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ओशो रजनीश बने भड़ास के फैन क्लब के सदस्य वर्ष 2009 की शुरुआत से पहले ही.........
आज मुझे बड़ा ही सुखद आश्चर्य हुआ जब मैंने देखा कि भड़ास से मेरी,मोहम्मद उमर रफ़ाई और मनीषा दीदी की सदस्यता को बिना किसी बातचीत के बड़ी ही कुटिलता से समाप्त कर दिया गया लेकिन क्या करें मुंह मारने का अधिकार छीन लिया है फिर भी आदतन कुतिया की तरह से सूंघने तो चली ही जाती हुं। पंखों वाली भड़ास पर पाती हूं कि भगवान ओशो रजनीश पंखों में शामिल हो कर हवा दे रहे हैं। अब क्या करूं इस बात पर बिना कुछ कहे चुप रहा नहीं गया इतनी कुटिलता किधर से लाऊं कि बड़ी से बड़ी बात को पचा कर डकार भी न लूं ये तो शायद भड़ास के वणिक शिरोमणि ही कर सकते हैं। धन्य है पंखों का झुंड जिनमें ओशो शोभायमान हैं आजकल वैसे भी वहां बड़ा पवित्र माहौल है कुछ दिनों में हो सकता है कि भगवान राम भी भड़ास ज्वाइन कर लें अब ऐसे माहौल में हमारे जैसे पापी भला कहां पचेंगे तो हमारी सदस्यता रद्द करके अपना वर्ष २००९ शुभ बना लिया। चलो प्यार से बोलो जोर से बोलो दिल दिमाग खोल कर बोलो ........
जय जय भड़ास
और अब उगल दिया है तो राहत मिली थोड़ी लेकिन ये एसिडिटी रहेगी काफ़ी समय तक तो जब उल्टी होगी करूंगी जरूर क्योंकि पंखों की बैटरी को लगता है कि चुप्पी साधे रहो कुछ दिन में पगले अपने आप भौंक कर शांत होकर किसी मुद्दे को चाटने चले जाएंगे लेकिन अक्ल पर धूल पड़े पैसों की...... ये नहीं जानता कि जन्मजात भड़ासियों ने भड़ास की आत्मा चुरा कर उसे यहां पैदा कर दिया है। हम चोर, चूतिया, बुरे, महा कमीने लोग यहां आ गये अच्छे लोग पंखे बन कर वहां लटक गये।
जय जय भड़ास
स्वागतम! आगतम् नूतन वर्ष
झंकृत हृदय हमारा है। स्वागतम........
बीते पल जब तुम आए थे
ऐसा ही स्वागत पाए थे
होंठों से मुस्काए थे और
नज़रों से इतराए थे
तुम्हारा आगम कितना प्यारा है। स्वागतम....
ऐसे ही तुम आओ
अधरों पर हँसी खिलाओ
मन का गीत कोई गुनगुनाओ
नूतन सपना कोई सजाओ
ऐसा न्यारा ख्वाब तुम्हारा है। स्वागतम.....
मन की पीडा को हम भूलें
निर्झर लहरों में ही झूलें
उठ के असमान को छूलें
मरहम बन जायें सब शुलें
कैसा जीवन नृत्य तुम्हारा है॥
स्वागतम नूतन साल तुम्हारा है,
कैसा झंकृत ह्रदय हमारा है।
तुम्हारा आगम कितना प्यारा है,
ऐसा न्यारा ख्वाब तुम्हारा है।
नववर्ष की शुभकामना
जय जय भड़ास
साल २००८ कोल्कता और में
हलाकि साल के अंत में परम्परा स्वरुप आप साल की हर बड़ी खबर टीवी पर देखेंगे लेकिन एक साधारण आदमी (मैने) क्या देखा और याद रहा उसकी एक झलक.....
कोल्कता का वो निम्ताला घाट याद आया जहाँ डोम के बच्चे किसी धनि सेठ की अर्थी देख नाचने लगते थे..... आज अच्छा खाना जो मिलेगा उन्हें।
हावडा स्टेशन का राजू याद आया जो हुगली के घाट पर पीपल के नीचे रहता है , स्टेशन पर बोतल चुनता है, पानी के बोतल का आठ आना और कोल्दिंक्स के बोतल का चार आना, मोटी वाली आंटी इतना ही देती है ............बडे शान से बताता है कि 8 और 9 नम्बर प्लेटफोर्म उसका है ............... आगे बोलता है अभी 12 का हूँ न 21 का होते-होते 1 से 23 नम्बर प्लेटफोर्म पर बस वोही बोटेल चुनेगा।
टोलीगंज के मंटू दा याद आए जो सिंगुर काम करने गए थे ...... वापस लोट आए ........ बोलते हैं हस्ते हुए ...काजटा पावा जाबे.....57 के मंटू दा आपनी मुस्कराहट में दर्द छिपाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। पाँच कुवारी बेटिया, तीन की उम्र 30 के ऊपर है।
आज जब रात को हम सभी न्यूज़ रूम से साल भर की खबरे देख रहे होंगे तो हमे वो डोम के बच्चे, वो स्टेशन का राजू, टोलीगंज के मंटू दा नही दिखेंगे।
मै मुर्दा बोल रहा हूँ....
आयुर्वेद के क्षेत्र में गधे पंजीरी खा रहे हैं...
जय जय भड़ास
आया...आया....गुरुभाई........ पंगा लेना ना प्यारे
हिंद युग्म के सफल वार्षिकोत्सव में अपमानित हुई हिन्दी.
जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ हिंद युग्म के वार्षिकोत्सव का जो परसों ही दिल्ली के आई टी ओ स्थित हिन्दी भवन में संपन्न हुआ और छोर गया अपनी दरिद्रता की छाप अपने बैसाखीधारी लाल से।
कार्यक्रम की शुरुआत दो बजे से होनी थी और शायद शुरू भी हुई होगी मगर मैं अपने सप्ताह भर के काम काज को निपटा कर चार बजे के करीब हिन्दी भवन पहुँचा। तीसरे माले पर धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में सभा चल रही थी मगर मेरा ध्यान तो सिर्फ़ अपने मित्रों को ढूंढने पर था सो एक कोने में जा कर बैठ गया और इधर उधर निगाह के साथ मंच पर चल रही वाचन कार्यक्रम में भी झाँकने लगा। मैं जब सभागार में पहुंचा तो डॉ॰ सुरेश कुमार सिंह बोल रहे थे, मैं ना तो इन्हें जानता था और ना ही जानने का इक्क्षुक मगर इनके संवाद ने मुझे इनकी और आकृष्ट किया, ये हिंद युग्म के अतिथी में से थे और भाषाई गरीबी के बावजूद तालियाँ प्राप्त कर रहे थे। प्रबंधन का पाठ्यक्रम (दुकान) करवाने वाले ये महोदय इसमें हिन्दीकरण की बात करके ताली तो बटोर गए मगर हिन्दी की सभा में हिन्दी की छाती पर अंग्रेजियत का कील बार बार ठोंकते रहे, क्यूंकी महोदय के पास हिन्दी के बीच में अन्ग्रेज़ी घुसाने के अलावे कोई चारा ना था (या फ़िर हमें अन्ग्रेज़ी भी आती है का मुगालता), मगर इनसे ये प्रश्न करने वाला कोई नही कि प्रबंधन हिन्दी में करके क्या हमारे युवकों को पताका बीडी बेचने की नौकरी मिल सकती है या हिन्दी के नाम पर अपने दूकान को बेच रहे थे?
उसके बाद प्रो भूदेव शर्मा जी आए जो जे॰पी॰ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, नोएडा में गणित के प्रोफेसर हैं और नब्बे के दशक में अमेरिका में हिन्दी साहित्य का प्रचार-प्रसार करने में अग्रणी (ऐसा हिंद युग्म के द्वारा कहा गया था मगर क्या सच में ये प्रचार प्रसार में थे ये सोचनीय था ?) थे और इनकी संवेदनशीलता ने प्रभावित भी किया मगर हिन्दी को सुई चुभोने का काम, भाषा के प्रचार प्रसार में रहने वाले ने भी हिन्दी में अंग्रेजियत को जारी रखा और बीच बीच में हिन्दी की छाती पर कील भोंकते रहे।
इन दोनों को सुनने के बाद मैं सभागार से बाहर चला गया क्यूंकी और मेरी सहन शक्ती जवाब दे चुकी थी, भड़ासपन से मजबूर दिल कर रहा था की सभी वक्ताओं को बीच बीच में टोकुं मगर दिल का गुबार बाहर जा कर ठंडी हवा के साथ निकाल और बेसब्री से इन्तजार करने लगा प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव का। इस बीच मसखरी की सहेली को संक्षिप्त संदेश से सूचित किया की मैं मौजूद हूँ और बस आपके पीछे और इस संदेश का उलाहना मुझे सभा के बाद दिया गया।
वरिष्ट साहित्यकार, हंस पत्रिका के सम्पादक श्री राजेंद्र यादव बड़ा सम्मान था इनके लिए मेरे मन में या फ़िर यूँ कहिये की बाबा नागार्जुन की धरती मिथिला, साहित्यिक संपदा से परिपूर्ण मिथिला, माँ मैथिली की भाषा मैथिली के साथ साथ हिन्दी की समृद्धता से सराबोर मिथिला का ये कपूत साहित्य का बड़ा प्रेमी है ओर इनके लिए बड़ा सम्मान भी रखता है मगर आदतन भाषा के साथ छेड़ छाड करने वाले के लिए कोई सम्मान नही कोई आदर नही क्यूंकी माँ का अपमान बर्दास्त नही। यादव जी के आगे बोलने वाला भोंपू ओर यादव साहब ने बोलना शुरू किया, ओर उनके मुंह से शब्द बाहर आते ही घोर निराशा के साथ मन वितृष्णा से भर गया। भाषा ओर साहित्य की सारी जिन्दगी चने चबाने वाले यादव जी आज भी मंच पर थे तो उसी हिन्दी की वजह से जिसका मखोल उन्होंने उड़ाया। अंग्रेजियत के नशे में वो साफ़ दीख रहे थे ओर दांतों से दबा सिगार जैसे हिन्दी का पैरोकार हिन्दी का चीरहरण होते देख धृतराष्ट्र की तरह मुस्कुरा रहा हो। क्या हमारे हिन्दी के मठाधीश ऐसे ही होते हैं ?
हिंद युग्म या हिन्दी युग्म पर रोशिनी युग्म ही डालेगा मगर हिंद युग्म लिखने वालों ने सब जगह हिन्दी युग्म को संबोधित किया, क्या आप अपना नाम भूल गए या जान बुझकर....... तमाम वक्ताओं ने युग्म का नाम ग़लत उच्चारित किया शायद कोई युग्म वाला ही इस पर रोशिनी डालेगा। मगर शैलेश के ब्लॉग सम्बंधित प्रदर्शन के बाद कुछ लोगों ने जो प्रश्न किए वो फ़िर से एक बार हिन्दी के दर्शक ओर पाठक की बुद्धिजीविता पर प्रश्न चिन्ह लगा गया, क्या हमारे हिन्दी वाले सच में इतने जाहिल हैं?
युग्म की इस वार्षिकोत्सव का एक मात्र सकारात्मक पहलु रहा वो नव पल्लव का कविता वादन। शोभा महेन्द्रू, मनुज मेहता,ओर रूपम चोपड़ा ने क्यार्क्रम की सार्थकता को साबित किया जिसे निरर्थक बनने में बड़े नामों ने कोई कसर नही छोड़ी।
प्रश्न अपनी जगह कायम है, राजेंद्र जी के शब्दों को माने तो क्योँ ना हम राजेन्द्र जी ओर उन जैसे बुजुर्गियत वाले साहित्यकार के साथ घर के भी बुजुर्गों को बाहर का रास्ता दिखा दें, आधुनिकता शायद राजेन्द्र जी ने ये ही सीखा ओर अपने भावी पीढी को सीखा भी रहे हैं।
राजेंद्र जी आप से हिन्दी शर्मिन्दा है, ओर कष्ट में भी की आप हिन्दी के पुत्र हैं।
माफ करना कलाम जी
डॉ रुपेश जी एक लंबे अरसे से अवैध जहरीली शराब के खिलाफ लडाई जारी रखे हैं
आप लोग जानते होंगे कि अपने डॉ रुपेश जी एक लंबे अरसे से अवैध जहरीली शराब के खिलाफ लडाई जारी रखे हैं जिसमे कि वे कई बार मारे पीटे गए लेकिन अगर पंगेबाजी में नोबल पुरूस्कार मिलता तो इन जनाब को लगातार मिल रहा होता। अभी कुछ दिनों पहले फिर से जब शराब माफिया ने राजनैतिक सहयोग से जड़ पकड़नी शुरू कर दी तो हमारे जनाब ताव में आ गए कि भला मैं दारु नही पीता तो बाकी उन लोगो को क्यों पीने दूँ जो ख़ुद ही मरना चाहते हैं। अभी हाल ही में हमारे जिले में इसी शराब से कई मौते हो गई थी तो जनाब दुखी हो गए और लग गए धंधे पर एक बार फिर से बंद कराने के लेकिन इस बार पंगा ज़रा बड़ा है क्योंकि इस बार स्थानीय कार्पोरेटर के रिश्तेदार लपेट में आ गए हैं। दुनिया बनाने वाला दारु पीने वालो को अक्ल दे और हमारे डॉ साहब को ऐसे ही साहस और ताकत......लीजिये मेरे मोबाइल से खिंची इस अस्पष्ट तस्वीर पर नजर मारिये जो आज के नवभारत टाईम्स में छपी है इसमे आप देख सकते हैं स्थानीय कार्पोरेटर के रिश्तेदारो के नाम ......... कार्पोरेटर सुनील गोविन्द बहिरा फुल खुन्नस में है लेकिन क्या करे हमारे डॉ साहब तो पिटाई प्रूफ़ हो चुके हैं मार पीट का असर ही नही होता इन पर कितना तो पिट चुके हैं इस मिशन में पर बाज नही आते।
हिन्दी का चीरहरण किया राजेन्द्र यादव ने.......
