ओशो रजनीश बने भड़ास के फैन क्लब के सदस्य वर्ष 2009 की शुरुआत से पहले ही.........


आज मुझे बड़ा ही सुखद आश्चर्य हुआ जब मैंने देखा कि भड़ास से मेरी,मोहम्मद उमर रफ़ाई और मनीषा दीदी की सदस्यता को बिना किसी बातचीत के बड़ी ही कुटिलता से समाप्त कर दिया गया लेकिन क्या करें मुंह मारने का अधिकार छीन लिया है फिर भी आदतन कुतिया की तरह से सूंघने तो चली ही जाती हुं। पंखों वाली भड़ास पर पाती हूं कि भगवान ओशो रजनीश पंखों में शामिल हो कर हवा दे रहे हैं। अब क्या करूं इस बात पर बिना कुछ कहे चुप रहा नहीं गया इतनी कुटिलता किधर से लाऊं कि बड़ी से बड़ी बात को पचा कर डकार भी न लूं ये तो शायद भड़ास के वणिक शिरोमणि ही कर सकते हैं। धन्य है पंखों का झुंड जिनमें ओशो शोभायमान हैं आजकल वैसे भी वहां बड़ा पवित्र माहौल है कुछ दिनों में हो सकता है कि भगवान राम भी भड़ास ज्वाइन कर लें अब ऐसे माहौल में हमारे जैसे पापी भला कहां पचेंगे तो हमारी सदस्यता रद्द करके अपना वर्ष २००९ शुभ बना लिया। चलो प्यार से बोलो जोर से बोलो दिल दिमाग खोल कर बोलो ........
जय जय भड़ास
और अब उगल दिया है तो राहत मिली थोड़ी लेकिन ये एसिडिटी रहेगी काफ़ी समय तक तो जब उल्टी होगी करूंगी जरूर क्योंकि पंखों की बैटरी को लगता है कि चुप्पी साधे रहो कुछ दिन में पगले अपने आप भौंक कर शांत होकर किसी मुद्दे को चाटने चले जाएंगे लेकिन अक्ल पर धूल पड़े पैसों की...... ये नहीं जानता कि जन्मजात भड़ासियों ने भड़ास की आत्मा चुरा कर उसे यहां पैदा कर दिया है। हम चोर, चूतिया, बुरे, महा कमीने लोग यहां आ गये अच्छे लोग पंखे बन कर वहां लटक गये।
जय जय भड़ास

स्वागतम! आगतम् नूतन वर्ष

स्वागतम नूतन साल तुम्हारा है,
झंकृत हृदय हमारा है। स्वागतम........
बीते पल जब तुम आए थे
ऐसा ही स्वागत पाए थे
होंठों से मुस्काए थे और
नज़रों से इतराए थे
तुम्हारा आगम कितना प्यारा है। स्वागतम....
ऐसे ही तुम आओ
अधरों पर हँसी खिलाओ
मन का गीत कोई गुनगुनाओ
नूतन सपना कोई सजाओ
ऐसा न्यारा ख्वाब तुम्हारा है। स्वागतम.....
मन की पीडा को हम भूलें
निर्झर लहरों में ही झूलें
उठ के असमान को छूलें
मरहम बन जायें सब शुलें
कैसा जीवन नृत्य तुम्हारा है॥
स्वागतम नूतन साल तुम्हारा है,
कैसा झंकृत ह्रदय हमारा है।
तुम्हारा आगम कितना प्यारा है,
ऐसा न्यारा ख्वाब तुम्हारा है।

नववर्ष की शुभकामना

हम सब नववर्ष को बड़ी ही धूमधाम से मनाते हैं यह भूल जाते हैं कि हमने क्या क्या खोया है। जनमानस को झकझोर देने वाले मुंबई व अन्य शहरों के आतंकी हमले हों या नैना देवी और चामुंडा मंदिरों में हुई दुर्घटनाएं, कोसी की विकराल बाढ़ से उमड़ी तबाही हो या अर्थव्यवस्था की मंदी से उपजी आशंकाए, २००८ में कई कीमती जानें गंवाने का दंश और सब हालात को भूल कर आज खूब शराब पी कर नाचते गाते झूमते हम सब भूल जाएं क्योंकि हम जानते हैं मन के किसी कोने में कि ये आज भर की मस्ती है कल से तो फिर वही होना है हर पल किसी आतंकी की गोली का डर तो फिर मनाइए नववर्ष और स्वीकारिये मेरी शुभकामनाएं जिनमें असर है या नहीं मुझे नहीं पता पर स्वीकार लीजिये...
जय जय भड़ास

साल २००८ कोल्कता और में


हलाकि साल के अंत में परम्परा स्वरुप आप साल की हर बड़ी खबर टीवी पर देखेंगे लेकिन एक साधारण आदमी (मैने) क्या देखा और याद रहा उसकी एक झलक.....

कोल्कता का वो निम्ताला घाट याद आया जहाँ डोम के बच्चे किसी धनि सेठ की अर्थी देख नाचने लगते थे..... आज अच्छा खाना जो मिलेगा उन्हें।

हावडा स्टेशन का राजू याद आया जो हुगली के घाट पर पीपल के नीचे रहता है , स्टेशन पर बोतल चुनता है, पानी के बोतल का आठ आना और कोल्दिंक्स के बोतल का चार आना, मोटी वाली आंटी इतना ही देती है ............बडे शान से बताता है कि 8 और 9 नम्बर प्लेटफोर्म उसका है ............... आगे बोलता है अभी 12 का हूँ न 21 का होते-होते 1 से 23 नम्बर प्लेटफोर्म पर बस वोही बोटेल चुनेगा।

टोलीगंज के मंटू दा याद आए जो सिंगुर काम करने गए थे ...... वापस लोट आए ........ बोलते हैं हस्ते हुए ...काजटा पावा जाबे.....57 के मंटू दा आपनी मुस्कराहट में दर्द छिपाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। पाँच कुवारी बेटिया, तीन की उम्र 30 के ऊपर है।

आज जब रात को हम सभी न्यूज़ रूम से साल भर की खबरे देख रहे होंगे तो हमे वो डोम के बच्चे, वो स्टेशन का राजू, टोलीगंज के मंटू दा नही दिखेंगे।

मै मुर्दा बोल रहा हूँ....

