हारा म्यार है। इसकी जानो-माल की हिफ़ाज़त करना तुम्हारा फ़र्ज़ है। पर तुम दावा लेकर आ गये। तुमने यह नहीं सोचा कि तुम्हारे राजगीर पर क्या बीती। यही तुम्हारी म्यारदारी है? बोलो, जवाब दो।’’
‘‘सई सरदार, तू बिलकुल ठीक कह रहा है।’’
मस्दानियों के एक प्रतिष्ठित आदमी ने अपने क़बीले का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी मजबूरी ज़ाहिर की, ‘‘सई हमसे भूल हो गयी, माफ़ी दे दे।’’
सरदार ने रस्तमानियों की तरफ़ देखा, ‘‘तुमने अपने म्यार के लिए क्या किया? तुम्हारी म्यारदारी को क्या हो गया? तुम अपने जुर्म की सफ़ाई पेश करने आ गये। अपने गवाह भी लाये। सबूत भी दिये।’’ उसने एक बार फिर भगवानदास दरखान की तरफ़ हाथ उठाकर इशारा किया, ‘‘जुर्म की सफ़ाई तुम किस तरह पेश करोगे?’’
‘‘इस तरह काम नहीं चलेगा।’’ सरदार मज़ारी ने नजरें़ घुमा-फिराकर मस्दानियों और रस्तमानियों की तरफ़ देखा, ‘‘म्यार पर जो जुल्म हुआ है, माफी माँगने से उस संगीन जुर्म से मुक्ति नहीं हो सकती।’’ उसने गुस्से से गरदन को झटका, ‘‘हरगिज नहीं हो सकती।’’
कमरे में गहरा सन्नाटा छा गया। सब ख़ामोश थे। सहमे हुए थे। सरदार ने हुक्के की नै संभाली। होंठों में दबायी और हौले-हौले कश लगाने लगा। उसका सेवक चाकर खाँ सरगानी हाथ बाँधे, नज़रें, झुकाये अदब के साथ खड़ा था। मालिशिया फु़र्ती के साथ सरदार की कमर और बाँहों के पुट्ठे दबा रहा था। उसके हाथ तेज़ी से चल रहे थे।
सरदार मज़ारी ने हुक्के की नै एक तरफ़ की। खँखारकर गला साफ़ किया और भारी भरकम लहजे़ में फ़रीकै़न को सम्बोधित किया, ‘‘भगवानदास दरखान के कचहरी में हाज़िर होने के बाद, क्योंकि मुक़दमें की नौइयत बदल गयी है, लिहाजा इसके बारे में नये सिरे से सोच-विचार करना होगा। मुकदमंे की कार्रवाई कल भी जारी रहेगी। कचहरी अब बर्खास्त की जाती है।’’
सरगानी के इशारे पर एक मुलाजिम़ फ़ौरन आगे बढ़ा। सरदार मज़ारी के करीब पहुँचा और उसकी कमर और घुटनों से लिपटी हुई ख़ीरी की गिरह खोलने लगा।
दूसरे रोज़, पहर दिन चढ़े मुदकमें की कार्रवाई फिर शुरू हुई। मगर ज़्यादा देर जारी न रही। न किसी फ़रीक़ का बयान लिया गया, न कोई पेशी हुई, न जिरह। सरदार मज़ारी ने सिर्फ मुक़दमें का फै़सला सुनाया, जो बहुत ही छोटा था।
‘‘चश्मदीद गवाहों की गवाहियों से रस्तमानियों के खि़लाफ़ जुर्म साबित हो गया हैे। लिहाज़ा उनको हुक्म दिया जाता है कि वे पच्चीस हज़ार रूपये, बतौर खून की कीमत मस्दानियों को अदा करें। खूनकी क़ीमत नूरबख्श रस्तमानी मुहैया करेगा। मगर ये पच्चीस हजार रूपये मृतक की माँ, ज़रीना बीबी को नहीं, बल्कि बतौर तावान भगवानदास दरखान को दिये जाएँ। नूरबख्श रस्तमानी को एक हफ्ते की मुहलत दी जाती है। अगर इस दौरान वह रूपया मुहैया न कर सके, तो उसे सुक्के खोह में डाल दिया जाये। उसे तब तक न रिहा किया जाये, जब तक वह भगवानदास दरखान को पूरा तावान अदा न कर दे।’’
सरदार शहज़ोर खाँ मज़ारी के इस फै़सले के खिलाफ़ न किसी फ़रीक़ ने ऐतराज किया, न विरोध। उनके चेहरों पर न किसी क़िस्म की झुँझलाहट थी, न मलिनता। उन्होंने ख़ामोशी से फैसला सुना और कचहरी से बाहर चले गये।
-शौकत सिद्दीक़ी
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित
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