राजेन्द्र जी :- हिन्दी की रोटी या हिन्दी का सिगार, अक्षम्य अपराध, शर्मिन्दा है हिन्दी
हिंद युग्म की साथी और हिन्दी की अध्यापिका श्रीमती शोभा महेन्द्रू जी का दर्द उनके ही शब्दों में.............
हिन्दी की सेवा करने वाले और उसी की कृपा से विख्यात यशस्वी साहित्यकार को देखने और उनको सुनने को मैं बहुत उत्सुक थी। यह सुअवसर मुझे कल २८ दिसम्बर को हिन्द-युग्म के वार्षिक उत्सव में मिल गया। मैं बहुत उत्साहित थी। मेरा उत्साह कुछ ही देर में क्षीण हो गया। माननीय अतिथि बड़े गर्व से सभा में सिगार पी रहे थे। मैं हैरान होकर सोच रही थी-क्या ये वही देश है जहाँ एक एक कलाकार ने केवल इसलिए गाने से इन्कार कर दिया था कि राजा पान खा रहा था। कला के पारखी क्या इतना बदल गए हैं? अपनी संस्कृति कहाँ गई? और हम सब अतिथि देवो भव का भाव रख मौन देख रहे थे।कार्यक्रम की समाप्ति पर जब उन्होने बोलना शुरू किया तब मुझपर तो जैसे बिजली ही गिर गई। उन्होने कहा- आधुनिक तकनीक का प्रयोग करने वाले साहित्यकारों को अपने विचारों में भी आधुनिकता लानी चाहिए। हिन्दी के प्राचीनतम रूप और उसके प्राचीन साहित्य को अजाबघर में रख दो। उसकी अब कोई आवश्यकता नहीं। आज एक ऐसी भाषा कली आवश्यकता है जिसे दक्षिण भारतीय भी समझ सकें। एक विदेशी भी सरलता से सीख सके। अपनी बात के समर्थन में उन्होने कबीर का सर्वाधिक लोकप्रिय दोहा- गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े पढ़ा और उसका विदेश में रह रही महिला द्वारा भावार्थ बता कर मज़ाक उड़ाया। फिर कहा- ऐसी भाषा की अभ कोई आवश्यकता नहीं। इसे अजायबघर में रख दो। अपनी भाषा की सम्पन्नता, उसकी समृद्धि पर गर्व छोड़ उसे दरिद्र बना दो। अपाहिज़ बना दो। एक ऐसी भाषा बना दो जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं। उन्होने हिन्दी साहित्य को भी आज के समय में व्यर्थ बताया। कबीर, प्रेमचन्द आदि का आज कोई महत्व नहीं। मुख्य अतिथि बोलते जा रहे थे और मेरे कानो में भारतेन्दु की पंक्तियाँ - नुज भाषा उन्नत्ति अहै सब उन्नत्ति को मूल गूँज रही थी। यह आधुनिकता है या अन्धानुकरण? संसार की सर्व श्रेष्ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिन्दी तो स्वयं ही वैग्यानिक भाषा है, सरल है तथा अनेक भाषाओं को अपने भीतर समेटे है। फिर सरलता के नाम पर उसे इतना दरिद्र बना देने का विचार????????? और वह भी एक ऐसे साहित्यकार के मुख से जो हिन्दी भाषा के ही कारण सम्मानित हैं-अगर ऐसी बात किसी विदेशी ने कही होती तो मैं उसको अपनी भाषा के अतुल्य कोष से परिचित कराती किन्तु इनका क्या करूँ? हिन्दी और हिन्दी साहित्य के लिए ऐसे अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करने वाले शब्द शीषे के समान कानों में गिरे। हिन्दी की सेवा करने वालों को सम्मिलित रूप से इस तरह के भाषणों का विरोध करना चाहिए। अपनी भाषा की उन्नति होगी किन्तु उसे दरिद्र बनाकर नहीं। हिन्दी का प्राचीन साहित्य अजायबघर में रखने की बात करने वाला स्वयं ही अजायबघर में रखा जाना चाहिए। अपनी भाषा का अपनमान हमें कदापि स्वीकार नहीं। मैं सारे रास्ते यही सोचती रही कि ऐसे लोगों का सामाजिक रूप से बहिष्कार करना चाहिए- जिनको ना निज भाषा और निज देश पर अभिमान है, वह नर नहीं नर पशु निरा और मृतक के समान है।
जय भारत जय
साला चोर कहीं का...मारो इसको/इसकी..कमीना शब्दचोर
09224496555, मेरा ई-मेल rudrakshanathshrivastava7@gmail.com , मेरा ब्लाग - http://aayushved.blogsopt.com
जितनी गालियां चाहें दे/प्यार देना चाहें दे सकते है मुकुन्द ने जो करा उसके लिए उसको इतनी गालियां दीजिये कि आप द्वारा दी गयी गालियों को संग्रह कर एक नयी किताब प्रकाशित करा सके
आत्मन अंकित ने जो लिखा वह अंग्रेजी में है तो समझना कठिन है आशा है अगली बार वे हिंदी में लिखेंगे तो मुझ देसी पिल्ले की समझ में आ सकेगा और रही बात बेनामी, अनामी, गुमनामी की तो आपको बस इतना बताना था कि कम से कम जो खुल कर गालियां दे पाने का साहस था, लेकिन ध्यान रहे गालियां मौलिक हों मादर-फादर छाप परम्परागत गालियों को हमने कापीराइट करा लिया है अतः उन्हें प्रयोग नहीं करें:)
