उस आदमी को मैंने पहली बार इतना विचलित और घनघोर चिंतन में डूबे देखा। जो व्यक्ति असीम सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ हो, उसके माथे पर अपने परिवार और भविष्य को लेकर संशय की सलवटें देखना मन द्रवित कर देने वाला क्षण था।कितना सरल है, किसी की लोकलाज को बीच चौराहे नंगा कर देना?जब महाभारत में कौरव द्रोपदी का चीरहरण कर रहे थे, तब श्रीकृष्ण बतौर संरक्षक अवतरित हुए थे- यहां पत्रकारिताई महाभारत में कई सौ कौरव हैं, ऐसे कौरव जिनके पिता अंधे ही नहीं, गूंगे और बहरे भी हैं।...और ‘माताएं’ इन कौरवों के कुकृत्यों पर गौरवान्वित महसूस करती हैं। यहां, लाज श्रीकृष्ण को भी बचानी पड़ती है? पत्रकारिता के कौरवों से निपटना अब पांडवों के वश में कहां रहा? खासकर तब, जब दुनिया को गीता-सरीखा संदेश देने वाले संपादकरूपी कृष्ण खुद असहाय हों।....और जाने-अनजाने उन्हें कठपुतली की भांति नाचना पड़ रहा हो।
अविनाश दास पर आरोप है कि उन्होंने पत्रकारिता की एक छात्रा से छेड़छाड़ की। सच क्या है? इसे जानने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं हैं, उन्हें सिर्फ जुगाली में आनंद की प्राप्ति हो रही है। सब जानवरों-सरीखे बर्ताव पर औतारू हैं, जिन्हें हर आदमी दरिंदा और बदमाश दिखाई देता है और वे अपने सींगों से उसे दंडित कर देना चाहते हैं। इन जानवरों को इसमें कोई रुचि नहीं कि सामने वाला शख्स निर्दोष है या वाकई पापी-दोषी। यह स्त्री पर ’पुरुषार्थ’ हावी हो जाने-सरीखा है, जिसने अपनी इज्जत को दांव पर खेला है, ताकि उसके दंभ-प्रसंग-प्रपंच और प्रयोजन को सफलता हासिल हो चुके। इज्जत दांव पर लगाकर, किसी की इज्जत उतारना! यह ठीक वैसा ही खेल है, जिसमें किसी एक की मौत तय है। त्रिया चरित्र को जब ईश्वर नहीं जान सके, तो उस जांच कमेटी की क्या बिसात, जो झूठ में सच निचोड़ने का प्रयास कर रही है।...और अगर सच-झूठ का खुलासा हो भी गया, तो क्या दोषी को सजा मिल पाएगी? सवाल कई हैं, लेकिन अभी सच यह है कि इस ‘खेल’ के पीछे कइयों के खेल चल रहे हैं।
डीबीस्टार(दैनिक भास्कर भोपाल का टेबलाइड न्यूज पेपर) में रहते हुए अविनाशजी ने कइयों की कलई खोली है, तो उनकी लंगोट खुलना तो निश्चय था। कहने को तो सिर्फ दो शब्दों का ही तो नाम है-अविनाश दास!...लेकिन इस साधारण से नाम को नामचीन बनने में कितनी ऊर्जा क्षय हुई होगी, उसका विश्लेषण भला कौन करना चाहेगा? हां, पत्रकारिताई जमात इसमें रुचि अवश्य ले रहा है कि अविनाश कितने छिछौरे हैं?
मैंने कल रात अविनाशजी को फोन लगाया। वे भारत भवन में परिवार सहित शायद नाटक देखने गए हुए थे। उन्होंने घर आने को कहा। अविनाशजी पिछले दो-तीन महीने से मुझे घर आने का निमंत्रण दे रहे थे, लेकिन जाने का संयोग ही नहीं बन पा रहा था। कल रात जब मैं अपने एक मित्र प्रमोद त्रिवेदी (दैनिक समय जगत के समाचार संपादक) के साथ अंसल अपार्टमेंट स्थित उनके घर पहुंचा, तो मन बहुत व्याकुल था। यूं लग रहा था कि कहीं मैं रो न पड़ूं। अविनाशजी और हम इससे ठीक एक हफ्ते पहले चर्चित कवि कुमार अंबुज के घर पर मिले थे। अविनाशजी बेहद जिंदादिल इंसान हैं, इससे शायद ही कोई इनकार करे। एक ऐसे शख्स, जिनका हर बोल, सामनेवाले को सकारात्मक ऊर्जा से भर दे, उसके मन-मष्तिष्क को किसी अच्छे प्रयोजन के प्रति उद्देलित कर दे। उस आदमी की क्लांत-शांत देख कोई हैरानी तो नहीं हुई, लेकिन दु:खी कर देने वाला पल अवश्य था। अपनी गोद में सवा साल की बच्ची सुर को लेटाए शून्य-से बैठे अविनाशजी के मन की उथल-पुथल हम सिर्फ भांप सकते थे, लेकिन कोई भी किसी का दु:ख भोग नहीं सकता!