मेरा नाम केशव है। अरे-अरे आप घबराइये मत, मैं मर चुका हूँ। सुना है हमारे देश में मुर्दों की बहुत सुनी जाती है , इसलिए यमराज जी से थोडी सी मोहलत मांग के आपसे मुखातिब हूँ। हाँ मेरा नाम केशव था, मैं उत्तरप्रदेश और बिहार के बॉर्डर बनारस का रहने वाला था। कुछ सालों से रोजी-रोटी के लिए बॉम्बे के वरली इलाके में मेरी खोली थी। जब राज ठाकरे के गुंडों ने भैय्याओं की पिटाई, चटाई समझकर कर रहे थे तो घर से बार-बार फोन आने लगा की नौकरी छोड़ कर चले आओ। गुंडों का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था, घर पर बाबूजी बीमार रहने लगे, मुझे लगा की घर चले जाना चाहिए। लेकिन आप ये मत सोचिये की मैं डर गया था। बस बाबूजी की चिंता सताए जा रही थी, इसलिए विगत २६ नवम्बर को मैं घर के लिए ट्रेन पकड़ने वीटी अरे वोही सीएसटी स्टेशन पर पहुँच गया। रात के करीब ११ बजे मेरी ट्रेन थी। मैंने सोचा की चलो कुछ खा-पि लिया जाए। मैं जैसे ही आगे बढ़ा तो देखा की एक गुंडा हांथों में बन्दूक लिए अंधाधुंध गोलियां बरसता मेरी तरफ़ चला आ रहा था। अचानक मैंने सोचा ये कौन है ? फिर मैं कुछ न सोच पाया , होश आया तो ख़ुद दो मृत हालत में मुन्सिपर्टी की बस में ठुसा हुआ पाया। पचासों लोग मरे जा चुके थे। यमराज आए और हमारी आत्माओं को इकठ्ठा करके चलने लगे। तभी एक आदमी बोला अभी रुकिए मीडिया वाले आते होंगे, कुछ फोटो, फुटेज हो जाए तो चलिए। यमराज मुस्कुराये और बोले बेटा यहाँ कोई मीडिया वाला नही आएगा, क्यौकी तुमसे ज्यादा जरूरतमंद लोग मरे हैं, मीडिया ताज होटल, ओबरी होटल और नरीमन हाउस को कवर कर रही है । तुम जैसे फालतू लोगों के लिए उनके पास टाइम नही है और मेरे पास भी! इसलिए चुपचाप मेरे साथ चलो मैं तुम्हे भरोषा दिलाता हूँ ऊपर तुम्हे पुरा कवरेज मिलेगा, कोई पर्सिअलिटी नही होगी। मै केशव अपनी सब इच्छाओ को भुला चुका हूँ। अब मुझे कोई नही मार सकता क्यूंकि मैं तो ख़ुद मर गया हूँ। एकदिन परेड में यमराज जी ने कहा की देखो दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें जीने का कोई अधिकार नही है लेकिन उन्हें मरना गैरकानूनी होगा इसलिए वे जिन्दा हैं। यमराज जी बता रहे थे की मुझे मरने वाला जिन्दा है ? मैं चौक गया! फिर उन्होंने कहा की येही जिन्दा राक्षश अब तुम्हारे देश की सरकार का देवता है। येही अब तुम्हारे सरकार को चुनावों में जित दिलाने की कोशिश करेगा। मैंने पूछा वो कैसे ? यमराज जी ने कहा -देखा नही तुमने सब कुछ साफ होने के बाद भी सरकार सिर्फ़ आने वाले चुनावों के बारे में सोच रही है। देखो कैसे कैसे प्रायोजित बयां दिए जा रहे हैं। सब वोट बैंक की राजनीति है बेटा तुम्हारी समझ में नही आएगा। फिर मैंने आखिरी सवाल किया। यमराज जी ये बताइए की हमें मरने वाला कौन था? यमराज जी बोले देखो तुम्हे मरने वाला कोई आदमी नही है और न ही कोई मशीन! तुम्हे मरने वाला एक विचार है , जो की दुसरे देशों से आया है और तुम्हे तो मालूम ही होगा की तुमसब कितने नकलची हो, हर विदेशी चीज की ऐसी नक़ल करते होई जैसे तुम्हारी होई। सबसे बड़ी बात ये है की तुम्हारी सरकार इस विचार को तबतक नही मरने देगी जब तक तुम जैसे लोग जिन्दा रहेंगे। लेकिन यमराज जी मारने का ठेका तो बस आपके पास है? यमराज- बेटा जमाना बदल गया है , यहाँ भी अब साझा सरकार है, कुछ को मैं नियम से मारता हूँ और कुछ फिदयेनो को सहयोगी तैयार करके मारते हैं। देखो मरना तो सबको है! कुछ नियम से , कुछ कायदे से और कुछ वायदे से! लेकिन तुम चिंता मत करो तुम्हारे पिताजी भी कल आ जायेंगे एक बार मिलकर मर जाना। कम से कम मरने के बाद तुम्हे तुम्हारे पिता से मिलवा रहा हूँ , तुम्हारी सरकार तो ऐसा भी नही करती। वो तो मरने के बाद भी गाली देती है, कम से कम मैं तो ऐसा नही।

आयुर्वेद के क्षेत्र में गधे पंजीरी खा रहे हैं...

