हिन्दी के पैरोकार ने साबित किया कि हिन्दी बैसाखी के सहारे है।
रविवार का बेसब्री से इन्तजार कर रहा था, कारण कुछ ब्लॉग सहेलियों से इसी बहाने मिलना तय था। मगर दिन के आते आते रविवार की छुट्टी का खुमार ऐसा चढा कि सब भूल कर रजाई में सर्दी का आनंद लेने लगा। तभी मेरा दुश्मन टिनटिना उठा और कुनमुनाते हुए मैंने अपने दुश्मन को कान से लगाया तो उधर से खनकती आवाज ने फ़िर से जोश भरा और मैं स्नान ध्यान जल्दी से निबटाकर गंतव्य की ओर चल पड़ा।
जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ हिंद युग्म के वार्षिकोत्सव का जो परसों ही दिल्ली के आई टी ओ स्थित हिन्दी भवन में संपन्न हुआ और छोर गया अपनी दरिद्रता की छाप अपने बैसाखीधारी लाल से।
कार्यक्रम की शुरुआत दो बजे से होनी थी और शायद शुरू भी हुई होगी मगर मैं अपने सप्ताह भर के काम काज को निपटा कर चार बजे के करीब हिन्दी भवन पहुँचा। तीसरे माले पर धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में सभा चल रही थी मगर मेरा ध्यान तो सिर्फ़ अपने मित्रों को ढूंढने पर था सो एक कोने में जा कर बैठ गया और इधर उधर निगाह के साथ मंच पर चल रही वाचन कार्यक्रम में भी झाँकने लगा। मैं जब सभागार में पहुंचा तो डॉ॰ सुरेश कुमार सिंह बोल रहे थे, मैं ना तो इन्हें जानता था और ना ही जानने का इक्क्षुक मगर इनके संवाद ने मुझे इनकी और आकृष्ट किया, ये हिंद युग्म के अतिथी में से थे और भाषाई गरीबी के बावजूद तालियाँ प्राप्त कर रहे थे। प्रबंधन का पाठ्यक्रम (दुकान) करवाने वाले ये महोदय इसमें हिन्दीकरण की बात करके ताली तो बटोर गए मगर हिन्दी की सभा में हिन्दी की छाती पर अंग्रेजियत का कील बार बार ठोंकते रहे, क्यूंकी महोदय के पास हिन्दी के बीच में अन्ग्रेज़ी घुसाने के अलावे कोई चारा ना था (या फ़िर हमें अन्ग्रेज़ी भी आती है का मुगालता), मगर इनसे ये प्रश्न करने वाला कोई नही कि प्रबंधन हिन्दी में करके क्या हमारे युवकों को पताका बीडी बेचने की नौकरी मिल सकती है या हिन्दी के नाम पर अपने दूकान को बेच रहे थे?
उसके बाद प्रो भूदेव शर्मा जी आए जो जे॰पी॰ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, नोएडा में गणित के प्रोफेसर हैं और नब्बे के दशक में अमेरिका में हिन्दी साहित्य का प्रचार-प्रसार करने में अग्रणी (ऐसा हिंद युग्म के द्वारा कहा गया था मगर क्या सच में ये प्रचार प्रसार में थे ये सोचनीय था ?) थे और इनकी संवेदनशीलता ने प्रभावित भी किया मगर हिन्दी को सुई चुभोने का काम, भाषा के प्रचार प्रसार में रहने वाले ने भी हिन्दी में अंग्रेजियत को जारी रखा और बीच बीच में हिन्दी की छाती पर कील भोंकते रहे।
इन दोनों को सुनने के बाद मैं सभागार से बाहर चला गया क्यूंकी और मेरी सहन शक्ती जवाब दे चुकी थी, भड़ासपन से मजबूर दिल कर रहा था की सभी वक्ताओं को बीच बीच में टोकुं मगर दिल का गुबार बाहर जा कर ठंडी हवा के साथ निकाल और बेसब्री से इन्तजार करने लगा प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव का। इस बीच मसखरी की सहेली को संक्षिप्त संदेश से सूचित किया की मैं मौजूद हूँ और बस आपके पीछे और इस संदेश का उलाहना मुझे सभा के बाद दिया गया।