जय जय भड़ास
2008 में जिसे नीचता कहते थे 2009 में उसे अच्छाइयों में गिनवा लूंगा
दुनिया के सबसे बड़े हिंदी ब्लाग का "मादररेटर"
(ये मादररेटर शब्द मुझे बड़ा उचित लगा इस संदर्भ में यानि मां का मोल लगाने वाला)
राष्ट्रवाद और मनीषा दीदी के जन्मोत्सव की प्रासंगिकता
फिर शहीद हुवे हम 29/11/08
माँ बाप खाली दामन तकते,
फिर कोई फूल चमन से
फिर चमन किसी फूल से
आज महरूम हो गया है ,
फिर पड़ी दरारें आपस में
फिर किसी ने उगला ज़हर है,
फिर खेली गयी होली खून की
फिर शहीद हुवे
भगत चंद्रशेखर अशफाक ,
रोको इन दह्शद-गर्दों को
ये देश की अंधी राजनीति के
पेट से पैदा कुछ कीड़े हैं,
देश बेचने वालों के
ये अन्न दाता हैं
जागो भारत की अब
हम टूटने की कगार पर हैं ,
एक क्रांति और पुकार रही है
सुनो इस पुकार को
आज़ाद करा लो देश
आओ एक बार फिर से
हम सिर्फ क्रांतिकारी बने
एक बार फिर से हम
देश में बदलाव के लिए
संघर्ष करें......,
apka हमवतन भाई गुफरान(AWADH PEPULS FORUM FAIZABAD)
डाक्टर रुपेश श्रीवास्तव का पुनर्जन्म.........
पिछले दिनों भड़ास पर इनकी मृत्यु हो गयी थी तब से ये महोदय ब्लॉग संसार से गायब थे, और इनका गायब होना कई लोगों को साल रहा था की भैये हमारे रुपेश कहाँ गए, कई लोगों को तो रुपेश के मरने से चड्ढी तक परसंकट लग रहा था क्यूंकि ये चड्ढी उतरने में भी महारथ रखते थे। भड़ास पर असमय कालकलवित हो रहे लोगों की लिस्ट देख कर पशोपेश में तो मैं भी था की मेरी मृत्यु भी असमय ही ना हो जाए। मगर अब इसका डर नही।
मैं पुनर्जन्म में विश्वास नही रखता था मगर हमारे डाक्टर साहब कहते थे की वो मर कर भी भड़ास भड़ास करते रहेंगे और उनका कहना सच साबित हुआ, मौत के बाद भी भुत ने अपने होने का एहसास कराया मगर भड़ास का जूनून और नशा क्या ऐसा हो सकता है की मृत आत्मा सिर्फ़ भड़ास के लिए फ़िर से जन्म ले ?
तो मित्रों आपके इन्तजार का पल ख़तम हो गया और भूत ने पुनर्जन्म लिया है, आप सदैव रुपेश जी के आक्रामक अंदाज और चुटकीले भड़ास से यहाँ रु ब रु होते रहेंगे। बस आपको भड़ास के यु आर एल में थोडी सी तबदीली करनी होगी और (http://bharhaas.blogspot.com/) ये लिखना होगा।
हम तो बस जय भड़ास, जय जय भड़ास का घोष करते हैं।
जय जय भड़ास
पाक की नापाक नौटंकी
‘ग्लोबल ट्रेंड्स 2015’ नाम से बुश प्रशासन को आगाह करती अपनी रिपोर्ट में सीआईए ने कहा है कि परंपरागत सैन्य क्षमता के हिसाब से भारत अपने पड़ोसी देश के मुकाबले बढ़त पर है। इसके अलावा भारत आर्थिक रूप से भी पाक से कहीं अधिक सक्षम है।
एटमी हथियारों की होड़ :
रिपोर्ट के अनुसार, भारत जल्दी ही अपने परमाणु जखीरे में बढ़ोतरी कर सकता है। पाकिस्तान भी इसी की देखादेखी परमाणु मिसाइलों की तैनाती करेगा। सीआईए का मानना है कि खनिज तेल की अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए भारत फारस की खाड़ी के देशों से अपने रिश्ते मजबूत करेगा, ताकि अरब देशों से पाक के रिश्तों में संतुलन स्थापित किया जा सके।
उबर नहीं सकेगा पाक :
भविष्य के विश्व परिदृश्य का आकलन करते हुए सीआईए ने कहा है कि पाक राजनीतिक, आर्थिक कुप्रबंधन से दशकों तक नहीं निकल पाएगा।
इसके अलावा घरेलू स्तर पर जंगल राज, भ्रष्टाचार और गुटीय संघर्ष से भी पाकिस्तान के उबरने की संभावना कम है।
‘सैन्य क्षमता में बदलाव ही भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध का जोखिम निर्धारित करेगा।’
- सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी (सीआईए)
मुफ़्त विज्ञापन वाहिनी बनी हुई मुंबई की लोकल ट्रेनें और पुरुष-वेश्या का विज्ञापन
हम सब शामिल मनीषा दीदी के जन्मदिन पर परम्परागत तरीके से.......
हमारी प्यारी मनीषा दीदी के जन्मदिन की तैयारियां शुरू हुई जीसस क्राइस्ट के जन्मदिन की सुबह से..........