आज अभी हाल ही में मैंने जैसे ही घर में प्रवेश करा तो पाया कि भाई किसी से फोन पर बात कर रहे हैं और उनकी आंखों से आंसुओं की धार बह रही है। मैंने भाई के लिये चाय बनायी और वार्तालाप समाप्त होने पर जानना चाहा कि क्या बात है तब उन्होंने बताया कि वे अपने गुरू प्रातःस्मरणीय डा.देशबंधु बाजपेयी से बात कर रहे थे और उस तात्कालिक दुःख का कारण था कि डा.बाजपेयी ने चर्चा के दौरान ये बताया कि उन्हें अपनी बेटी के विवाह के लिये बैंक से कर्ज लेना पड़ा जिसे अब वे धीरे-धीरे चुका रहे हैं। डा.बाजपेयी वो व्यक्ति हैं जिन्होंने आयुर्वेद के क्षेत्र में एक ऐसा अविष्कार करा है जिसे इलैक्ट्रो त्रिदोषग्राम(E.T.G.) कहते हैं। इसका उपयोग करने से शरीर के कफ़-पित्त-वात की स्थिति के साथ ही सप्त धातुओं के स्थिति का पेपर एविडेन्स मिल जाता है जैसे कि ई.सी.जी. में होता है लेकिन यह अविष्कार लालफ़ीताशाही का शिकार होकर सरकारी नीतियों की गलियों में भटक रहा है और सच्चे आयुर्वेद के चिकित्सक इसके इस्तेमाल से वंचित हैं। आयुर्वेद की संस्था "आयुश" के लोगों ने डा.बाजपेयी को एक प्रमाणपत्र दिया है जो कि ये दर्शाता है कि आयुश के लोग दिमागी दिवालिये हो चुके हैं उल्लू के पट्ठे सूरज को दिया दिखा कर उसकी रोशनी में इजाफ़ा कर रहे हैं। जबकि सच तो ये है कि अगर ये लोग चाहें तो एक साथ किसी भी सरकार पर दबाव बना सकते हैं लेकिन शायद ये खुद नहीं चाहते कि डा.बाजपेयी का अविष्कार प्रकाश में आये वरना देश ही नहीं पूरी दुनिया में उन्हें चिकित्सक पूजने लगेंगे और इन चिरकुट राजनीति करने वाले छ्द्मचिकित्सकों को कौन पूछेगा। डा.बाजपेयी इस उम्र में भीड़ भरी बसों में धक्के खाते फिर रहे हैं और ये आयुर्वेद की किताबों में रेंगने वाले कीड़े खुद को जानकार बताते मजे कर रहे हैं। डा.बाजपेयी इनके किसी भी सम्मान से बहुत आगे जा चुके संत हैं। इन बुद्धुओं के साथ बैठना डा.बाजपेयी की करुणा है वरना क्या वे इनसे प्रमाणपत्र मांगने जाते हैं कि मुझे संम्मानित करो। लेकिन ये तो समय का प्रभाव है कि डा.बाजपेयी को ये लोग सम्मानित करें जैसे कि नीर-क्षीर विवेकी हंस को बगुले अपनी सभा में पंखों की सफेदी के लिये प्रमाणपत्र दें....गधे पंजीरी खा रहे हैं भाई।
जय जय भड़ास

आया...आया....गुरुभाई........ पंगा लेना ना प्यारे






















गुरूभाई यानि हमारे प्यारे गुरुदत्त तिवारी जी जो अब तक मुंबई में "बिजनेस स्टैन्डर्ड" दैनिक समाचार पत्र में शोभायमान थे भोपाल जाने की तैयारी में हैं। जाने से पहले तो कम से कम एक बार मिल लो ऐसी विनती घिघिया कर करी तो गुरूभाई को मुझ पर दया आ गयी और कल आ ही गये प्रभु दर्शन देने। गुरूभाई एकदम सीधे आदमी हैं यानि कि कोई लाग-लपेट नहीं जो बात जैसी है उसे वैसा ही देखते हैं पूर्वाग्रहों का चश्मा प्रयोग नहीं करते। अब एक जैसे लोगों के मिलने पर जो बाते होती थी वही हुई, मुखौटों को प्रयोग करने वालों के ऊपर गुरूभाई अगर चाहें तो एक मोटी सी किताब लिख सकते हैं। रोटी बनाई और शिमला मिर्च की सब्जी खाई और खूब गपियाए, इस बीच में रजनीश भाई, मुनव्वर आपा और कृष्णा शर्मा जी से भी गपिया लिया गया। सुबह जब मैं उन्हें स्टेशन भेजने गया तो आदत के मुताबिक पनवेल से वाशी तक साथ गया। वाशी में गुरूभाई बस के इंतजार में खड़े तो एक सयाना कंडक्टर आकर उन्हें टिकट थमा गया.....एक घंटा हो गया बस थी कि आने का नाम ही न ले। भाई परेशान...दुविधा में कि अगर टैक्सी से निकले तो तुरंत अगर बस आ गयी तो अपना ही पोपट हो जाएगा। इसी बीच भिखारी बच्चों ने भी दो राउंड लगा लिये अपने धंधे के(दर असल तीन लेकिन तीसरे बच्चे का पहले वालों से टाई-अप नहीं था वो अलग कंपनी से था)। एक बस आयी तो कंडक्टर ने साफ़ कह दिया कि पहले लिया टिकट नहीं चलेगा। गुरूभाई ने तत्काल(डेढ़ घंटे बाद) निर्णय लिया और टिकट फाड़ते हुए बस में अपने पत्रकार मन पर विजय प्राप्त करके खिड़की की सीट पकड़ ली, अब ये बस साली चलने का नाम ले... चली...चली....छह सात मीटर फिर रुक गयी। गुरूभाई विदाई के पोज़ में हाथ हिला-हिला कर मन ही मन शायद गरिया रहे होंगे कि किस पनौती का सुबह मुंह देख लिया दिन की शुरूआत ही खराब हो गई(भाई ने मेरा ही मुंह देखा होगा अपना तो देखने से रहे क्योंकि साथ में तो मैं ही था)। हम दोनो ने उसी जगह चाय चूसी और उस दिन को याद करा जब भाई रजनीश झा मुंबई से दिल्ली वापिस जा रहे थे। गुरूभाई से बहुत कुछ सीखा जाना समझा। भाई भड़ासियों इसी तरह आते रहना ताकि जीवन में रंग महसूस होते रहें। आप लोग देख सकते हैं कि गुरूभाई ने विदाई के कितने सारे पोज़ दिये तब कहीं जाकर बस चली। हम सब भाई की भोपाली पारी की सफलता की कामना करते हैं। मनीषा दीदी ने न मिल पाने का अफ़सोस करा और भाई,भाभी और बचऊ को प्यार बोला है।

हिंद युग्म के सफल वार्षिकोत्सव में अपमानित हुई हिन्दी.

