कसाब को फांसी की सज़ा सुनाकर विशेष अदालत ने महात्मा गांधी के मुंह पर मारा जोरदार तमाचा
दुनिया जानती है कि भारत में मोहनदास करमचंद गांधी को राष्ट्रपिता स्वीकारा है ये स्वीकृति सामाजिक हो सकती है कानूनी नहीं। जैसे हिंदी के राष्ट्रभाषा होने की कोई कानूनी मान्यता नहीं है ठीक उसी तरह से मोहनदास करमचंद गांधी के राष्ट्रपिता होने के कोई कानूनी प्रमाण नहीं है। भारतीय मुद्रा के ऊपर इनकी तस्वीर का होना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि भारतीय शासन-प्रशासन और जनता इस बात से सहमति रखते हुए महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता स्वीकारती है और इस बात का विरोध नहीं करती कि उनकी तस्वीर भारतीय नोट पर हो। इस सारी बात का एकदम साफ़ मतलब है कि हम भारतीय लोग महात्मा गांधी और उनके सिद्धान्तों से सहमति जताते हैं। एक बात और इन सारी बातों से निकल कर सामने आती है कि हमारी न्यायपालिका महात्मा गांधी के सिद्धान्तों से पूर्णतया असहमत है और उनके विचारों की अवहेलना करना ही कानून समझती है जो कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान होता रहा था लेकिन अब क्यों? आज तो भारत स्वतंत्र है हम अपने न्याय सिद्धान्तों को गांधी के विचारों के आधार पर रख सकते हैं। जस्टिस टहलियानी द्वारा तमाम सबूतों और गवाहों के बिनाह पर अजमल आमिर कसाब को फांसी की सज़ा सुना देना हमारे देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धान्तों के पूरी तरह से विरोध में है। जस्टिस टहलियानी ही क्या तमाम न्याय प्रणाली इस तरह की क्रूर सजाएं देकर हमेशा महात्मा गांधी के मुंह पर तमाचा मार कर हमे ये जता-बता रही हैं कि न तो गांधी महात्मा थे न राष्ट्रपिता और न ही उनके सिद्धान्त देश को चलाने के लिये स्वीकार्य हैं। ये एक विमर्श का विषय है कि गांधी स्वीकार्य हैं या नहीं या हम बस गांधी को सिर्फ़ उतना ही स्वीकारते हैं जितना हमें पसंद है, पूरी तरह नहीं तो फिर देश की मुद्रा पर उनकी तस्वीर का क्या औचित्य???????
जय जय भड़ास
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