भूमिका का पंटर और अटल बिहारी दोनो कवि हैं
भाई भड़ासी जनों सक्सेस मंत्रा जी ने अटल बिहारी जी की कविता पोस्ट करी है लेकिन मुझ नादान को कविता की समझ तो है नही लेकिन अपनी-अपनी पसंद की बात है तो भूमिका दीदी की लिखी कविता आप लोगों की नजर कर रही हूं जरा इसे बाजपेयी जी की कविता से तुलना कर के भड़ासाना अंदाज में मजा लीजिये
http://bharhaas.blogspot.com/2008/11/blog-post_6702.html
क्या खोया क्या पाया जग में(अटल जी की कविता)
सुबह की तलाश में
नई सुबह की तलाश करता
रात को भी और दिन को भी।
आज भोर में ही नींद
गायब हो गई आँखों से
कमरे का सन्नाटा मुझे
अब भी सोने के लिए कहता
अंधेरों से बातें करता मै
न जाने कब सो गया
सुबह आई और चली गई
फिर नई सुबह की तलाश में
दिन के उजाले से लड़ता
बढ़ता रहा अनजान राहों पर
धुन्धुलका छाने लगा था
आसमान में,
पंछी डेरे में लौटने लगे थे
और मैं नई सुबह की
तलाश में रास्ता भटक गया हूँ
अँधेरा घिर आया है चाहुओअर
शोर है सिपाया बिल्कुल नही
शायद नई सुबह आने को है
जीवन तरंगों में उलझा सा
आज भी नई सुबह की तलाश करता हूँ.......
दिल्ली से गुडगाँव, डी टी सी की अनकही......
रोजमर्रा को आत्मसात करता हुआ रोजाना ही अपने दैनिक गतिविधि से अपने को मिलाने की कोशिश कर रहा था कि दिल्ली के डी टी सी बस के कर्मचारियों की हरकतों ने अचानक ही आकर्षित किया।
डी टी सी की ये आपा धापी दिल्ली कि रोजमर्रा है, लोगों की मुसीबत, सरोकार किसी को नही।
दिल्ली से गुडगाँव के लिए रोजाना सैकडों बसें चलती हैं, स्थानीय वाहन की तादाद भी भारी मात्रा में है जो लोगों के गमन का साधन है, सो लोगों की भीड़ में मैं भी शामिल हो गया। वाहन की इतनी ज्यादा तादाद होते हुए भी लगता है की कहीं कुछ कमी है और भी होना चाहिए और उत्तर की तलाश में ख़ुद अपने आप से मंथन करता हुआ अपने गंतव्य को रवाना हो जाता। बस ऐसे ही अपनी यात्रा के दौरान एक बार मैंने देखा बस में बड़ा शोर शराबा हो रहा है अपने मंथन से बाहर निकला तो देखता हूँ की टिकट को चेक करने वाले साहिबानों का हुजूम है और इनके कारण ही बस में बेपनाह शोर मची हुई है। देखा की कुछ लोग बिना टिकिट के थे शायद या फ़िर टिकिट कम के बना रखे थे सो उनपर सौ रूपये जुर्माना होना था और ये बड़ी बात भी नही जो आकर्षित कर सके क्यूँकि आपकी गलतियों का खामियाजा आपको ही भुगतना है। आकर्षित सिर्फ़ इस बात से हुआ की डी टी सी की जहालत सब जगह दिख पड़ती है जब इसके कर्मचारी बस में सफर करने वाले को पता नही क्या समझते हैं, कंडक्टर और चेकर की बदतमिजी का मैं प्रत्यक्ष गवाह अपने आप पर काबू न रख सका और इन लोगों से उलझ पड़ा।
उलझने का सिर्फ़ एक कारण जो मैंने इनको बताया जो शायद इनको हजम नही हो रहा था और इन्हें ही नही किसी भी सरकारी कर्मचारी, पदाधिकारी को नही होता है कि ये मानते ही नही कि ये आम लोगों के नौकर हैं। सरकारी नोकर हैं। इन्हें लगता है कि सरकारी मतलब तानाशाही, जो दिल करे जैसा दिल करे करो। कोई क्या कर लेगा। और वो अनपढ़ सा मजदूर सरीखे दिखने वाला मेरा गरीब सहयात्री इनके कोप का भाजन बन रहा था। मैं उठ कर खड़ा हो गया और कहा कि जो भी है आप पर्ची काटो या इसे पकड़ कर ले जाओ मगर तहजीब से, आप बदतमीजी से क्योँ पेश आ रहे हो? उस पर सारे स्टाफ बिदक गए और मुझे पर लगे हावी होने, पाठ पढाने जो हम पढने से रहे, हमारा पारा भी बढ़ता चला जा रहा था सो हम भी हत्थे से उखड गए और आवाज जरुर तेज हो गयी मगर धैर्य नही खोया और भाषा भी संतुलित ही। और उन महाशय को सिर्फ़ इतना ही समझाया कि महोदय आप सरकारी नौकर हो यानी कि इस बस के सभी यात्री के नौकर हो और इनके दिए दस रूपये से डी टी सी के साथ साथ आपकी तनख्वाह भी आती है, आप सिर्फ़ अदब से बात करें, और अपने मोबाइल से एक दो फोटो ले ली इन महाशयों की कि ये फोटो के साथ ब्लॉग पर लगाऊंगा।
फोटो लेते देख शायद इन महानुभावों को हमारे छपासी होने का भान हुआ और भाषा भी नम्र हुई और आगे चुपके से खिसक भी लिए। बदकिस्मती से मेरी मोबाइल ही खो गयी और इन महोदय के अलावा भी बहुत सारी ब्लागचर्चा मोबाइल के साथ ही गुम हो गयी। उनके जाने के बाद मैं भी लोगों पर एक सरसरी नजर डालते हुए खामोशी के साथ वापस अपने सीट पर धंस गया। आँखें मूंद कर वापस विचारों के भंवर में कि क्योँ सरकार, सरकारी तंत्र, और लोकतंत्र के हाथी के दांत यानि की चारो पाये आम आदमी को सिर्फ़ निचोड़ना जानते हैं, और सारे अधिकार रखने वाला आम अपने को इन के हाथों निचुड्वाकर भी खुश है.
बस इसी चिंतन में अपने अगले यात्रा की और बढ़ चला।
लंठ लंठई और लंठाधिराज
जय भड़ास जय जय भड़ास
मेडिकल ब्लागिंग करने वालों क्या E.T.G. के बारें में चर्चा करने से डरते हो????
