प्रिय महक जी
अच्छा लगा कि ये सारे तथ्य आपकी जिज्ञासा के अंग मात्र हैं।
मैं आपके सारे शंकाओं का समाधान करना चाहूंगा किन्तु मेरी लिखने की गति थोडा कम है अत: ये समाधान मैं आपको टुकडो में दूंगा।
सब से पहले मनुस्मृति जनित शंकाओं का समाधान प्रस्तुत कर रहा हूं।
किन्तु यहां किसी भी शंका को समाधित करने से पहले मैं एक बात अवश्य चाहूंगा कि आप इन्हे समसामयिक युग के दृष्टि कोण से देखें क्यूकि कोई भी ग्रन्थ अपने प्रणयन के काल की समसामयिक समस्याओं के निदान हेतु ही लिखा जाता है जो कि जरूरी नहीं कि हर काल में चरितार्थ हो और दूसरी बात यह कि कोई भी परम्परा समाज को सुधारने या सही मार्ग पर ले जाने के लिये आती है, हां ये अलग बात है कि उस परम्परा को लोग धीरे -2 रूढि कर देते हैं जो समाज के अहित का कारण भी बनने लग जाती है पर इसमें उस परम्परा या उस परम्परा का विधान करने वाले लोगों का कोई दोष नहीं निकाला जाना चाहिये।
मै आपको एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा।
सती प्रथा हमारे समाज का अभिषाप मानी जाती है जिसका उन्मूलन बडे विवादों के वाद किया जा सका।
इस प्रथा को आज के समय में कोई भी संभ्रान्त व्यक्ति उचित नहीं ठहरायेगा पर थोडा सा सोंचकर बताइये कि क्या ये उस समय भी इतना ही बुरा था जब लोगों की पत्नियों को आक्रमणकारी सेनायें बुरी तरह से यौनाचार हेतु प्रयोग करती थीं।
जबतक पति जीवित रहता था तबतक तो कदाचित वो पत्नी के सम्मान की रक्षा कर लेता था पर मरने के बाद तो नहीं कर सकता था तो उस समय अगर ये व्यवस्था लागू थी तो इसका क्रियान्वयन करने वाला व्यक्ति प्रमत्त तो नहीं कहा जा सकता।
यहां ये भी प्रश्न उठ सकता है कि बहुत से लोग इस परिस्थिति से समझौता कर लेते रहे होंगे तो उनकी पत्नियों के लिये जबरदस्ती क्यूं की जाती थी तो इसका उत्तर सिर्फ इतना है कि अगर एक स्त्री को इस तरह की छूट दे दी जाती तो कदाचित और भी औरतें मृत्यु के डर से आक्रान्ताओं की रखैल बनने के लिये तैयार हो जातीं और फिर आप कल्पना कर सकते हैं कि आज का भारत कैसा होता या आज की स्थिति क्या होती। शायद भारतीय संस्कृति का नाम भी मिट गया होता।
अब उस समय की पुस्तकों में सती प्रथा या बाल विवाह की बहुत ही बडाई होती रही होगी तो अगर आज के परिवेश में हम उन पुस्तकों को देखें तो हमे खासा अनुचित लगेगा पर क्या हम उन पुस्तकों को बिल्कुल ही गलत ठहरा सकते हैं | नहीं ,,, हमें उन्हें गलत कहने का अधिकार नहीं है। पर हां हम आज उन पुस्तकों की मान कर सतीप्रथा या बाल विवाह भी नहीं ला सकते अत: हमें उनसे केवल समसामयिक विषयों पर चरितार्थ हो रहे विषयों का चयन ही करना चाहिये।
ठीक इसी क्रम में मै अब आपके मनुस्मृति जनित शंकाओं का समाधान करता हूं।
वस्तुत: आज जो मनुस्मृति ग्रन्थ प्राप्त होता है वह प्राचीन मनुस्मृति का प्रतिनिधि मात्र करता है। इस ग्रन्थ्ा के साथ बहुतों ने बहुत ही खिलवाड किया ।
फिर भी अगर यही इसका मूल रूप रहा हो तो भी इसके विषय में कुप्रचार इसकी प्राय: गलत ब्याख्या के कारण हुई।
आपको इस बात की आपत्ति है कि ब्राह्मण ईश्वर के मुख से क्यूं उत्पन्न हुआ और शूद्र पैरों से तो इससे क्या शूद्र की समाज में महत्ता समाप्त हो जाती है।
कतई नहीं।
जरा आपके शरीर में ही ये व्यवस्थाएं लागू करके देखते हैं।