शिखर से शून्य पर आकर खड़े होना कितना तकलीफदेह होता है, यह वही समझ सकता है, जिसने इस पीड़ा को भोगा है। अविनाशजी बहुत जल्द भोपाल से विदा हो जाएंगे, लेकिन अपने पीछे छोड़ जाएंगे ढेरों प्रश्न? ऐसे सवाल जिनसे हमारा सरोकार होते हुए भी हम उनकी ओर से आंखें मूंदें रहेंगे? आखिर अब पत्रकारिता किस चिड़िया का नाम बचा है? ऐसा लेखन-जिसमें मक्खन-सी चिकनाहट हो और बर्ताव में कुत्ते-सी चाटुकारिता और गीदड़-सरीखी कायरता...या देश-समाज के हित में कुछ कर गुजरने का जोश-जज्जबा? अफसोस, दोनों ही किस्म की पत्रकारिता में इज्जत दांव पर लगानी पड़ती है-फर्क इतना है, पहले में कोई इज्जत नहीं रहती और दूजे में हर शब्द लिखते वक्त इज्जत बचाए रखने की फिक्र लगी रहती है।
बहरहाल, यदि अविनाश दास निर्दोष हैं, तो उनकी खोई प्रतिष्ठा कौन लौटाएगा? कौन कहेगा-हे स्त्री तुझे धिक्कार!...और अगर वे पापी हैं, तो उन्हें सजा अवश्य मिलनी चाहिए। अभी जरूरत सच और झूठ में दिलचस्पी लेने की है, ताकि भविष्य में इसकी घटनाएं दुहराई न जा सकें। हम इस घटना को सिर्फ एक खबर मानकर बिसरा नहीं सकते। जो साचा है, उसके पीछे हमें खड़ा होना ही पड़ेगा और जो दोषी है-उसे धिक्कारना ही होगा।
अमिताभ बुधौलिया ‘फरोग’
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अविनाशजी की बात जो उनके ब्लॉग मोहल्ला पर प्रकाशित हुई है...
क्या सचमुच एक झूठ से सब कुछ ख़त्म हो जाता है?
मुझ पर जो अशोभनीय लांछन लगे हैं, ये उनका जवाब नहीं है। इसलिए नहीं है, क्योंकि कोई जवाब चाह ही नहीं रहा है। दुख की कुछ क़तरने हैं, जिन्हें मैं अपने कुछ दोस्तों की सलाह पर आपके सामने रख रहा हूं - बस।मैं दुखी हूं। दुख का रिश्ता उन फफोलों से है, जो आपके मन में चाहे-अनचाहे उग आते हैं। इस वक्त सिर्फ मैं ये कह सकता हूं कि मैं निर्दोष हूं या सिर्फ वो लड़की, जिसने मुझ पर इतने संगीन आरोप लगाये। कठघरे में मैं हूं, इसलिए मेरे लिए ये कहना ज्यादा आसान होगा कि आरोप लगाने वाली लड़की के बारे में जितनी तफसील हमारे सामने है - वह उसे मोहरा साबित करते हैं और पारंपरिक शब्दावली में चरित्रहीन भी। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं और अभी भी कथित पीड़िता की मन:स्थिति को समझने की कोशिश कर रहा हूं।मैं दोषी हूं, तो मुझे सलाखों के पीछे होना चाहिए। पीट पीट कर मुझसे सच उगलवाया जाना चाहिए। या लड़की के आरोपों से मिलान करते हुए मुझसे क्रॉस क्वेश्चन किये जाने चाहिए। या फिर मेरी दलील के आधार पर उसके आरोपों की सच्चाई परखनी चाहिए। लेकिन अब किसी को कुछ नहीं चाहिए। कथित पीड़िता को बस इतने भर से इंसाफ़ मिल गया कि डीबी स्टार का संपादन मेरे हाथों से निकल जाए।दुख इस बात का है कि अभी तक इस मामले में मुझे किसी ने भी तलब नहीं किया। न मुझसे कुछ भी पूछने की जरूरत समझी गयी। एक आरोप, जो हवा में उड़ रहा था और जिसकी चर्चा मेरे आस-पड़ोस के माहौल में घुली हुई थी - जिसकी भनक मिलने पर मैंने अपने प्रबंधन से इस बारे में बात करनी चाही। मैंने समय मांगा और जब मैंने अपनी बात रखी, वे मेरी मदद करने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहे थे। बल्कि ऐसी मन:स्थिति में मेरे काम पर असर पड़ने की बात छेड़ने पर मुझे छुट्टी पर जाने के लिए कह दिया गया।