मैं इस पोस्ट के द्वारा साइबर स्पेस में हिंदी के खांचे में मेडिकल का पुछल्ला पकड़ कर अपनी विद्वता की उल्टियां करने वाले सारे ब्लागरों को गरियाता हूं कि कम से कम तुम तो साहस दिखाओ या बस जीवन का सामाजिक संदर्भ बस यही है कि अपनी ही उंगली सूंघो और कहो कि इसमें जरा ही बदबू नहीं है क्योंकि मैं तो गुलाब और केवड़े के फूल खाता हूं। लिखो वरना थू है तुम्हारी ब्लागिंग पर....।
भारतीय पत्रकार का चला खर्चा इराकी जूते से
सबसे ज्यादा जलजला तो हमारे हिन्दुस्तानी मीडिया के हाथ लगा, आख़िर हो भी कैसे नही, हिन्दुस्तान की सरकार के क़दमों चिन्ह पर चलते हुए हमारी मीडिया सब कुछ के लिए अमेरिका का मोहताज जो हो जाती है, राजनेता की तरह पत्रकारिता के भी दामाद अमेरिका जो ठहरे, सो बस जूता ही जूता-मौजा ही मौजा। जूता से स्वागत
सबसे हद तो भारत के पत्रकारों ने कर दी, बेचने की होड़ और लाला जी की सेवा में सदैव तत्पर ये पत्रकारों की जमात ने जुटे और जैदी की कवायद तो शुरू की मगर नजरिया सिर्फ़ व्यावसायिक ख़बर बेचना, लोगों की भावना बेचना, संवेदना बेचना और बेचना अपनी पत्रकारिता को।
जूते को बेचा, बुश को बेचा मगर क्या पत्रकारिता पर खड़े उतरे ?
क्या ये पत्रकारिता के साथ इन्साफ कर रहे हैं ?
क्या व्यवसाय की होड़ में लाला जी की दुकानदारी के ये चाकर लोगों की जुबान बन रहे हैं ?
ख़बर के नाम पर मनोरंजन और बेस्वाद व्यंजन पडोसने वाले इन पत्रकारों ने जैदी के लिए मुहीम चलायी है ?
कहाँ है जैदी?
क्या हो रहा है जैदी के साथ?
प्रश्न बहुत सारे हैं मगर जवाब देने वालों में पत्रकार नही क्यौंकी इन्हें इन्तेजार है अगला जूता कौन फेंकेगा, हमारी एक्सक्लूसिव और फुटेज कैसे बनेगी।
प्रश्न है मगर अनुत्तरित ?
हम है राही प्यार के फ़िर मिलेंगे, चलते चलते.
उठकर सोफे पर बैठ गया, सरदी की शाम फ़ैल नही सकता सो बैठा भी सिकुड़ कर ही था, चाय सुड़कते हुए पाँच एक मिनट बीते होंगे कि वापस भाई की जोर की आवाज जल्दी से तैयार हो जाओ समय हो गया है लेट हो जाएँगें, सो फटाफट चाय खत्म की थोड़ा सा फ्रेश हुआ (सरदी थी सो ज्यादा होने की हिम्मत नही थी) और कपड़े सपडे बदल कर हो गया तैयार, तब तक में हमारा एक और भाई जो बगल में रहता है आ चुका था। फ़िर सबने साथ ही बताया कि भाई जल्दी से चलो मैंने सुबह ही "रब ने बना दी जोड़ी" की टिकट अनुपम में बुक कर दी थी और पौने सात की शो है सो जल्दी निकलो।
मैं अमूमन सिनेमा से दूर ही रहता हूँ, वजह बहुत सारी जिनका जिक्र करूंगा तो दो तीन पोस्ट बन जायेंगे सो ये किस्सा फ़िर कभी। हमने ऑटो की और पहुँच गए साकेत। सालो बाद अनुपम पर गया था सो कुछ नयी पुरानी यादों के साथ बदला हुआ अनुपम एक अपनेपन का एहसास दे रहा था और रंगीनियों के साथ मस्ती भी।
अनुपम में सुरक्षा जांच से लेकर अपने सीट तक जाने में पढाई के ज़माने की याद को ताजा करते हुए जा कर सीट पर धंस गया और इन्तज़ार करने लगा सिनेमा के शुरू होने का। शुरूआती विज्ञापन और आनेवाली सिनेमाओं की झलकियों के बाद मेरे चित्रपट की भी बारी आ ही गयी, और फ़िल्म से पहले हो रहे इन छोटे मोटे हलचल की बोरियत से निजात भी।
अमूमन फिल्मों से दूर रहने वाला मैं शाहरुख़ के सिनेमा से अपने को ज्यादा दूर नही रख पाता सो व्यस्त हो गया परदे पर हो रही हलचल के साथ। आम आदमी पर आधारित यह कहानी बदलते परिवेश में कितना सटीक बैठती है के लिए मुझे ज्यादा सोचना नही पड़ा, क्योंकि परदे पर हो रही हलचल और उसपर सामने दर्शकदीर्घा में हो रही चहलपहल सब कुछ बयां कर रही थी।
दोहरे चरित्र को जी रहा सुरिंदर साहनी या ज़माने के हिसाब से बदला राज कपूर, किसकी पसंद कौन ज्यादा बताने की जरुरत नही की दर्शक दीर्घा से हो रही चपर चपर ही दर्शकों के क्षद्म चरित्र का पोल खोल रही थी, मन व्यथित हुआ जा रहा था, कि क्या आज के दौर में आम होना गुनाह है, अगर आप आम हैं, संवेदना के अथाह सागर है, प्रेम का समागम हैं, लोगों की परवाह है यानी की आप सुरिंदर साहनी हैं जिसकी अहमियत सिर्फ़ पंजाब पावर तक सिमटा हुआ है, जिसकी भावना और अभिव्यक्ति की शून्यता लोगों को बिजली के आने जाने की तरह लगती है, मगर उसी साहनी का राज बदल कर लोगों को लुभाना यानी कि समयचक्र के साथ आम का घटता अहमियत सामने आ रहा था, सोच में था कि शायद इसी कारण से लोगों में दिखावे की भावना का जन्म हुआ और ये ही आज चरम पर है, व्यक्तिगत समस्या हो या पारिवारिक, सामजिक हो या धार्मिक बस दिखावा ही दिखावा और ये ही लोगों की पसंद भी, भले ही ये आपकी ज़िन्दगी को दो से चार राहों पर ले जाए. फ़िल्म समाप्त होते होते दुखी और थोड़ा सा मन चंचल भी हो गया, शायद अपनी इन्हीं संवेदनाओं के कारण मैं सिनेमा से परहेज करता हूँ. तुझमे रब दिखता है , यारा मैं क्या करुँ ? ये अनुत्तरित प्रश्न आज के ज़माने में शायद अनुत्तरित ही रहेंगे क्योंकि किसी को किसी में रब नही दिखता, अपने जीवन स्तर को बढ़ाने के लिए किसी का भी बलिदान मंजूर है चाहे वो रब ही क्यों ना हो।
फ़िल्म में आए "तुझमे रब दिखता है , यारा मैं क्या करुँ ?" के गाने में दिए गए संदेश को भी किसी ने नही देखा पढ़ा या रुचा होगा, आख़िर हम सिनेमा जा रहें हैं फालतू मैं अलक लगा कर सरदर्दी मोल क्योँ लें। मगर जिस तरह से इस गाने में सभी धर्मों के प्रति आस्था दिखाई गयी है, सभी में श्रद्धा और विश्वास दिखाया गया है प्रसंशनीय है, साभार हमारी इस मीडिया का, कमोबेश इसी प्रवृत्ति के कारण खबरिया मीडिया ने भी लोगों के आशा के अनुरूप ही खिचडी और चटनी परोसनी शुरू कर दी है।
जिंदगी की असली किताब !!!