वरिष्ट साहित्यकार, हंस पत्रिका के सम्पादक श्री राजेंद्र यादव बड़ा सम्मान था इनके लिए मेरे मन में या फ़िर यूँ कहिये की बाबा नागार्जुन की धरती मिथिला, साहित्यिक संपदा से परिपूर्ण मिथिला, माँ मैथिली की भाषा मैथिली के साथ साथ हिन्दी की समृद्धता से सराबोर मिथिला का ये कपूत साहित्य का बड़ा प्रेमी है ओर इनके लिए बड़ा सम्मान भी रखता है मगर आदतन भाषा के साथ छेड़ छाड करने वाले के लिए कोई सम्मान नही कोई आदर नही क्यूंकी माँ का अपमान बर्दास्त नही। यादव जी के आगे बोलने वाला भोंपू ओर यादव साहब ने बोलना शुरू किया, ओर उनके मुंह से शब्द बाहर आते ही घोर निराशा के साथ मन वितृष्णा से भर गया। भाषा ओर साहित्य की सारी जिन्दगी चने चबाने वाले यादव जी आज भी मंच पर थे तो उसी हिन्दी की वजह से जिसका मखोल उन्होंने उड़ाया। अंग्रेजियत के नशे में वो साफ़ दीख रहे थे ओर दांतों से दबा सिगार जैसे हिन्दी का पैरोकार हिन्दी का चीरहरण होते देख धृतराष्ट्र की तरह मुस्कुरा रहा हो। क्या हमारे हिन्दी के मठाधीश ऐसे ही होते हैं ?
हिंद युग्म या हिन्दी युग्म पर रोशिनी युग्म ही डालेगा मगर हिंद युग्म लिखने वालों ने सब जगह हिन्दी युग्म को संबोधित किया, क्या आप अपना नाम भूल गए या जान बुझकर....... तमाम वक्ताओं ने युग्म का नाम ग़लत उच्चारित किया शायद कोई युग्म वाला ही इस पर रोशिनी डालेगा। मगर शैलेश के ब्लॉग सम्बंधित प्रदर्शन के बाद कुछ लोगों ने जो प्रश्न किए वो फ़िर से एक बार हिन्दी के दर्शक ओर पाठक की बुद्धिजीविता पर प्रश्न चिन्ह लगा गया, क्या हमारे हिन्दी वाले सच में इतने जाहिल हैं?
युग्म की इस वार्षिकोत्सव का एक मात्र सकारात्मक पहलु रहा वो नव पल्लव का कविता वादन। शोभा महेन्द्रू, मनुज मेहता,ओर रूपम चोपड़ा ने क्यार्क्रम की सार्थकता को साबित किया जिसे निरर्थक बनने में बड़े नामों ने कोई कसर नही छोड़ी।
प्रश्न अपनी जगह कायम है, राजेंद्र जी के शब्दों को माने तो क्योँ ना हम राजेन्द्र जी ओर उन जैसे बुजुर्गियत वाले साहित्यकार के साथ घर के भी बुजुर्गों को बाहर का रास्ता दिखा दें, आधुनिकता शायद राजेन्द्र जी ने ये ही सीखा ओर अपने भावी पीढी को सीखा भी रहे हैं।
राजेंद्र जी आप से हिन्दी शर्मिन्दा है, ओर कष्ट में भी की आप हिन्दी के पुत्र हैं।
जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ हिंद युग्म के वार्षिकोत्सव का जो परसों ही दिल्ली के आई टी ओ स्थित हिन्दी भवन में संपन्न हुआ और छोर गया अपनी दरिद्रता की छाप अपने बैसाखीधारी लाल से।
कार्यक्रम की शुरुआत दो बजे से होनी थी और शायद शुरू भी हुई होगी मगर मैं अपने सप्ताह भर के काम काज को निपटा कर चार बजे के करीब हिन्दी भवन पहुँचा। तीसरे माले पर धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में सभा चल रही थी मगर मेरा ध्यान तो सिर्फ़ अपने मित्रों को ढूंढने पर था सो एक कोने में जा कर बैठ गया और इधर उधर निगाह के साथ मंच पर चल रही वाचन कार्यक्रम में भी झाँकने लगा। मैं जब सभागार में पहुंचा तो डॉ॰ सुरेश कुमार सिंह बोल रहे थे, मैं ना तो इन्हें जानता था और ना ही जानने का इक्क्षुक मगर इनके संवाद ने मुझे इनकी और आकृष्ट किया, ये हिंद युग्म के अतिथी में से थे और भाषाई गरीबी के बावजूद तालियाँ प्राप्त कर रहे थे। प्रबंधन का पाठ्यक्रम (दुकान) करवाने वाले ये महोदय इसमें हिन्दीकरण की बात करके ताली तो बटोर गए मगर हिन्दी की सभा में हिन्दी की छाती पर अंग्रेजियत का कील बार बार ठोंकते रहे, क्यूंकी महोदय के पास हिन्दी के बीच में अन्ग्रेज़ी घुसाने के अलावे कोई चारा ना था (या फ़िर हमें अन्ग्रेज़ी भी आती है का मुगालता), मगर इनसे ये प्रश्न करने वाला कोई नही कि प्रबंधन हिन्दी में करके क्या हमारे युवकों को पताका बीडी बेचने की नौकरी मिल सकती है या हिन्दी के नाम पर अपने दूकान को बेच रहे थे?
