लोकतंत्र

लोकत्रंत के कंगूरों के कलश दिख रहे काले काले ।

हम भी तो हैं ढीले ढाले।

हमें चाहिए कंगूरों पर हम चढ़ जाए

कलशउतारें जो हैं काले ,

उन्हे पोछ दे जो मटमैला रंग लिए हैं ।

आख़िर जो भी कल आएगा ,

दृष्टीउठाकर कंगूरों को ही देखेगा ,

कौंन पूछता है की कैसे नींव बनी थी ।

गारे में है कौंन सम्मिलित ?

किस मिटटी की ईंट बनी थी ,

कितनी तेज आग की ज्वालाओं में इसको गया पकाया ,

राजगीर था कौंन ?

सजा कर एक एक ईंटे ,

जिसने यह नीव जगाई ।

कौंन श्रमिक था ?

जिसने अपना खून -पसीना बहा -बहा कर ,

रात -दिन था एक कर दिया ।

इन बातो पर चंद मिनट गर बातें होंगी ,

अहो भाग्य यह ,

जो भी आया कंगूरों की चमक -दमक में खो जाता है ।

चंद मिनट
के लंच डिनर में
लाखों लाखों खा जाता है
उन्हें बताना होगा हमको ,

अन्तरिक्ष में सोने वालों ,

आज भी ऐसे दिन हीन है ,

जो दाना तो देख न पाते ,

पी कर के वह अपना आंसू ,

फटा हुआ अखबार बिछा कर फुटपाथों पर सो जाता हैं ।

विजय विनीत मो।

न.९४१५६७७५१३

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