वेंगसरकर के भोंकने के बाद ही
जब भैंस दूध दे कम ,चारा खाये ज्यादा ।
जब खुसी हो कम ,आँसू हो ज्यादा ।
जब दमखम वाले नेता हों कम आतंकवादी हों ज्यादा ।
सिलिण्डर हो कम ,लाईन हो ज्यादा ।
अटल जी हों कम, अंतुले हो ज्यादा ।
फिर भी हौसला रखें क्योंकि ,
कितनी भी काली रात हो सवेरा अवश्य होता है ।
9999 गलती के बाद ही ऐडीसन बल्ब बनाते हैं ।
दसवीं फेल होने के बाद ही आईनस्टीन जैसे वैज्ञानिक बनते हैं ।
वेंगसरकर के भोंकने के बाद ही द्रविड़ सतक बनाते हैं ।
हम भड़ासिन शिक्षिकाएं
इराक के पत्रकार का जूता,भारत के पत्रकारों का जेब खर्च !
सबसे ज्यादा जलजला तो हमारे हिन्दुस्तानी मीडिया के हाथ लगा, आख़िर हो भी कैसे नही, हिन्दुस्तान की सरकार के क़दमों चिन्ह पर चलते हुए हमारी मीडिया सब कुछ के लिए अमेरिका का मोहताज जो हो जाती है, राजनेता की तरह पत्रकारिता के भी दामाद अमेरिका जो ठहरे, सो बस जूता ही जूता-मौजा ही मौजा।
जूता से स्वागत
सबसे हद तो भारत के पत्रकारों ने कर दी, बेचने की होड़ और लाला जी की सेवा में सदैव तत्पर ये पत्रकारों की जमात ने जुटे और जैदी की कवायद तो शुरू की मगर नजरिया सिर्फ़ व्यावसायिक ख़बर बेचना, लोगों की भावना बेचना, संवेदना बेचना और बेचना अपनी पत्रकारिता को।
जूते को बेचा, बुश को बेचा मगर क्या पत्रकारिता पर खड़े उतरे ?
क्या जैदी जैसा जज्बा, जोश और पत्रकारिता है हमारे देश के पत्रकारों में ?
क्या ये पत्रकारिता के साथ इन्साफ कर रहे हैं ?
क्या व्यवसाय की होड़ में लाला जी की दुकानदारी के ये चाकर लोगों की जुबान बन रहे हैं ?
ख़बर के नाम पर मनोरंजन और बेस्वाद व्यंजन पडोसने वाले इन पत्रकारों ने जैदी के लिए मुहीम चलायी है ?
कहाँ है जैदी?
क्या हो रहा है जैदी के साथ?
प्रश्न बहुत सारे हैं मगर जवाब देने वालों में पत्रकार नही क्यौंकी इन्हें इन्तेजार है अगला जूता कौन फेंकेगा, हमारी एक्सक्लूसिव और फुटेज कैसे बनेगी।
प्रश्न है मगर अनुत्तरित ?
हिंदी ब्लागिंग ने दिया हिजड़ा होने का दंड/भड़ास से लैंगिक विकलांग मनीषा नारायण सहित तीन की सदस्यता समाप्त
वैसे भी मैंने जीवन में इतने दुःख तकलीफ़ और तिरस्कार को भोग लिया है कि अब तो यदि कुछ भी ऐसा हो तो कोई आश्चर्य नहीं होता लेकिन अब भी कहीं मन में कुछ मानवीय कमजोरियां शेष हैं जिनके कारण मैं कुछ स्थायी धारणाएं बना लेती हूं किसी भी व्यक्ति के बारे में, मुझे याद आते है वो दिन जब लगभग साल भर पहले मुझे भाई डा.रूपेश श्रीवास्तव अपने घर लेकर आये थे किस तरह हाथ पकड़ कर कंम्प्यूटर पर जबरदस्ती बैठाया था मैं डर रही थी कि कहीं कुछ खराब न हो जाए। हिंदी कम आती थी बस कामचलाऊ या फिर हिंदी में दी जाने वाली गन्दी गन्दी गालियां। भाई ने टाइप करना सिखाया तो अजीब लगा कि अंग्रेजी के की-बोर्ड से हिंदी और तेलुगू व तमिल कैसे टाइप हो रहा है। एक उंगली से टाइप करी पोस्ट शायद भड़ास पर अभी भी अगर माडरेटर भाई ने हटा न दी हों तो पड़ी होगी, एक कुछ लाइन की पोस्ट टाइप करने में ही हाथ दर्द करने लगा था। लिखना सीखा, हिंदी सीखी लेकिन मौका परस्ती न सीख पायी। एक पत्रकार और ब्लागर मनीषा पाण्डेय के नाम से समानता होने के कारण भड़ास पर बड़ा विवाद हुआ जिसमें कि तमाम हिंदी के ब्लागर उस लड़की की वकालत और भड़ास की लानत-मलानत करने आगे आ गये। मैंने सब के सहयोग से अपना वजूद सिद्ध कर पाया। मैं लिखती रही, "अर्धसत्य" (http://adhasach.blogspot.com/) बनाया भाई साहब ने सहयोग करा। कुछ दिन पहले की बात है कि जब भड़ास के मंच पर एक सज्जन(?) ने डा.रूपेश श्रीवास्तव पर एक पोस्ट के रूप में निजी शाब्दिक प्रहार करा कि वे आदर्शवाद की अफ़ीम के नशे में हैं वगैरह...