अगर ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है और शूद्र सर्वथा महत्व हीन तो आपके शरीर से शूद्र हटा दिये जाएं और उसके बदले आपको एक ब्राह्मण और दे दिया जाए।
अर्थात् अब आपको दो मुख हो गये और आपके पैर हटा दिये गये । कल्पना कीजिये क्या आप बहुत सहज महसूस कर रहे हैं।
आपके पहले प्रश्न का यही उत्तर बन पडता है ।
दूसरी बात आपने इस ब्यवस्था को जाति व्यवस्था कहीं नहीं सुना होगा क्यूकि ये वर्ण व्यवस्था थी जो ब्यक्तियों के कार्य के अनुसार निर्धारित होती थी। अर्थात् जिसके जो कर्म होते थे उनको उसी तरह के कार्य दे दिये जाते थे और उसको उसी वर्ग का मान लिया जाता था। अगर किसी ब्राह्मण का पुत्र भी किसी शूद्र की भांति प्रवित्त होता था तो उसे शूद्र की ही संज्ञा दे दी जाती थी पर बाद में इस वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था मान लिया गया तो इसमें महाराज मनु या उनके सिद्धान्त गलत क्यूं कहे जाएं।
वर्ण व्यवस्था का एक अद्भुत उदाहरण दे रहा हूं
कारूरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना।
नानाधियो वसूयवोनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव।। ऋग्वेद 9,112,3
उपरोक्त मन्त्र में एक ही परिवार के लोगों को भिन्न -2 कर्म का सम्पादन करते हुए दिखाया गया है।
मन्त्रार्थ- मैं मन्त्रों का सम्पादन करता हूं1। हमारे पुत्र वैद्य हैं2, मेरी कन्या बालू से जौ आदि सेंकती है3 इस तरह भिन्न-2 कार्यो का सम्पादन करते हुए भी जिस तरह गोपालक गौ की सेवा करते है उसी तरह हे सोमदेव हम आपकी सेवा करते हैं। आप इन्द्रदेव के निमित्त प्रवाहित हों।
इस मन्त्र में एक ही परिवार में तीन कर्म दिये हैं और किसी को भी किसी से श्रेष्ठ या निम्न नहीं माना गया है।
कहना सिर्फ इतना है मित्र कि थोडा सा वैशम्य देखकर किसी बात का गलत अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिये और सम्भव है अब आपकी इस समस्या का निराकरण हो गया हो कि किसी जाति परम्परा को उंच या नीच नहीं कहा गया, मतलब अगर कोई शूद्र है तो जरूरी नहीं उसका सत्कर्म करने वाला पुत्र भी शूद्र श्रेणी ही ग्रहण करे।
आपकी दूसरी समस्या
श्रीराम ने शम्बूक नामक शूद्र का वध क्यूं किया , जबकि वो तप कर रहा था।
आप के इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-
श्री राम के राज्य में सर्वत्र कार्यप्रणाली का श्रेष्ठतम प्रतिपादन था अर्थात जिस के हिस्से में जो कार्य था वो अपने कार्य के प्रति पूर्ण समर्पित था अत: राज्य में अकाल मृत्यु नहीं होती थी।
शम्बूक एक ब्राह्मण द्रोही शूद्र था और तब के ब्राह्मण आज के ब्राह्मणों की तरह नहीं थे जो कर्म से तो शूद हों और ब्राह्मण होने का आडम्बर करें।
शम्बूक सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिये नहीं अपितु ब्राह्मण वर्ग को नीचा दिखलाने के लिये तप कर रहा था।
और तो और उसके तप का माध्यम हठयोग था तथा वह मांसाहार तथा अभक्ष्यादिकों से तप का पोषण कर रहा था। इस तरह किया गया तप रामराज्य के लिये घातक सिद्ध हुआ और एक ब्राह्मण पुत्र की अकाल मृत्यु हो गई । इस कारण श्री राम ने उसका वध कर दिया। किसी को नीचा दिखाने के लिये किया गया कोई महान कार्य भी निरा तुच्छ माना जाता है।