हिन्दी के पैरोकार ने साबित किया कि हिन्दी बैसाखी के सहारे है

रविवार का बेसब्री से इन्तजार कर रहा था, कारण कुछ ब्लॉग सहेलियों से इसी बहाने मिलना तय था। मगर दिन के आते आते रविवार की छुट्टी का खुमार ऐसा चढा कि सब भूल कर रजाई में सर्दी का आनंद लेने लगा। तभी मेरा दुश्मन टिनटिना उठा और कुनमुनाते हुए मैंने अपने दुश्मन को कान से लगाया तो उधर से खनकती आवाज ने फ़िर से जोश भरा और मैं स्नान ध्यान जल्दी से निबटाकर गंतव्य की ओर चल पड़ा।

जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ हिंद युग्म के वार्षिकोत्सव का जो परसों ही दिल्ली के आई टी ओ स्थित हिन्दी भवन में संपन्न हुआ और छोर गया अपनी दरिद्रता की छाप अपने बैसाखीधारी लाल से।

कार्यक्रम की शुरुआत दो बजे से होनी थी और शायद शुरू भी हुई होगी मगर मैं अपने सप्ताह भर के काम काज को निपटा कर चार बजे के करीब हिन्दी भवन पहुँचा। तीसरे माले पर धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में सभा चल रही थी मगर मेरा ध्यान तो सिर्फ़ अपने मित्रों को ढूंढने पर था सो एक कोने में जा कर बैठ गया और इधर उधर निगाह के साथ मंच पर चल रही वाचन कार्यक्रम में भी झाँकने लगा। मैं जब सभागार में पहुंचा तो डॉ॰ सुरेश कुमार सिंह बोल रहे थे, मैं ना तो इन्हें जानता था और ना ही जानने का इक्क्षुक मगर इनके संवाद ने मुझे इनकी और आकृष्ट किया, ये हिंद युग्म के अतिथी में से थे और भाषाई गरीबी के बावजूद तालियाँ प्राप्त कर रहे थे। प्रबंधन का पाठ्यक्रम (दुकान) करवाने वाले ये महोदय इसमें हिन्दीकरण की बात करके ताली तो बटोर गए मगर हिन्दी की सभा में हिन्दी की छाती पर अंग्रेजियत का कील बार बार ठोंकते रहे, क्यूंकी महोदय के पास हिन्दी के बीच में अन्ग्रेज़ी घुसाने के अलावे कोई चारा ना था (या फ़िर हमें अन्ग्रेज़ी भी आती है का मुगालता), मगर इनसे ये प्रश्न करने वाला कोई नही कि प्रबंधन हिन्दी में करके क्या हमारे युवकों को पताका बीडी बेचने की नौकरी मिल सकती है या हिन्दी के नाम पर अपने दूकान को बेच रहे थे?

उसके बाद प्रो भूदेव शर्मा जी आए जो जे॰पी॰ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, नोएडा में गणित के प्रोफेसर हैं और नब्बे के दशक में अमेरिका में हिन्दी साहित्य का प्रचार-प्रसार करने में अग्रणी (ऐसा हिंद युग्म के द्वारा कहा गया था मगर क्या सच में ये प्रचार प्रसार में थे ये सोचनीय था ?) थे और इनकी संवेदनशीलता ने प्रभावित भी किया मगर हिन्दी को सुई चुभोने का काम, भाषा के प्रचार प्रसार में रहने वाले ने भी हिन्दी में अंग्रेजियत को जारी रखा और बीच बीच में हिन्दी की छाती पर कील भोंकते रहे।

इन दोनों को सुनने के बाद मैं सभागार से बाहर चला गया क्यूंकी और मेरी सहन शक्ती जवाब दे चुकी थी, भड़ासपन से मजबूर दिल कर रहा था की सभी वक्ताओं को बीच बीच में टोकुं मगर दिल का गुबार बाहर जा कर ठंडी हवा के साथ निकाल और बेसब्री से इन्तजार करने लगा प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव का। इस बीच मसखरी की सहेली को संक्षिप्त संदेश से सूचित किया की मैं मौजूद हूँ और बस आपके पीछे और इस संदेश का उलाहना मुझे सभा के बाद दिया गया।

वरिष्ट साहित्यकार, हंस पत्रिका के सम्पादक श्री राजेंद्र यादव बड़ा सम्मान था इनके लिए मेरे मन में या फ़िर यूँ कहिये की बाबा नागार्जुन की धरती मिथिला, साहित्यिक संपदा से परिपूर्ण मिथिला, माँ मैथिली की भाषा मैथिली के साथ साथ हिन्दी की समृद्धता से सराबोर मिथिला का ये कपूत साहित्य का बड़ा प्रेमी है ओर इनके लिए बड़ा सम्मान भी रखता है मगर आदतन भाषा के साथ छेड़ छाड करने वाले के लिए कोई सम्मान नही कोई आदर नही क्यूंकी माँ का अपमान बर्दास्त नही। यादव जी के आगे बोलने वाला भोंपू ओर यादव साहब ने बोलना शुरू किया, ओर उनके मुंह से शब्द बाहर आते ही घोर निराशा के साथ मन वितृष्णा से भर गया। भाषा ओर साहित्य की सारी जिन्दगी चने चबाने वाले यादव जी आज भी मंच पर थे तो उसी हिन्दी की वजह से जिसका मखोल उन्होंने उड़ाया। अंग्रेजियत के नशे में वो साफ़ दीख रहे थे ओर दांतों से दबा सिगार जैसे हिन्दी का पैरोकार हिन्दी का चीरहरण होते देख धृतराष्ट्र की तरह मुस्कुरा रहा हो। क्या हमारे हिन्दी के मठाधीश ऐसे ही होते हैं ?

हिंद युग्म या हिन्दी युग्म पर रोशिनी युग्म ही डालेगा मगर हिंद युग्म लिखने वालों ने सब जगह हिन्दी युग्म को संबोधित किया, क्या आप अपना नाम भूल गए या जान बुझकर....... तमाम वक्ताओं ने युग्म का नाम ग़लत उच्चारित किया शायद कोई युग्म वाला ही इस पर रोशिनी डालेगा। मगर शैलेश के ब्लॉग सम्बंधित प्रदर्शन के बाद कुछ लोगों ने जो प्रश्न किए वो फ़िर से एक बार हिन्दी के दर्शक ओर पाठक की बुद्धिजीविता पर प्रश्न चिन्ह लगा गया, क्या हमारे हिन्दी वाले सच में इतने जाहिल हैं?

