अजमल कसाब के बारे में फैसले के न्यायपालिका और सरकार की नौटंकी के चलते मुंबई के उस इलाके के लोगों का जीना दूभर हो गया है।
फ़हीम अंसारी और सलाउद्दीन है कि सबाउद्दीन(अब तो नाम भी ध्यान रखने की जरूरत नहीं महसूस होती क्या फ़र्क पड़ता है) पुलिस झूठे सच्चे मामले बना कर फंसाये थी तो हमारी न्यायपालिका ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया। आक्रमण का मास्टरमाइंड कभी पकड़ में आएगा नहीं,भारत में उसके कोई संपर्क हैं नहीं होंगे तो पकड़े नहीं जाएंगे पकड़े गए तो पुलिस ने फंसाया है ऐसा सिद्ध करके बरी हो जाएंगे यानि कि जो कुछ हुआ वह मुंबई में बिना किसी लोकल काँटैक्ट के हुआ है। साला लगभग तेरह हजार पन्नो का आरोप पत्र था जिसमें विशेष अदालत में सुना और पेला गया दुनिया भर की फिल्मी कहानियाँ बनी।
अब आगे की बात कि अभी ये विशेष अदालत में पगार लेते जज अंकल अपनी अक्ल से निर्णय देकर उस पट्ठे को सज़ा सुना देंगे जिसमें करीब सवा साल लगे इसके बाद अभी हाईकोर्ट में मामला जाएगा कुछ एक बरस वहाँ लगेंगे उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में कई साल लगेंगे फिर आखिर में राष्ट्रपति के पास याचिका का मार्ग है यानि कि अंतिम निर्णय राष्ट्रपति लेंगे(उस समय तक पता नहीं लेंगे या लेंगी नर हों या मादा या LGBT कानून पास हो जाने के कारण आधा-आधा) यानि कि हम तो बुढ़ा ही जाएंगे। सोचते हैं कि अगर अभी हम राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ साथ सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी,अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी, ठाकरे,बहुत सारे मुस्लिम नेता(?)जो कि मुसलमानों को अपने निजी स्वार्थ के लिये एक ही पट्टी पढ़ाते रहते हैं कि तुम इस देश में अल्पसंख्यक हो इसलिए तुम्हें अपने हक लड़ कर लेने होंगे ये देश और इसके कानून तुम्हारे हित में नहीं हैं, आदि आदि इत्यादि...... को अभी हत्या कर दें तो हमें फ़ाँसी देने में सारी प्रक्रिया में कितना समय लगेगा? तब तक हो सकता है कि हम अपनी कुदरती मौत से ही मर जाएं। बड़ा परेशान हूँ यार मुंबई के उस इलाके में रहने वाले अपने दोस्तों के घर जाने के रास्ते साले बंद से हो गए हैं यार दोस्त तो बिना कारण ही घरों में नजरबंद से हो गये हैं सब सरकार की मेहरबानी है। इस प्रक्रिया को समीक्षा की जरूरत है सिर्फ़ आलोचना काफ़ी नहीं है।
जय जय भड़ास
2 comments:
ऐसे खुराफ़ाती विचार आपके मन में आये, और अभी तक आपका एनकाऊंटर या डिटेंशन नहीं हुआ तो जनाब आप खुशकिस्मत हैं। :)
महाभाग आप धन्य हैं तो सम कौन.... आप इस विचार को यदि खुराफ़ात मानते हैं तो इसके साथ संलग्न विचार से भयभीत हैं जो कि हमारी लिबलिबी सी लचर न्याय व्यवस्था की तरफ इंगित कर रहा है या आप भी उस व्यवस्था के अंग हैं जो अपनी आलोचना या समीक्षा मात्र से हड़बड़ा जाता है??
डॉ.रूपेश श्रीवास्तव ने तो सिर्फ़ विचार रखा है एक विमर्श के लिये लेकिन जो लोग खुलेआम बेकुसूर जनता को मार देते हैं उनके साथ जो करा जाता है शायद आप उसके समर्थन में हैं तभी आपको डॉ.साहब खुराफ़ाती जान पड़ रहे हैं। धन्य है आपका वैचारिक षंढत्व.....
जय जय भड़ास
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