आपने दक्ष प्रजापति के यज्ञ के विषय में जरूर सुना होगा, दक्ष तो ब्रह्मा का पुत्र था फिर भी शिव की दुर्भावना वश किया हुआ उसका यज्ञ नष्ट कर दिया गया और उसकी दुर्गति हुई।
शम्बूक की तरह ही रावण का प्रसंग ले सकते हैं।
रावण तो महर्षि पुलत्स्य (सप्तर्षियों मे से एक ऋषि) का नाती था, पर उसके आचार विचार निरा राक्षसों के थे अब अगर कोई ये कहे कि राम क्षत्रिय थे अत: ब्राह्मण का उत्थान देख नहीं सके और उसका वध कर दिया तो इसे आप क्या कहेंगे।
ये तो एकांगी विचार का ही परिपोषण है।
फिर आप ये क्यूं नहीं देखते कि राम ने शस्त्र विद्या महर्षि विश्वामित्र से ली थी जो एक क्षत्रिय थे ।फिर भी स्वयं महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें ब्रह्मर्षि कहा था और श्री राम उन्हें नत होते थे। क्या इस प्रसंग से जाति व्यवस्था का लेश भी दिखाई देता है।
तो जिन श्रीराम ने एक क्षत्रिय को गुरू माना , एक ब्राह्मण को मृत्युदण्ड दिया अगर उन्होंने शम्बूक को मारा तो क्या उनकी व्यवस्था में खोट आ गयी। आप स्वयं विचार कीजियेगा , उत्तर आपका अपना मन ही दे देगा।
तीसरी शंका आपके मन्त्रार्थ के गलत अध्ययन के कारण है
यहां मैं मन्त्रार्थ दे रहा हूं।
वैश्य:,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, चार्हति ।।374
जो वैश्य परस्त्री को एक वर्ष तक घर मे रखे उसे सर्वस्व हरण का दण्ड देना चाहिये, क्षत्रिय द्वारा एसा करने पर सहस्र पणों का तथा शूद्र द्वारा एसा करने पर मूत्र से सिर मुडाने का दण्ड देना चाहिये।
उभावपि,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, कटाग्निना।।375
जो वैश्य और क्षत्रिय रक्षित ब्राह्मणी से संभोग करते हैं उन्हे वही दण्ड देना चाहिये जो इस कृत्य के लिये शूद्र को मिलती है या फिर उन्हें चटाई में लपेटकर आग में झोंक देना चाहिये।
इसी तरह से अन्य के भी मन्त्रार्थ वैभिन्य के कारण ही आपकी ये शंका उत्पन्न हुई है अत: इसमें आपकी कोई भी गलती नहीं मानता हूं।।
रही बात इनके शवों को अलग-2 दिशाओं से ले जाने की तो इसमें कोई भी दुर्भावना नहीं दिखती क्यूकि आज भी ज्यादातर ग्रामों मे शूद्रों की बस्तियां दक्षिण में ही होती है अत: यह केवल इस लिये ही नियमित किया गया कि कदाचित कोई भी वर्गद्वन्द्व न होने पाये। वस्तुत: ग्रन्थ का आशय केवल समाज में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने से ही है अत: कुछ नियम ऐसे भी बने थे जो आज अप्रासंगिक होते दिख रहे हैं।
दण्ड विधान वैभिन्य इस कारण था कि एक ब्राह्मण जो समाज में उच्च पदासीन था, लोगों के मानस पटल पर जिसका सम्मानित प्रतिबिम्ब था उसको समाज के मध्य अपमानित करना ही मृत्यु के समान था पर क्रम नीचे जाने पर अगर आप एक शूद्र को उसके किसी जघन्य कृत्य के लिये केवल अपमानित कर के छोड दिया जाता तो उसकी कोई हानि न होती क्यूंकि समाज उससे ब्राह्मण का सा सम्मानित व्यवहार नहीं करता था , और इस थोडे से दण्ड प्राप्त होने पर वह वही कृत्य दुवारा भी उतने ही सानन्द करता इसलिये कठोर दण्ड के नियम यथोक्त निर्मित हुए।।
प्रिय महक जी
आशा है आपकी जिज्ञासा का कुछ तो समन कर सका हूंगा।
आपके शेष प्रश्नों का उत्तर भी इसी क्रम में देता रहूंगा पर अगर मेरे द्वारा दिये गये इन उत्तरों में आपकी जरा सी भी श्रद्धा दिखी तो।