युग्म की इस वार्षिकोत्सव का एक मात्र सकारात्मक पहलु रहा वो नव पल्लव का कविता वादन। शोभा महेन्द्रू, मनुज मेहता,ओर रूपम चोपड़ा ने क्यार्क्रम की सार्थकता को साबित किया जिसे निरर्थक बनने में बड़े नामों ने कोई कसर नही छोड़ी।

प्रश्न अपनी जगह कायम है, राजेंद्र जी के शब्दों को माने तो क्योँ ना हम राजेन्द्र जी ओर उन जैसे बुजुर्गियत वाले साहित्यकार के साथ घर के भी बुजुर्गों को बाहर का रास्ता दिखा दें, आधुनिकता शायद राजेन्द्र जी ने ये ही सीखा ओर अपने भावी पीढी को सीखा भी रहे हैं।
राजेंद्र जी आप से हिन्दी शर्मिन्दा है, ओर कष्ट में भी की आप हिन्दी के पुत्र हैं।





माफ करना कलाम जी

माफ करना कलाम जी 2020 तक भारत के विकशित राष्ट्र बन जाने के आप के सपने को हमारे फंडू नेता कभी पूरा नहीं होने देंगे।जब तक इस देश में तुष्टीकरण की राजनीति होगी फंडू नेता शहीदों को कुत्ता कह कर,उनकी सहादत पर शक कर के उनका अपमान करेंगे ,जब तक बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं का परवाह किये बिना अंतुले जैसे लोगो को खुस रखा जायेगा तब तक इस देस का कुछ नहीं हो सकता। शायद भारत दुनिया का पहला ऐसा देस है जहाँ बहुसंख्यक पीडि़त किये जाते हैं,विस्थापितों का जीवन (जम्मू)जीने को बाध्य हैं।वहाँ विकाश कैसे संभव है।जिस देश में मानवाधिकार सिर्फ आतंकवादियों(मुस्लिमों)का हो।

डॉ रुपेश जी एक लंबे अरसे से अवैध जहरीली शराब के खिलाफ लडाई जारी रखे हैं




आप लोग जानते होंगे कि अपने डॉ रुपेश जी एक लंबे अरसे से अवैध जहरीली शराब के खिलाफ लडाई जारी रखे हैं जिसमे कि वे कई बार मारे पीटे गए लेकिन अगर पंगेबाजी में नोबल पुरूस्कार मिलता तो इन जनाब को लगातार मिल रहा होता। अभी कुछ दिनों पहले फिर से जब शराब माफिया ने राजनैतिक सहयोग से जड़ पकड़नी शुरू कर दी तो हमारे जनाब ताव में आ गए कि भला मैं दारु नही पीता तो बाकी उन लोगो को क्यों पीने दूँ जो ख़ुद ही मरना चाहते हैं। अभी हाल ही में हमारे जिले में इसी शराब से कई मौते हो गई थी तो जनाब दुखी हो गए और लग गए धंधे पर एक बार फिर से बंद कराने के लेकिन इस बार पंगा ज़रा बड़ा है क्योंकि इस बार स्थानीय कार्पोरेटर के रिश्तेदार लपेट में आ गए हैं। दुनिया बनाने वाला दारु पीने वालो को अक्ल दे और हमारे डॉ साहब को ऐसे ही साहस और ताकत......लीजिये मेरे मोबाइल से खिंची इस अस्पष्ट तस्वीर पर नजर मारिये जो आज के नवभारत टाईम्स में छपी है इसमे आप देख सकते हैं स्थानीय कार्पोरेटर के रिश्तेदारो के नाम ......... कार्पोरेटर सुनील गोविन्द बहिरा फुल खुन्नस में है लेकिन क्या करे हमारे डॉ साहब तो पिटाई प्रूफ़ हो चुके हैं मार पीट का असर ही नही होता इन पर कितना तो पिट चुके हैं इस मिशन में पर बाज नही आते।

हिन्दी का चीरहरण किया राजेन्द्र यादव ने.......

हिंद युग्म का कल वार्षिकोत्सव था, धूम धाम के साथ सफलतापूर्वक आयोजन के लिए बधाई शैलेश को। मगर क्या ये हिन्दी की भी भावी सफलता की शुरुआत थी, दांतों में सिगार दबाये मुख्य अतिथी श्री राजेंद्र यादव का हिन्दी का मखोल उडाना और सफेदपोश जाहिल दर्शकों का उनके हाँ में हाँ मिला कर ताली बजाना बस ऐसा ही दृश्य था जैसे की द्रौपदी का चीरहरण हो रहा हो और तमाम सभासद तालियाँ बजा रहे हों।



राजेन्द्र जी :- हिन्दी की रोटी या हिन्दी का सिगार, अक्षम्य अपराध, शर्मिन्दा है हिन्दी


हिंद युग्म की साथी और हिन्दी की अध्यापिका श्रीमती शोभा महेन्द्रू जी का दर्द उनके ही शब्दों में.............


