स्लमडॉग तमाचा! स्माईल इंडिया स्माईल

बरसों का सुखा ख़त्म ! मुस्कुराइए जनाब अब आप भी सीना तान कर कह सकते हैं की हम भी ओस्कर जीत चुके हैं। मगर किस कीमत पर इसपर भी गौर जरुर फर्मैएयेगा! सीने पर तगमा जरुर जड़ दिया गया है लेकिन गाल पर जो तमाचा पड़ा है उसकी भी गूंज जरुर सुन लीजिये। मै और मेरे कुछ दोस्त ये दावा कर रहे हैं की अगर विदेशी डिरेक्टर नही होता और फ़िल्म का नाम स्लुम्बोय मिलानियोर होता तो ये फ़िल्म कभी ऑस्कर नही जीत पाती। डॉग शब्द ने ही इसे ऑस्कर दिलाया है क्यूंकि विदेशी हमें फिर से हमारी हकीकत बताना चाह रहे थे और उन्होंने बता दिया। क्या रहमान साहेब ने इससे बेहतर संगीत अभी तक नही दिया था , या गुलज़ार साहब की नज्में अभी तक इस काबिल नही थी की वे ऑस्कर झटक पाती? खुशी हमें भी है की कम से कम दुनिया ने ये माना की हमारी संगीत विरासत औरों से कहीं बेहतर है। लेकिन जिस जमीं पर ये माना गया वो ग़लत है। मिक्स रेअक्शन आ रहे हैं और हमें इस बात पर भी गर्व होना चाहिए की इस्माईल पिंकी को भी ऑस्कर के खिताब से नवाजा गया है। एक संगीत कर ये कह रहे हैं की हमें अमेरिका की गलियों में घूमते हुए शर्म महसूस हो रही है क्यूंकि अमेरिकन हमें स्लमडॉग्स कहकर पुकार रहे हैं। वाकई यह पीडादायक है लेकिन मुझे इतनी पीडा नही हो रही है क्यूंकि भैय्या हम तो पुरानी दिल्ली की गलियों से ही नही निकल पाए हैं तो अमेरिकी गलियों की क्या बात?
हम रहमान और गुलज़ार का खैर मकदम करते हैं लेकिन स्लमडाग का नही! एक बात और भी गौर करने लायक है की हमारे बम्बैया फिल्मकारों चुम्मा चाटी और हाथ मुह तोड़ने के अलावा और कुछ क्यो नही दीखता? सायद इससे सबक सीखकर कुछ सार्थक फिल्में बन सके तो ज्यादा बेहतर होगा। फिलहाल गाली और ताली के बीच मुस्कुराने का मौका तो मिल ही गया है। सो कम आन प्लीज़ - इस्माईल इंडिया इस्माईल !

4 comments:

योगेश समदर्शी said...

मुझे तो इस पुरस्कार से कोई खुशी नहीं हुई. दुख हुआ, शर्म आई. अंग्रेज पहले हमें ब्लैक डाग कहते थे अब एक और अंग्रेज ने स्लम डोग कह दिया और वह आज के दौर मै आजाद भारत के लोगों को पूरी दुनिया के सामने ऐसा कह पाया इस लिये उसे विदेश में ईनाम मिलना तय था...

http://samadhanhai.blogspot.com/2009/02/blog-post_23.html

डा.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मनोज भाई सिनेमा हाल के सामने से गुजर रहा था तो दो कुत्तों ने मुझे रोक लिया और उदास से स्वर में बोले कि यार ये लो टिकट और तुम पिच्चर देख लो। मैंने पूछा क्यों अबी तो पांच मिनट पहले फिल्म शुरू हुई तुम्हें पसंद क्यों नहीं आ रही है तो बोले हमें लगा कि हमारे जैसे किसी भाई की कहानी है ये तो तुम्हारे किसी भाई की कहानी है। हमें नहीं देखनी.....
भाई मुंबई की झोपड़पट्टी की गरीबी का अत्यंत वीभत्स चित्रण करा गया है,बनियों के लिये किसी का दुःख,पीड़ा,कष्ट,तकलीफ़ जैसी वेदनाएं भी बिकाऊ सामान हैं बस मीरानायर की तरह से झोपड़पट्टी कुछ बच्चे पकड़ो और बना डालो एवार्ड-विनिंग फिल्म या फिर मुंबई की शान, जिस पर मुंबई के ठेकेदारों को जो खुद को सैनिक कहते हैं गर्व है; धारावी जो एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी है वहां एक महीने अलग-अलग एंगल से कैमरे लगा दो दो चार नहीं हजारों आर्ट फिल्में तैयार हो जाएंगी इस तरह की.....
गहरा क्षोभ है इस फिल्म की कथावस्तु के प्रति... रचनात्मकता घाव कुरेदने में भी है क्या कि देख बेटा क्या कलात्मक तरीके से जख्म में उंगली डाली है..... :(
जय जय भड़ास

हिज(ड़ा) हाईनेस मनीषा said...

बस ये एक व्यवसायिक क्रूरता है
जय जय भड़ास

अमित जैन (जोक्पीडिया ) said...

पहले कोई अपना कहता था बुरा हमे ,
तो पी लेते थे अपने आसू ,
अब गैरो को बना आइना कहे बुरा कोई हमे ,
तो कैसे चुपचाप पी लू ये आसू amitjain

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