कलमुंहों काले-कलूटे बादलों




कलमुंहों काले-कलूटे बादलों


कलमुंहों काले-कलूटे बादलों
बेखबर, प्यासे इंसानों से ए पागलों
नहीं बरसना तो न बरसो, तरसा लो
कर सकते हो तुम घमंड तुम इतरालो
देखते भी हम नहीं आसमान में
तुम से हमको कुछ नहीं अरमान है
हमने कब चाहा था बरसोगे छप्पर फाड़कर
हमने कब देखा गगन निगाहें गाड़कर
हमने कब की प्रार्थना भगवान से
कि खूब बरसे पानी इस आसमान से
हमने कब किए बारिश के लिए टोटके
हवन में आहूति कब दी और की कोई प्रार्थना
हम कब चाहते हैं कि तुम बरसो
और बच्चे छतों पर पहुंच जाएं
निक्कर कमीज उतारकर
छई-छपा छई करें, तुम्हारे पानी में छपाके मारकर
दादा जी ने भी इस बार कसम खा ली है
उन्होंने भी अपनी पुरानी काली छतरी
अभी तक नहीं निकाली है
बच्चों ने भी इस बार मांगी नहीं
अपनी बरसातियां
बेरहम बादलों तुमने भी आखिर हमारे लिए क्या किया
पिछले बरस भी जून-जुलाई अगस्त में
हमें अप्रैल फूल बना गए
कुछ बूंदे टपका कर हमें अंगूठा दिखा गए
तुमसे न उम्मीद हमें कोई बाकी है
हमपर तो रहमत उस भगवान और खुदा की है
उसकी रहमत से ही होंगे हम तरबतर
वो ही बरसाएगा ए बादलों तुम्हें डंडे मारकर
शिवेश श्रीवास्तव
लेखक पत्रकार, कार्टूनिस्ट, संगीतकार, गीतकार

1 comment:

B@$!T ROXX said...

चित्र में ये आदमी बादलों को अपना पिछवाड़ा क्यों दिखा रहा है? तभी तो बादल नाराज हो गये, अरे बाहें फैला कर बुलाना चाहिए न कि शिकायत करके पिछाड़ी दिखाना चाहिए:)
जय जय भड़ास

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