शर्मिन्दा हुई हिन्दी


हिन्दी की सेवा करने वाले और उसी की कृपा से विख्यात यशस्वी साहित्यकार को देखने और उनको सुनने को मैं बहुत उत्सुक थी। यह सुअवसर मुझे कल २८ दिसम्बर को हिन्द-युग्म के वार्षिक उत्सव में मिल गया। मैं बहुत उत्साहित थी। मेरा उत्साह कुछ ही देर में क्षीण हो गया। माननीय अतिथि बड़े गर्व से सभा में सिगार पी रहे थे। मैं हैरान होकर सोच रही थी-क्या ये वही देश है जहाँ एक एक कलाकार ने केवल इसलिए गाने से इन्कार कर दिया था कि राजा पान खा रहा था। कला के पारखी क्या इतना बदल गए हैं? अपनी संस्कृति कहाँ गई? और हम सब अतिथि देवो भव का भाव रख मौन देख रहे थे।कार्यक्रम की समाप्ति पर जब उन्होने बोलना शुरू किया तब मुझपर तो जैसे बिजली ही गिर गई। उन्होने कहा- आधुनिक तकनीक का प्रयोग करने वाले साहित्यकारों को अपने विचारों में भी आधुनिकता लानी चाहिए। हिन्दी के प्राचीनतम रूप और उसके प्राचीन साहित्य को अजाबघर में रख दो। उसकी अब कोई आवश्यकता नहीं। आज एक ऐसी भाषा कली आवश्यकता है जिसे दक्षिण भारतीय भी समझ सकें। एक विदेशी भी सरलता से सीख सके। अपनी बात के समर्थन में उन्होने कबीर का सर्वाधिक लोकप्रिय दोहा- गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े पढ़ा और उसका विदेश में रह रही महिला द्वारा भावार्थ बता कर मज़ाक उड़ाया। फिर कहा- ऐसी भाषा की अभ कोई आवश्यकता नहीं। इसे अजायबघर में रख दो। अपनी भाषा की सम्पन्नता, उसकी समृद्धि पर गर्व छोड़ उसे दरिद्र बना दो। अपाहिज़ बना दो। एक ऐसी भाषा बना दो जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं। उन्होने हिन्दी साहित्य को भी आज के समय में व्यर्थ बताया। कबीर, प्रेमचन्द आदि का आज कोई महत्व नहीं। मुख्य अतिथि बोलते जा रहे थे और मेरे कानो में भारतेन्दु की पंक्तियाँ - नुज भाषा उन्नत्ति अहै सब उन्नत्ति को मूल गूँज रही थी। यह आधुनिकता है या अन्धानुकरण? संसार की सर्व श्रेष्ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिन्दी तो स्वयं ही वैग्यानिक भाषा है, सरल है तथा अनेक भाषाओं को अपने भीतर समेटे है। फिर सरलता के नाम पर उसे इतना दरिद्र बना देने का विचार????????? और वह भी एक ऐसे साहित्यकार के मुख से जो हिन्दी भाषा के ही कारण सम्मानित हैं-अगर ऐसी बात किसी विदेशी ने कही होती तो मैं उसको अपनी भाषा के अतुल्य कोष से परिचित कराती किन्तु इनका क्या करूँ? हिन्दी और हिन्दी साहित्य के लिए ऐसे अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करने वाले शब्द शीषे के समान कानों में गिरे। हिन्दी की सेवा करने वालों को सम्मिलित रूप से इस तरह के भाषणों का विरोध करना चाहिए। अपनी भाषा की उन्नति होगी किन्तु उसे दरिद्र बनाकर नहीं। हिन्दी का प्राचीन साहित्य अजायबघर में रखने की बात करने वाला स्वयं ही अजायबघर में रखा जाना चाहिए। अपनी भाषा का अपनमान हमें कदापि स्वीकार नहीं। मैं सारे रास्ते यही सोचती रही कि ऐसे लोगों का सामाजिक रूप से बहिष्कार करना चाहिए- जिनको ना निज भाषा और निज देश पर अभिमान है, वह नर नहीं नर पशु निरा और मृतक के समान है।


जय भारत जय


साला चोर कहीं का...मारो इसको/इसकी..कमीना शब्दचोर

आदरणीय अशोक पाण्डेय जी से करबद्ध क्षमा चाहता हूं क्योंकि मैं ठहरा निपट चूतिया तो पाप और गुनाह को एक जैसी ही चीज समझ बैठा अब पता चला कि ये भाषाई अंतर है हिंदी और उर्दू का इसमें शब्दकोश नहीं देखना चाहिये/ग्यान तो नहीं पर एक शब्द है "ज्ञान" जिसे बांटने के लिये कुछ छात्र चाहिये २००९ में आफ़र है सस्ते में बांट रहा हूं अगर आपकी जानकारी में हों तो मेहरबानी करके मेरी दुकान चलवा दीजिये आजीवन दुकान पर "साभार" लिख कार टांगे रहूंगा। कानून की मां-बहन करने के लिये जस्टिस आनंद सिंह ही काफ़ी हैं लेकिन आप तो बस मेरी करिये क्योंकि आप उन्हें जानना नहीं चाहेंगे या फिर है सच जानने की ताकत(वैसे चुप ही रहेंगे ऐसी उम्मीद है) बुरा आदमी हूं, चोर हूं, गलीज़ हूं अंतरात्मा क्या बहिरात्मा क्या कुछ है ही नही... ईमान,दोस्ती,सच्चाई वगैरह जैसे गरिष्ठ आचरण से दूर रहता हूं इससे पेट खराब हो जाता है और जुलाब हो जाता है कोई आयुर्वेविक दवा असर नहीं करती इसलिये हलकट पन में ही स्वास्थ्य तलाश कर भला हूं। चोर हूं इसलिये भड़ास की आत्मा तक चुरा ली है। आदरणीय सुशील जी के लिये मेरा मोबाइल नं.
09224496555, मेरा ई-मेल rudrakshanathshrivastava7@gmail.com , मेरा ब्लाग - http://aayushved.blogsopt.com
जितनी गालियां चाहें दे/प्यार देना चाहें दे सकते है मुकुन्द ने जो करा उसके लिए उसको इतनी गालियां दीजिये कि आप द्वारा दी गयी गालियों को संग्रह कर एक नयी किताब प्रकाशित करा सके
आत्मन अंकित ने जो लिखा वह अंग्रेजी में है तो समझना कठिन है आशा है अगली बार वे हिंदी में लिखेंगे तो मुझ देसी पिल्ले की समझ में आ सकेगा और रही बात बेनामी, अनामी, गुमनामी की तो आपको बस इतना बताना था कि कम से कम जो खुल कर गालियां दे पाने का साहस था, लेकिन ध्यान रहे गालियां मौलिक हों मादर-फादर छाप परम्परागत गालियों को हमने कापीराइट करा लिया है अतः उन्हें प्रयोग नहीं करें:)
जय जय भड़ास