उसके बाद प्रो भूदेव शर्मा जी आए जो जे॰पी॰ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, नोएडा में गणित के प्रोफेसर हैं और नब्बे के दशक में अमेरिका में हिन्दी साहित्य का प्रचार-प्रसार करने में अग्रणी (ऐसा हिंद युग्म के द्वारा कहा गया था मगर क्या सच में ये प्रचार प्रसार में थे ये सोचनीय था ?) थे और इनकी संवेदनशीलता ने प्रभावित भी किया मगर हिन्दी को सुई चुभोने का काम, भाषा के प्रचार प्रसार में रहने वाले ने भी हिन्दी में अंग्रेजियत को जारी रखा और बीच बीच में हिन्दी की छाती पर कील भोंकते रहे।
इन दोनों को सुनने के बाद मैं सभागार से बाहर चला गया क्यूंकी और मेरी सहन शक्ती जवाब दे चुकी थी, भड़ासपन से मजबूर दिल कर रहा था की सभी वक्ताओं को बीच बीच में टोकुं मगर दिल का गुबार बाहर जा कर ठंडी हवा के साथ निकाल और बेसब्री से इन्तजार करने लगा प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव का। इस बीच मसखरी की सहेली को संक्षिप्त संदेश से सूचित किया की मैं मौजूद हूँ और बस आपके पीछे और इस संदेश का उलाहना मुझे सभा के बाद दिया गया।
वरिष्ट साहित्यकार, हंस पत्रिका के सम्पादक श्री राजेंद्र यादव बड़ा सम्मान था इनके लिए मेरे मन में या फ़िर यूँ कहिये की बाबा नागार्जुन की धरती मिथिला, साहित्यिक संपदा से परिपूर्ण मिथिला, माँ मैथिली की भाषा मैथिली के साथ साथ हिन्दी की समृद्धता से सराबोर मिथिला का ये कपूत साहित्य का बड़ा प्रेमी है ओर इनके लिए बड़ा सम्मान भी रखता है मगर आदतन भाषा के साथ छेड़ छाड करने वाले के लिए कोई सम्मान नही कोई आदर नही क्यूंकी माँ का अपमान बर्दास्त नही। यादव जी के आगे बोलने वाला भोंपू ओर यादव साहब ने बोलना शुरू किया, ओर उनके मुंह से शब्द बाहर आते ही घोर निराशा के साथ मन वितृष्णा से भर गया। भाषा ओर साहित्य की सारी जिन्दगी चने चबाने वाले यादव जी आज भी मंच पर थे तो उसी हिन्दी की वजह से जिसका मखोल उन्होंने उड़ाया। अंग्रेजियत के नशे में वो साफ़ दीख रहे थे ओर दांतों से दबा सिगार जैसे हिन्दी का पैरोकार हिन्दी का चीरहरण होते देख धृतराष्ट्र की तरह मुस्कुरा रहा हो। क्या हमारे हिन्दी के मठाधीश ऐसे ही होते हैं ?
हिंद युग्म या हिन्दी युग्म पर रोशिनी युग्म ही डालेगा मगर हिंद युग्म लिखने वालों ने सब जगह हिन्दी युग्म को संबोधित किया, क्या आप अपना नाम भूल गए या जान बुझकर....... तमाम वक्ताओं ने युग्म का नाम ग़लत उच्चारित किया शायद कोई युग्म वाला ही इस पर रोशिनी डालेगा। मगर शैलेश के ब्लॉग सम्बंधित प्रदर्शन के बाद कुछ लोगों ने जो प्रश्न किए वो फ़िर से एक बार हिन्दी के दर्शक ओर पाठक की बुद्धिजीविता पर प्रश्न चिन्ह लगा गया, क्या हमारे हिन्दी वाले सच में इतने जाहिल हैं?
