मीडिया संस्थानों में इंटर्नशिप: काटने वाला वह जूता जिसे पहनना जरूरी है
हर ओर मची उठापटक और खींचतान को देख कर युवा मन बदलाव चाहता है। यदि वह सूचना संचार की शक्ति से परिचित है तो मन में सपने लिये किसी पत्रकारिता संस्थान की दहलीज पर पहुंच जाता है। अंदर जाकर बिल्कुल वैसा ही माहौल मिलता है जैसा कि कालेज में हुआ करता है, सेमेस्टर व टर्म्स के अनुसार शुल्क वगैरह भर कर कक्षा में बैठ कर पहले तो गुरुओं से पत्रकारिता नामक विषय के उपविषयों पर सैद्धांतिक लैक्चर्स सुनता है साथ ही विभिन्न प्रायोगिक प्रोजेक्ट्स वर्क आदि करता है। कक्षा में विषयों के माहिर जानकार लोग सिखाते हैं कि क्या लिखना है, कितना लिखना है, क्यों लिखना है, कब लिखना है, कैसे लिखना है, कब छापना है, कितना छापना है, एडवर्टाइजिंग आदि के मूल तत्त्व क्या हैं आदि आदि। सफलता पूर्वक डिप्लोमा-डिग्री मिलते-मिलते युवा मन आदर्श निर्मित कर लेता है। अब अगला चरण रहता है बतौर एक प्रशिक्षु किसी संस्थान में इंटर्नशिप करना जिससे कि परिपक्वता हासिल हो सके। उच्च आदर्शों से सज्जित युवा का सामना यहां होता है "लाला जी" किस्म के प्राणी से जिसे पत्रकारिता क्या बल्कि किसी आदर्श से कोई लेना देना नहीं होता वह वणिक सोच का व्यक्ति है जिसे समाचार मात्र एक बिकाऊ चीज़ दिखता है। पत्रकारिता का गोल्ड मैडल प्राप्त युवा जब एडवर्टाइज जुटा पाने या सनसनीखेज़ खबरें ला पाने में सफल नहीं हो पाता तो लाला जी के लिये वह बेकार सिद्ध होता है। इन युवाओं को कभी-कभी एहसास होने लगता है कि उन्होंने इस क्षेत्र में आकर ही गलती कर दी है। डेस्क और फ़ील्ड दोनो जगहों पर लाला जी के चाटुकार पाइप लगा कर ’ब्रेकडाउन’ हो जाने तक खून पीते हैं। प्रशिक्षु मीडिया संस्थानों में आकर इंटर्नशिप के दरम्यान नयी भाषा व व्यवहार से परिचित होता है; मारना,मरवाना,तेल लगाना, तौलना,रगड़ना आदि जैसे शब्द नये अर्थों में सामने आते हैं। कई बार जातिभेद का सामना होता है और जो सबसे कड़वी बात खुल कर सामने आती है वह है लिंगभेद; पुरुष होने पर सफलता के आयाम में खुद को दोयम दर्जे का पाना चुभता है। इस बात को तो कुछ लोग बड़े ही कड़े शब्दों में खुल कर कहते हैं कि मीडिया, सिनेमा व फैशन इंड्स्ट्री आदि में सफलता का रास्ता जांघों के बीच से होकर ही बनता है यदि आपके आगे की तरफ रास्ता बनाने लायक जगह नहीं है तो उसे पीछे से गुजरने दीजिये लेकिन वह बनेगा जांघों के बीच से ही। प्रशिक्षु मीडिया संस्थान में अपने वरिष्ठों से जन-व्यवहार आदि की प्रायोगिक तथा वह व्यवहारिक समझ पाता है जिसके बल पर वह अपने अस्तित्त्व को अपने प्रतिद्वंद्वियों के मध्य सिद्ध करते हुए आजीविका और आत्मसंतोष कमाता है। किन मुद्दों पर कितना लड़ना है, कितना समझौता करना है; जीत की नीति तो सही अर्थों में इसी समय समझ में आती है कि इस क्षेत्र में अस्तित्त्व बनाए रखने का समीकरण क्या होता है। लालाजी के द्वारा करे गये शोषण और चूषण की भट्ठी में तप कर युवा मन की योग्यता कुंदन बन जाती है। शोषण बहुत गहराई से ये सिखा देता है कि यदि एक मज़बूत टीम बनानी है तो अपने कनिष्ठों से क्या व्यवहार नहीं करना चाहिए। कुल मिला कर सच ये है कि इंटर्नशिप उस जूते की तरह होती है जो कि पैरों मे काटती है और छाले तक ला देती है लेकिन कुछ समय बाद यही जूता आपके पैरों में फ़िट आने लगता है और कांटे-कंकड़ों से सुरक्षा प्रदान करने लगता है साथ ही आपको तीव्रतम गति से दौड़ने का प्रदर्शन करने में सहायक भी सिद्ध होता है। यदि जिनमें साहस और योग्यता है वे इस इंटर्नशिप के चरण को लांघ कर स्वतंत्र पत्रकारिता में खुद को स्थापित कर पाते हैं।
मीडिया स्कैन के संपादन ने जो काटा वह आपके सामने है और जो प्रकाशित करा वह भी........
जय जय भड़ास
मीडिया स्कैन के संपादन ने जो काटा वह आपके सामने है और जो प्रकाशित करा वह भी........
3 comments:
गुरुदेव सबकी अपनी अपनी मजबूरी,
सच को जहाँ तक आत्मसात करना था किया उसके बाद तौबा कर ली तो मीडिया स्कैन क्यूँ पीछे रहे.
जय जय भड़ास
यानि कि अर्धसत्य.....
यही वजह है कि पत्रकारिता भी लैंगिक विकलांग हो चुकी है,सत्य के पुरुषांग को काट कर बस मर्दाने कपड़े पहना कर सामने लाने का ही ये नतीजा है कि आज मीडिया से जुड़े लोगों को आम जनता कार्टून और जोकर से ज्यादा नहीं समझती
जय जय भड़ास
हो चुकी है, अरे गुरुवार कब से है बहुतो के देखा और और सभी अर्धसत्य ही हैं, इन्हें लैंगिक विकलांग ना कहें ये उनका अपमान होगा जिन पर इस्वरिय कोप हुआ, ये तो हमारे समाज के स्व निर्मित संसाधन हैं, और ढिठाई ऎसी कि विकलांगता के बावजूद लोकतंत्र का आइना बनने कि कवायद.
लोकतंत्र के ऐसे नासूर पर हमें ही तो नकेल डालना है
जय जय भड़ास
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