ख़ैर, इस पूरे मामले में जिस कथित कमेटी और उसकी जांच रिपोर्ट की चर्चा आ रही है, उस कमेटी तक ने मुझसे मिलने की ज़हमत नहीं उठायी।मैं बेचैन हूं। आरोप इतना बड़ा है कि इस वक्त मन में हजारों किस्म के बवंडर उमड़ रहे हैं। लेकिन मेरे साथ मुझको जानने वाले जिस तरह से खड़े हैं, वे मुझे किसी भी आत्मघाती कदम से अब तक रोके हुए हैं। एक ब्लॉग पर विष्णु बैरागी ने लिखा, ‘इस किस्से के पीछे ‘पैसा और पावर’ हो तो कोई ताज्जुब नहीं...’, और इसी किस्म के ढाढ़स बंधाने वाले फोन कॉल्स मेरा संबल, मेरी ताक़त बने हुए हैं।मैं जानता हूं, इस एक आरोप ने मेरा सब कुछ छीन लिया है - मुझसे मेरा सारा आत्मविश्वास। साथ ही कपटपूर्ण वातावरण और हर मुश्किल में अब तक बचायी हुई वो निश्छलता भी, जिसकी वजह से बिना कुछ सोचे हुए एक बीमार लड़की को छोड़ने मैं उसके घर तक चला गया।मैं शून्य की सतह पर खड़ा हूं और मुझे सब कुछ अब ज़ीरो से शुरू करना होगा। मेरी परीक्षा अब इसी में है कि अब तक के सफ़र और कथित क़ामयाबी से इकट्ठा हुए अहंकार को उतार कर मैं कैसे अपना नया सफ़र शुरू करूं। जिसको आरोपों का एक झोंका तिनके की तरह उड़ा दे, उसकी औक़ात कुछ भी नहीं। कुछ नहीं होने के इस एहसास से सफ़र की शुरुआत ज़्यादा आसान समझी जाती है। लेकिन मैं जानता हूं कि मेरा नया सफ़र कितना कठिन होगा।एक नारीवादी होने के नाते इस प्रकरण में मेरी सहानुभूति स्त्री पक्ष के साथ है - इस वक्त मैं यही कह सकता हूँ
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मुझे याद है कि पिछले साल मई माह में जब एक ऐसा ही संगीन आरोप हमारे सैद्धांतिक विरोधी यशवंत सिंह पर लगा था तब अविनाश दास ने उस प्रकरण को चटकारे लेकर अपने ब्लाग पर ला कर तमाशा सा खड़ा कर दिया था क्योंकि उस समय बात कुछ अलग थी लेकिन अब जब पीड़ा अपनी हुई तो दुःख होना तो मानवीय स्वभाव है। क्या कारण है कि पत्रकारिता जगत में इस तरह के आरोप को एक सुलभ हथियार की तरह से इस्तेमाल करा जा रहा है? एक विचार ये भी आता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोई ऐसी ताकत है जो कि ब्लागिंग के माध्यम से उभर कर सामने आये लोगों को यानि कि एक पैरलल मीडिया के पुरोधाओं को उखाड़ने की लामबंद साजिश कर रहा हो क्योंकि चाहे मोहल्ला हो या पंखों वाली भड़ास इनकी मजबूरी है कि ये स्वतंत्र ब्लागर नहीं है इनकी रोजी रोटी का साधन पत्रकारिता ही है तो ब्लाग को पैरलल मीडिया न बनने देने के लिये ये एक दबाव का शस्त्र है? यशवंत या अविनाश दोषी हैं या नहीं ये निर्णय कानून के क्षेत्र का है हम इसमें बिना समझे कोई राय कैसे कायम कर सकते हैं। निर्दोषों के प्रति सहानुभूति और दोषियों के प्रति आक्रोश भड़ास का सहज स्वभाव है। मेरी बात पर विचार अवश्य करिये क्योंकि इसका निशाना तो लालाजी किसी भी पत्रकार ब्लागर पर बड़ी आसानी से लगा सकते हैं।
जय जय भड़ास
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