एक बात और कहना चाहूंगा । आज हमारे देश की जो स्थिति है वो आप स्वयं ही देख रहे हैं । इसमें बताने जैसा कुछ भी नहीं है। हमारे देश के नेतागण ही इस देश को नष्ट करने पर लगे हैं, और फिर उपर से पाकिस्तान , बांग्लादेश, चीन , अफगान आदि देशों की सीमाओं से कुछ न कुछ अनिष्ट हो ही रहा है तो हमारा आज कर्तब्य ये बनता है कि हम भारत को भारत ही रहने दे इसे हिन्दू या मुस्लिम कौम में न बांटें और ये कार्य तभी सम्भव हो सकेगा जब हम अपने किसी भी धर्मग्रन्थ पर कटाक्ष न करें। चाहे वो वेद हों, पुराण हों, कुरान हों या गुरूग्रन्थ साहब हो । ये सारे ग्रन्थ बडे पवित्र हैं तथा इनमें हमारे प्राण बसते हैं अत: इनपर कुछ भी कटाक्ष करने से हमें तो कुछ नहीं मिलने वाला अपितु आपसी द्वेष ही बढेगा।
और जरा ये बताइये कि क्या समाज इन ग्रन्थों के हिसाब से आज या कभी भी चला है, अर्थात् क्या वो सारी व्यवस्थाएं लोगों द्वारा पालित हैं, और अगर नहीं तो क्यूं बिना वजह इन ग्रन्थों की टांग खींची जाए कि इनमें ये लिखा है , उनमें वो लिखा है। इसका क्या मतलब बनता है।
आज का जो कानून बना है क्या लोग उसका शत् प्रतिशत् पालन करते हैं या कि आज के कानून में जो लिखा है वो सब सही ही लिखा है, और अगर एसा नहीं है फिर भी तो लोग उसे मानते तो हैं ही न। क्यूं नहीं कोई इस पूरी कानून ब्यवस्था की कमियों के खिलाफ बगावत करता है।
कई बार हमें हमारे मां पिता तक से कुछ अप्रत्याशित् या अनुचित दण्ड प्राप्त हो जाता है या कुछ ऐसा व्यवहार होता है जिसकी हम आशा भी नहीं करते होते हैं तो क्या यह उचित है कि हम उनका समाज के बीच में अपमान करें या प्रतिरोध करें।।
अगर आप इन बातों से सहमत हैं तो शायद फिर आपको उन प्रश्नों के उत्तर की आशा न रहेगी।
शेष आपकी इच्छा।
आखिर में एक निवेदन सभी ब्लागर मित्रों से है कि कृपया अपनी तर्कशक्ति तथा लेखन शक्ति का प्रयोग व अपनी उर्जा को समाज के निर्माण में तथा भारत की उन्नति हेतु लगायें इससे हमारे व्यक्तित्व का विकास तो होगा ही , साथ ही साथ हमारा भारत, अखण्ड भारत बनेगा ।
कभी भी किसी भी धर्म या धार्मिक ग्रन्थों पर कटाक्ष करने से पहले ये जरूर विचार करियेगा कि जब भी देश पर संकट पडा है तो सारे भारतीय केवल भारतीय होते हैं न कि हिन्दू, मुसलमान । आजादी की लडाई भी हमने साथ ही लडी है।
धर्मवाद और जातिवाद तो कमीने नेताओं का शगल है। हमें तो जो भी वाद चलाना है वो हमारे भारत के लिये ही चलाना है अत: हांथ जोडकर निवेदन करता हूं कि संयुक्त भारत परिवार को विघटित न होने दें अन्यथा परिणाम किसी भी व्यक्ति के लिये हितकर नहीं होगा।।
आप लोगों का सहयोग एक सुरक्षित भारत का निर्माण करेगा।।
जय हिन्द
--
ANAND
3 comments:
प्रिय आनंद भाई आपने जो उत्तर महक जी के लिये लिखा है वह भड़ास के दर्शन के अनुसार एकदम संतुलित उत्तर है, ग्रन्थों और उनके उद्धरणों के आधार पर आज के मानव समाज को देखना कदाचित सामयिकता के साथ न्यायपूर्ण न हो। वैसे जिन्हें बहस करनी है या खुद को श्रेष्ठ दिखाने की ललक है वे बने रहें हम तो निकृष्टतम ही भले....
जय जय भड़ास
बहुत बढिया आनंद भाई , आप ने पूर्ण रूप से संतुलित उत्तर दिया है
सुष्ठूक्तमानन्दवर्य!
आपके तर्काश्रित बातों से पूरी सहमति है...
बहुत-२ धन्यवाद
Post a Comment