2008 में जिसे नीचता कहते थे 2009 में उसे अच्छाइयों में गिनवा लूंगा

उर्दू स्कूल की बुर्केवाली टीचर मुनव्वर सुल्ताना, चेम्बूर(मुम्बई) की झोपड़पट्टी के पुराने गुंडे मोहम्मद उमर रफ़ाई, लोकल ट्रेन में भीख मांगते हिजड़े मनीषा नारायण को जो कि ब्लागिंग मे घुस आये थे मैंने उनकी सदस्यता रद्द करके हिंदी ब्लागिंग का वातावरण फिर से पवित्र बना लिया है। वर्ष २००८ में मैंने अपने तमाम गलत काम करे लेकिन अब मुझे वर्षांत में सद्बुद्धि प्राप्त हो गयी जिसके चलते मैंने २००९ की पवित्र और बहुजनहिताय शुरुआत के लिये अपनी गलतियां सुधार ली हैं। मैंने दुनिया का सबसे बड़ा हिंदी का ब्लाग रचा लेकिन उसमें कुछ बुरे लोग आ गये जिनकी सदस्यता को मैंने अत्यंत खामोशी से रद्द कर दी है। मुझे पता है कि लोग ज्यादा से ज्यादा चार या छह दिन इन बातों पर चीखते हैं फिर भूल जाते हैं और अब मैं बनियों से मिल कर सबको बनने का संदेश देना सीख चुका हूं इसलिए अब सबकी बेरोजगारी की कुंठा को अपने हित में प्रयोग करूंगा। जब उन्हें चूस कर बेकार कर दूंगा तब सदस्यता समाप्त कर सायबर स्पेस में चिल्लाते रहने के लिये थूक कर निकल जाउंगा। इसी प्रण के चलते मैंने इन लोगों की सदस्यता रद्द करी है लेकिन क्या किसी को हवा भी लगी?क्या ये हुनर मैंने अच्छा नहीं सीख लिया? चूतिया लोग चार दिन चिल्लाएंगे और चुप हो जाएंगे अब मुझें समझ में आ गया है कि किसे कैसे इस्तेमाल करना है इसी के चलते मैं २००८ में जिन बातों को कमीनाप्न और नीचता कहते थे २००९ में अच्छाइयों में गिनवाने में कामयाब हो जाउंगा उम्मीद है आप सब मेरे साथ होंगे।
दुनिया के सबसे बड़े हिंदी ब्लाग का "मादररेटर"
(ये मादररेटर शब्द मुझे बड़ा उचित लगा इस संदर्भ में यानि मां का मोल लगाने वाला)

राष्ट्रवाद और मनीषा दीदी के जन्मोत्सव की प्रासंगिकता

बात तब की है जब कि देश अंग्रेजों के आधीन था कुछ राष्ट्रवादी नेता जो कि खुद ग्रामीण क्षेत्रों से व किसान वर्ग से थे अंग्रेजों के साथ बैठ कर विमर्श कर रहे थे कि देश में गरीबी का कारण क्या है; समय था होली के त्योहार का। अंग्रेज देख रहे थे कि जिन भूखे नंगे किसानो के पास खाने को नहीं है वो भी उस दिन बौराए हुए होली के त्योहार को मना रहे हैं जिनके पास रंग नहीं है वे मिट्टी, कीचड़ और गोबर से ही एक दूसरे को पोत रहे हैं। अंग्रेज इस बात से हैरान परेशान थे कि ये नंगे भूखे किसान क्या पागल हो गये हैं। हमारे एक राष्ट्रवादी नेता ने कहा कि तुम अंग्रेज इस बात को हरगिज नहीं समझ सकते कि ये हमारी परम्पराएं है जो कि भारत को मात्र एक भौगोलिक संरचनाओं का समूह नहीं बल्कि एक राष्ट्र बनाती हैं जिसकी अस्मिता पर आंच आने पर राजा से लेकर भिखारी तक अपनी जान न्योछावर करने को तैयार हो जाता है, हम दिखते भिन्न-भिन्न हैं पर हमारी एकता के मौलिक तत्त्व हमारी परम्पराओं में ही छिपे हैं। मनीषा दीदी के जन्मोत्सव के उल्लास को देख कर मुझे ठीक वैसा ही लगा कि हाशिये से भी धकेल कर अलग कर दिये गये लोगों को संगठित करके जैसे भड़ास के मंच पर डा.रूपेश श्रीवास्तव जी ने एक परंपरा का सूत्रपात कर दिया है वह हमारी राष्ट्रीयता के तत्त्वों में से ही एक है जो एकता को मजबूत और अखंड रखता है। आप सब खुद देख रहे हैं कि लोग जुड़ रहे हैं।

फिर शहीद हुवे हम 29/11/08

अनाथ बच्चे बिलखते
माँ बाप खाली दामन तकते,
फिर कोई फूल चमन से
फिर चमन किसी फूल से
आज महरूम हो गया है ,
फिर पड़ी दरारें आपस में
फिर किसी ने उगला ज़हर है,
फिर खेली गयी होली खून की
फिर शहीद हुवे
भगत चंद्रशेखर अशफाक ,
रोको इन दह्शद-गर्दों को
ये देश की अंधी राजनीति के
पेट से पैदा कुछ कीड़े हैं,
देश बेचने वालों के
ये अन्न दाता हैं
जागो भारत की अब
हम टूटने की कगार पर हैं ,
एक क्रांति और पुकार रही है
सुनो इस पुकार को
आज़ाद करा लो देश
आओ एक बार फिर से
हम सिर्फ क्रांतिकारी बने
एक बार फिर से हम
देश में बदलाव के लिए
संघर्ष करें......,
apka हमवतन भाई गुफरान(AWADH PEPULS FORUM FAIZABAD)

डाक्टर रुपेश श्रीवास्तव का पुनर्जन्म.........

डाक्टर रुपेश श्रीवास्तव पेशे से क्या हैं इन्हें भी नही मालूम, डाक्टरी पढ़ ली और बन गए डाक्टर। ब्लॉग में आए और भड़ास भड़ास कर के लगे कुहराम मचाने। डाक्टरी का धंधा न किया क्यूंकी बाजारू बनना इन्हे पसंद नही और लोगों के बारे में फटाफट सिर्फ़ राय नही रखना अपितु उसके लिए पंगे भी लेना इनका पहला और आखिरी शौक भी है। आयुषवेद ब्लॉग के संचालक और लैंगिक विकलांग (किन्नड़ या हिजडे) के ब्लॉग अर्धसत्य के लेखक महा भडासी हैं, और भड़ास ब्लॉग के मोडरेटर, प्रधान मोडरेटर, और संरक्षक रह चुके हैं।

डाक्टर रुपेश श्रीवास्तव

पिछले दिनों भड़ास पर इनकी मृत्यु हो गयी थी तब से ये महोदय ब्लॉग संसार से गायब थे, और इनका गायब होना कई लोगों को साल रहा था की भैये हमारे रुपेश कहाँ गए, कई लोगों को तो रुपेश के मरने से चड्ढी तक परसंकट लग रहा था क्यूंकि ये चड्ढी उतरने में भी महारथ रखते थे। भड़ास पर असमय कालकलवित हो रहे लोगों की लिस्ट देख कर पशोपेश में तो मैं भी था की मेरी मृत्यु भी असमय ही ना हो जाए। मगर अब इसका डर नही।

मैं पुनर्जन्म में विश्वास नही रखता था मगर हमारे डाक्टर साहब कहते थे की वो मर कर भी भड़ास भड़ास करते रहेंगे और उनका कहना सच साबित हुआ, मौत के बाद भी भुत ने अपने होने का एहसास कराया मगर भड़ास का जूनून और नशा क्या ऐसा हो सकता है की मृत आत्मा सिर्फ़ भड़ास के लिए फ़िर से जन्म ले ?