वगैरह। मैंने, भाईसाहब, मुनव्वर सुल्ताना(इन्हे तो भड़ास माता कह कर नवाजा जाता था) ने इसके विरोध में अपनी शैली में लिखा। अचानक इसका परिणाम जो हुआ वह अनपेक्षित था कि भड़ास पर से मेरी, मुनव्वर सुल्ताना और मोहम्मद उमर रफ़ाई की सदस्यता को बिना किसी संवाद या सूचना अथवा आरोप के बड़ी खामोशी से समाप्त कर दिया गया। इससे एक बात सीखने को मिली कि लोकतांत्रिक बातें कुछ अलग और व्यवहार में अलग होती हैं। माडरेटर जो चाहे कर सकता है इसमें लोकतंत्र कहां से आ गया, उनका जब तक मन करा उन्होंने वर्चुअली हमारा अस्तित्त्व जीवित रखा जब चाहा समाप्त कर दिया। मुझे अगर हिजड़ा होने की सजा दी गयी है तो मुनव्वर सुल्ताना और मोहम्मद उमर रफ़ाई को क्या मुस्लिम होने की सजा दी गयी है? यदि इस संबंध में भड़ास के ’एकमात्र माडरेटर’ कुछ भी कहते हैं तो वो मात्र बौद्धिकता जिमनास्टिक होगी क्योंकि बुद्धिमान लोगों के पास अपनी हर बात के लिये स्पष्टीकरण रेडीमेड रखा होता है बिलकुल ’एंटीसिपेटरी’..... वैसे तो चुप्पी साध लेना सबसे बड़ा उत्तर होता है बुद्धिमानों की तरफ से । आज मैं एक बात स्पष्ट रूप से कह रही हूं कि सच तो ये है कि न तो मुनव्वर सुल्ताना का वर्चुअली कोई अस्तित्त्व है और न ही मोहम्मद उमर रफ़ाई के साथ ही मनीषा नारायण का बल्कि ये सब तो फिजिकली अस्तित्त्व में हैं और वर्चुअली अस्तित्त्वहीन और न ही इनकी कोई सोच है अतः इन्हें किसी मंच से हटा देना इनकी हत्या तो नहीं है। मुझे और मेरे भाई को अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है शायद हो सकता है कि आने वाले समय में हम सब भी बुद्धिमान हो सकें और हिंदी ब्लागिंग के अनुकूल दिमाग और दिल रख सकें।
आदतन ही सही लिखूंगी जरूर
जय जय भड़ास
बरसाती मेंढक टूर्र-टूर्र.....
पेशे से पत्रकार हूं लेकिन जो आप को भेज रहा हूं उसे छाप नहीं सकता
पेशे से पत्रकार हूं लेकिन जो भेज रहा हूं उसे छाप नहीं सकता। न छाप पाने की वजह से भारी कुण्ठा में हूं। वैसे भी किसी भी संवेदनशील और जागरूक व्यक्ति को हिला कर रख देने वाली है यह घटना। पूरा मामला जानने के बाद सभी हिल जायेंगे । इसलिये अनुरोध है और भी। इस पूरे विवरण को अपने ब्लाग पर लाकर सभी ब्लोगर समुदाय की एक मुहीम खडी करने की।
मेरे शहर गोरखपुर में एक प्रतिष्ठित विद्यालय है। शैक्षिक सत्र की शुरुआत होने पर उसमें अपने बच्चों को दाखिला दिलाने के लिये जबरदस्त मारामारी होती है। उसी विद्यालय में पिछले दिनों एक सनसनीखेज घटना हुई। उस विद्यालय में सांतवीं कक्षा में पढने वाली एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली।
बताते हैं कि विद्यालय में अंग्रेजी पढाने वाले एक शिक्षक ने कुछ छात्रों के साथ मिल कर उस छात्रा का एमएमएस तैयार किया। इसके लिये उन्होंने अश्लील फिल्म में उसकी तस्वीर जोड दी और उसे यू ट़यूब में डाल दिया। इतना ही नहीं छात्रों और अंग्रेजी शिक्षक ने उस छात्रा का मनचाहा इस्तेमाल भी करना शुरू कर दिया। वह मासूम छात्रा उन दारिंदों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी। सभी मिल कर उसका मनचाहा इस्तेमला करने लगे। छात्रों के इस गिरोह में सभी बडे परिवरों के बच्चे शामिल थे।
इससे तंग आकर छात्रा ने 6 दिसम्बर 08 को अपने घर के अंदर पंखे से झूल कर खुदकुशी कर ली। सूत्र बताते हैं कि छात्रा ने इस संबंध में सुसाइड नोट भी छोडा था। जिससे छात्रा के परिवार वालों को पूरी बात पता चली। हालांकि परिवार वाले इस मामले में मुंह नहीं खोले। लेकिन दूसरे दिन 7 दिसम्बर 08 को जब विद्यालय के शिक्षक छात्रा के घर पहुंचे तो छात्रा के परिजनों का आक्रोस फूट पडा। उन्होंने शिक्षकों को जम कर धुन दिया।
गौर करने की बात यह है कि इस पूरी घटना के बारे में विद्यालय के हर बच्चे को मालूम है। उस विद्यालय में पढने वाले बच्चे रिक्शे और बसों में इस घटना के बारे में चर्चा करते रहते हैं। बच्चों के माध्यम से यह बात अन्य घरों में भी पहुंच गयी है। अभिभावक सहमे हुये है। खास कर पूरे मामले में विद्यालय के शिक्षक की भूमिका का पता चलने के बाद। लेकिन बच्चों की भविष्य की चिंता की वजह कोई कुछ बोल नहीं रहा है। विद्यालय परिसर में भी इन दिनों अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है। मगर छात्रा के परिजन अपनी इज्जत बचाने के लिये कुछ बोल नहीं रहे हैं।
स्थानीय के चलते यह खबर यहां छप नहीं सकती। हालांकि पत्रकार होने की वजह से मैने यह खबर लिखी जरूर है। यदि इस खबर को अपने ब्लाग पर जगह देंगे तो मेरे मन में इस घटना को लेकर पल रही कुंठा निकल जायेगी। आपसे अनुरोध है कि इसे ब्लोगरों के बीच लाकर मासूमों के पक्ष में आवाज बुलंद करें। आभारी रहूंगा।
नवनीत
गोरखपुर
साभार:- भडास ब्लॉग
प्रेम की रूमानियत को समझें
जय भड़ास जय जय भड़ास