मै और तुम साथ साथ पले और बडे हुये मै सदैव तुम्हारे असितत्व को नकारती रही
तुम छाया की भाति मोन मेरे साथ साथ चलते मुझे छ्लते रहे
मेरे जीवन व्रछ से एक एक दिन पुश्प की भाति अपनी झोली मे चुनती रही
जब भी मेरे पैर लड्खडाए
जीवन विश्वास डगमगाया
तुमने अपने आने का एहसास
दिलाकर मुझे सम्हाला
मुझे उपर से हल्का किया अन्दर से सवारा
धीरे धीरे मेरा भय अपनेपन का एहसास जगाने लगा
दूरिया मिटने लगी तन मन तुम्हारे स्वागत मे
मधुर गीत गुनगुनाने लग
मुझे प्रतिछा हैजब तुम अपने कोमल स्पर्स से मुझे अपनी
वाहो मे समेट कर
अदैत और सुछःम्ता का आभास दोगे
चिर शान्ति और विस्रान्ति दोगे
अलविदा निशेस निशब्द होने के पूर्व इतना ही काफ़ी है
यो तो कहने को न जाने कितना कुछ और अभी बाकी है
4 comments:
दीदी,बहुत प्यारा और गहरा लेखन है अंदर तक उतर गया हर शब्द पिघला हुआ सा....
लिखती रहिये।
दीदी इससे पहले आपने अपने गहरे काव्य लेखन से परिचय नहीं कराया क्या बात है? बहुत सुंदर है...
"अलविदा निशेस निशब्द होने के पूर्व इतना ही काफ़ी है"
बहुत ही सुंदर और कोमल भाव है।
जब आप दोबारा पनवेल आना तो अपनी कविताओं का संग्रह ले आइयेगा। बहुत बहुत बहुत.... सुन्दर और कोमल है मुझे रोना आ गया
कृष्ण जी,
बस इतना कहूँगा की स्तब्ध हूँ !!!
शानदार बेहतरीन और पता नही क्या क्या मगर प्रभावित कर गया.
आपके इस छुपे गुण के लिए आपको बधाई.
जय जय भड़ास
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