युग्म की इस वार्षिकोत्सव का एक मात्र सकारात्मक पहलु रहा वो नव पल्लव का कविता वादन। शोभा महेन्द्रू, मनुज मेहता,ओर रूपम चोपड़ा ने क्यार्क्रम की सार्थकता को साबित किया जिसे निरर्थक बनने में बड़े नामों ने कोई कसर नही छोड़ी।
प्रश्न अपनी जगह कायम है, राजेंद्र जी के शब्दों को माने तो क्योँ ना हम राजेन्द्र जी ओर उन जैसे बुजुर्गियत वाले साहित्यकार के साथ घर के भी बुजुर्गों को बाहर का रास्ता दिखा दें, आधुनिकता शायद राजेन्द्र जी ने ये ही सीखा ओर अपने भावी पीढी को सीखा भी रहे हैं।
राजेंद्र जी आप से हिन्दी शर्मिन्दा है, ओर कष्ट में भी की आप हिन्दी के पुत्र हैं।
mitravar Rajneesh Ji,
ReplyDeleteAapke hindi prem se main bahut utsahit hoon. Kshama kare..hindi main likh nahin pane karan hinglih ka prayog kar raha hoon. Aapke sahas ke liye badhai.Matrabhasha se cher char wo bhi karen varishth sahityakar sehan na hona swabhik hi hai.Vastav main hindi aise logo se hi bar bar apmanit hui hai aur yahi karan hai ki bharat main ek din Hindi Diwas manaya jata hai..Is se bara apman matrabhasha ka ho nhin sakta kintu Sarkar se lekar Sahityakar sabhi Hindi Diwas ki pratiksha karte hain.Vastav main English Diwas manaya jana chahiye lekin swatantrata ke 55 varsho ke baad bhi hindi bolne wala doyam darze ka vyakti hai ka kalank abhi tak hamare mastak par hai. Aapke hindi prem main meri sehbhagita swikar karen.. Praveen Khandelwal
मैं समझा नहीं....अगर आपको याद हो तो मैं भी मंच पर था और मुझे नहीं लगता कि मेरी जीभ हिंद युग्म बोलने में एक भी बार फिसली होगी..मुझे नहीं पता कि किन-किन ने हिंदी-युग्म कहा मगर ये एक आम तौर पर की जाने वाली ग़लती है, जो वो एक-दो बार हमारा नाम (हिंदयुग्म) सुनकर ठीक कर लेते हैं....
ReplyDeleteमुझे नहीं लगता कि हिंदयुग्म का बड़ा सा बैनर लगाने वालों ने एक भी बार ग़लत बोला होगा...अपने बारे में तो मेरी यही राय है...
निखइल आनंद गिरि
आपको व आपके परिवार को नव-वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें...
ReplyDeleteनिखिल आनद जी,
ReplyDeleteमाफ़ करिए मैं कभी एक अच्छा वक्ता नही रहा और ये ही संदर्ब है की मैं मंच पर नही होता हूँ, अमूमन किसी समारोह मैं जन पसंद भी नही करता मगर उलट श्रोता मैं बेमिसाल हूँ और मैंने वो ही लिखा है जो मैंने सुना, अगर आपके पास इसका विडियो हो तो अवश्य आप इसे फ़िर से देखें.
प्रश्न ये नही की किसने क्या बोला क्या कहा क्या सुना. प्रश्न सिर्फ़ हिन्दी से जुडा हुआ है ! प्रश्न सिर्फ़ हमारी राष्ट्रभाषा से जुडा हुआ है ! प्रश्न हमारी राष्ट्रभाषा की अश्मिता से जुडा हुआ है. और इस मंच पर हिन्दी के कथित विद्वानों के द्बारा हिन्दी को शर्मिन्दा करना लज्जाजनक है. कम से कम उनके लिए तो बहुत ज्यादा जिनकी पहचान ही हिन्दी से है.
हम सॉफ्टवेर सेजुदे हैं और आपके हिंद युग्म में डाटा भी अधिकतर हमारे क्षेत्र के ही हैं और सिर्फ़ इसलिए की अपनी भाषा को वो बेइंतेहा प्यार करते हैं, उनपर कुठाराघात मत कीजिये.
सादर
रजनीश के झा
heeyaan to alag hi lafdaa hai bhaii
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