दिल्ली से गुडगाँव, डी टी सी की अनकही......

आज कल दिल्ली में हूँ, सालों बाद दिल्ली में होने का मौका हुआ है मगर काज की आप धापी कि लगता है बस डी टी सी बस में ही हूँ। रोज सुबह सुबह उठना जो की सालों पूर्व हमने छोड़ दिया था, सुबह ही नहाना और फ्रेश होकर ऑफिस के लिए तैयार होना उफ्फ आज एक सजा से कम नही लगता कारण वो ही देर तक ऑफिस में रहना देर को सोकर उठाना और देर ही ऑफिस जाने की लत जो पड़ चुकी थी। सो बस ये रूटीन एक सजा सा लगता है और इस सजा में बढोत्तरी तब हो जाती है जब दिल्ली की डी टी सी बस से सफर करके मुझे गुडगाँव जाना पड़ता है।

रोजमर्रा को आत्मसात करता हुआ रोजाना ही अपने दैनिक गतिविधि से अपने को मिलाने की कोशिश कर रहा था कि दिल्ली के डी टी सी बस के कर्मचारियों की हरकतों ने अचानक ही आकर्षित किया।

डी टी सी की ये आपा धापी दिल्ली कि रोजमर्रा है, लोगों की मुसीबत, सरोकार किसी को नही

दिल्ली से गुडगाँव के लिए रोजाना सैकडों बसें चलती हैं, स्थानीय वाहन की तादाद भी भारी मात्रा में है जो लोगों के गमन का साधन है, सो लोगों की भीड़ में मैं भी शामिल हो गया। वाहन की इतनी ज्यादा तादाद होते हुए भी लगता है की कहीं कुछ कमी है और भी होना चाहिए और उत्तर की तलाश में ख़ुद अपने आप से मंथन करता हुआ अपने गंतव्य को रवाना हो जाता। बस ऐसे ही अपनी यात्रा के दौरान एक बार मैंने देखा बस में बड़ा शोर शराबा हो रहा है अपने मंथन से बाहर निकला तो देखता हूँ की टिकट को चेक करने वाले साहिबानों का हुजूम है और इनके कारण ही बस में बेपनाह शोर मची हुई है। देखा की कुछ लोग बिना टिकिट के थे शायद या फ़िर टिकिट कम के बना रखे थे सो उनपर सौ रूपये जुर्माना होना था और ये बड़ी बात भी नही जो आकर्षित कर सके क्यूँकि आपकी गलतियों का खामियाजा आपको ही भुगतना है। आकर्षित सिर्फ़ इस बात से हुआ की डी टी सी की जहालत सब जगह दिख पड़ती है जब इसके कर्मचारी बस में सफर करने वाले को पता नही क्या समझते हैं, कंडक्टर और चेकर की बदतमिजी का मैं प्रत्यक्ष गवाह अपने आप पर काबू न रख सका और इन लोगों से उलझ पड़ा।

उलझने का सिर्फ़ एक कारण जो मैंने इनको बताया जो शायद इनको हजम नही हो रहा था और इन्हें ही नही किसी भी सरकारी कर्मचारी, पदाधिकारी को नही होता है कि ये मानते ही नही कि ये आम लोगों के नौकर हैं। सरकारी नोकर हैं। इन्हें लगता है कि सरकारी मतलब तानाशाही, जो दिल करे जैसा दिल करे करो। कोई क्या कर लेगा। और वो अनपढ़ सा मजदूर सरीखे दिखने वाला मेरा गरीब सहयात्री इनके कोप का भाजन बन रहा था। मैं उठ कर खड़ा हो गया और कहा कि जो भी है आप पर्ची काटो या इसे पकड़ कर ले जाओ मगर तहजीब से, आप बदतमीजी से क्योँ पेश आ रहे हो? उस पर सारे स्टाफ बिदक गए और मुझे पर लगे हावी होने, पाठ पढाने जो हम पढने से रहे, हमारा पारा भी बढ़ता चला जा रहा था सो हम भी हत्थे से उखड गए और आवाज जरुर तेज हो गयी मगर धैर्य नही खोया और भाषा भी संतुलित ही। और उन महाशय को सिर्फ़ इतना ही समझाया कि महोदय आप सरकारी नौकर हो यानी कि इस बस के सभी यात्री के नौकर हो और इनके दिए दस रूपये से डी टी सी के साथ साथ आपकी तनख्वाह भी आती है, आप सिर्फ़ अदब से बात करें, और अपने मोबाइल से एक दो फोटो ले ली इन महाशयों की कि ये फोटो के साथ ब्लॉग पर लगाऊंगा।

फोटो लेते देख शायद इन महानुभावों को हमारे छपासी होने का भान हुआ और भाषा भी नम्र हुई और आगे चुपके से खिसक भी लिए। बदकिस्मती से मेरी मोबाइल ही खो गयी और इन महोदय के अलावा भी बहुत सारी ब्लागचर्चा मोबाइल के साथ ही गुम हो गयी। उनके जाने के बाद मैं भी लोगों पर एक सरसरी नजर डालते हुए खामोशी के साथ वापस अपने सीट पर धंस गया। आँखें मूंद कर वापस विचारों के भंवर में कि क्योँ सरकार, सरकारी तंत्र, और लोकतंत्र के हाथी के दांत यानि की चारो पाये आम आदमी को सिर्फ़ निचोड़ना जानते हैं, और सारे अधिकार रखने वाला आम अपने को इन के हाथों निचुड्वाकर भी खुश है.

बस इसी चिंतन में अपने अगले यात्रा की और बढ़ चला।



4 comments:

शोभा said...

आपके साथ जो हुआ वो हर रोज बहुत से लोगों के साथ होता है पर बहुत कम लोग हैं जो विरोध कर पाते हैं. आपने अपनी आवाज उठाई और उनको उनकी गलती महसूस करायी इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. देश के हर नागरिक को यही करना चाहिए.

anuradha srivastav said...

ये आम व्यवहार है जो जन साधारण के साथ होता है । इन्हीं साधनों से आना-जाना और रोज़ की खिट-पिट अतः लोग कम ही विरोध करते हैं जिसके फलस्वरूप इनके हौसले बुलन्द होते जा रहें हैं। इन लोगों के लिये व्यवहारगत आचारसंहिता बननी चाहिये ।

muskurahat said...

Rajneesh jee..ahank blog aab ekdam san chamaik gel achhi. barh neek lagait achhi. dhanyawad

सुनीता शानू said...

रजनीश मोबाईल डी टी सी में ही चोरी तो नही हो गया...:)
वैसे अच्छा लगा तुम्हारा लिखना...हमे इस तरह की परेशानियों का सामना रोज ही करना पड़ता है। विरोध न करना इन्हे बढ़ावा देना ही है...

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