हलाकि साल के अंत में परम्परा स्वरुप आप साल की हर बड़ी खबर टीवी पर देखेंगे लेकिन एक साधारण आदमी (मैने) क्या देखा और याद रहा उसकी एक झलक.....
कोल्कता का वो निम्ताला घाट याद आया जहाँ डोम के बच्चे किसी धनि सेठ की अर्थी देख नाचने लगते थे..... आज अच्छा खाना जो मिलेगा उन्हें।
हावडा स्टेशन का राजू याद आया जो हुगली के घाट पर पीपल के नीचे रहता है , स्टेशन पर बोतल चुनता है, पानी के बोतल का आठ आना और कोल्दिंक्स के बोतल का चार आना, मोटी वाली आंटी इतना ही देती है ............बडे शान से बताता है कि 8 और 9 नम्बर प्लेटफोर्म उसका है ............... आगे बोलता है अभी 12 का हूँ न 21 का होते-होते 1 से 23 नम्बर प्लेटफोर्म पर बस वोही बोटेल चुनेगा।
टोलीगंज के मंटू दा याद आए जो सिंगुर काम करने गए थे ...... वापस लोट आए ........ बोलते हैं हस्ते हुए ...काजटा पावा जाबे.....57 के मंटू दा आपनी मुस्कराहट में दर्द छिपाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। पाँच कुवारी बेटिया, तीन की उम्र 30 के ऊपर है।
आज जब रात को हम सभी न्यूज़ रूम से साल भर की खबरे देख रहे होंगे तो हमे वो डोम के बच्चे, वो स्टेशन का राजू, टोलीगंज के मंटू दा नही दिखेंगे।
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कुमार भाई हर दिन एक जैसा, भूख एक जैसी, जरूरतें एक जैसी, प्रयास एक जैसे बस तारीख दर तारीख साल बदल जाते हैं और हो सकता है एक दिन आप लोग इसी तरह मुझ जैसे गुमनाम आदमी की मौत का जिक्र किसी पोस्ट में कर लेंगे और कहानी खत्म हो जाएगी...
ReplyDeleteवही डा.रूपेश जी की सबसे छोटी लघुकथा...
एक आदमी था एक दिन वो मर गया.....
आज इस बहाने से दारू पीकर कुछ देर भूलने की कोशिश करूंगा अपने भीतर के मंटू दा’ को....
जय जय भड़ास
भाई,
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी है मगर ये ऐसा वाक्य है जो डाक्टर रुपेश के लिए दैनिक है और वो सिर्फ़ देखते नही अपितु करने चले जाते हैं.
इसी बहाने आपने ख़बरों की प्राथमिकता पर भी निगाह डाली है.
दर्द बांटिये और कुछ कर डालिए
जय जय भड़ास