तो मित्रों आपके इन्तजार का पल ख़तम हो गया और भूत ने पुनर्जन्म लिया है, आप सदैव रुपेश जी के आक्रामक अंदाज और चुटकीले भड़ास से यहाँ रु ब रु होते रहेंगे। बस आपको भड़ास के यु आर एल में थोडी सी तबदीली करनी होगी और (http://bharhaas.blogspot.com/) ये लिखना होगा।

हम तो बस जय भड़ास, जय जय भड़ास का घोष करते हैं।

जय जय भड़ास

पाक की नापाक नौटंकी


पकिस्तान ज़ंग को लेकर जायदा ही कुछ उत्साहित सा नजर आ रहा है जबकि पीछे की सच्चाई से हम सभी बाकिफ है कही ऐसा न हो की पाक...महज एक नौटंकी कर रहा हो जिससे की भारत पर एक हल्का सा दबाब बन सके ! पर पकिस्तान का यह कदम उसके लिए ही खतरनाक साबित होने वाला है क्यों की भारत हर प्रकार से उससे शक्तिशाली है !! पकिस्तान का ये लहजा ऐसा लग रहा है जैसा की एक दीप बुझने से पहेले भभकता है वैसे ही हाल पकिस्तान का हो रहा है !!जब की असलियत पर नजर डाले तो ये है !!!



अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध की आशंका जताई है। सीआईए के अनुसार, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चल रही उठापटक जम्मू-कश्मीर में भी फैल सकती है। इससे भारत को मजबूरन हमला करना पड़ सकता है।
‘ग्लोबल ट्रेंड्स 2015’ नाम से बुश प्रशासन को आगाह करती अपनी रिपोर्ट में सीआईए ने कहा है कि परंपरागत सैन्य क्षमता के हिसाब से भारत अपने पड़ोसी देश के मुकाबले बढ़त पर है। इसके अलावा भारत आर्थिक रूप से भी पाक से कहीं अधिक सक्षम है।
एटमी हथियारों की होड़ :
रिपोर्ट के अनुसार, भारत जल्दी ही अपने परमाणु जखीरे में बढ़ोतरी कर सकता है। पाकिस्तान भी इसी की देखादेखी परमाणु मिसाइलों की तैनाती करेगा। सीआईए का मानना है कि खनिज तेल की अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए भारत फारस की खाड़ी के देशों से अपने रिश्ते मजबूत करेगा, ताकि अरब देशों से पाक के रिश्तों में संतुलन स्थापित किया जा सके।
उबर नहीं सकेगा पाक :
भविष्य के विश्व परिदृश्य का आकलन करते हुए सीआईए ने कहा है कि पाक राजनीतिक, आर्थिक कुप्रबंधन से दशकों तक नहीं निकल पाएगा।
इसके अलावा घरेलू स्तर पर जंगल राज, भ्रष्टाचार और गुटीय संघर्ष से भी पाकिस्तान के उबरने की संभावना कम है।
‘सैन्य क्षमता में बदलाव ही भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध का जोखिम निर्धारित करेगा।’
- सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी (सीआईए)

मुफ़्त विज्ञापन वाहिनी बनी हुई मुंबई की लोकल ट्रेनें और पुरुष-वेश्या का विज्ञापन

सब जानते हैं कि मुंबई एक विचित्र शहर है सुन्दर विषमताओं से भरा हुआ और ऐसी ही हैं यहां की जीवन रेखा को गति देने वाली लोकल ट्रेन। लीजिये हमने जो वीडियो बना पाया है इन्ही विचित्र सी विषमताओं के बीच......। लोकल ट्रेन में गैरकानूनी एडवर्टाइजमेंट का शयद रेलवे बुरा नहीं मानती जबकि इससे लाखों रुपए की राजस्व हानि प्रतिदिन होती है यानि कि यदि आप बिना टिकट यात्रा करें उससे कई सौ गुना हानि रेलवे इन गैरकानूनी एडवर्टाइजमेंट को न रोक कर उठा रही है और मजे की बात तो ये है कि इसमें चोर अपना नाम पता और मोबाइल नंबर तक दे कर जाते हैं कि चूतिया रेलवे वालों अगर उखाड़ सकते हो कुछ भी हमारा तो उखाड़ कर दिखाओ..... मैंने अपने जीवन में शायद इससे ज्यादा सीनाजोरी नहीं देखी है और न ही देख पाऊंगा। अब जरा इस वीडियो को देखिये कि एक प्रेम नाम का आदमी कितनी बेशर्मी से औरतों की मालिश के लिये लड़के उपलब्ध कराने की बात कह रहा है, ढिठाई की हद है यार........

हम सब शामिल मनीषा दीदी के जन्मदिन पर परम्परागत तरीके से.......

बहुत याद करा हम सब ने हमारे परम आदरणीय धर्मपिता शास्त्री श्री जे.सी.फिलिप जी, बहन वंदना भदौरिया जी, श्री दिलीप नागपाल जी को और दिव्या ने बहुत याद किया अपने मामाजी हमारे भाई वरिष्ठ भड़ासी श्री रजनीश के.झा जी को और खूब याद आया दिव्या को वो हम सबका वाशी रेलवे स्टेशन पर मिलना और मेरा सांभर पीना और उनका वीडियो बनाना... :)

परम्परा हमारी प्यार से डूबी हुई आकंठ...

देखिये दीदी ने तोड़ा उपवास मेरे हाथों खीर खाकर........

भूमिका का पंटर और अटल बिहारी दोनो कवि हैं

भाई भड़ासी जनों सक्सेस मंत्रा जी ने अटल बिहारी जी की कविता पोस्ट करी है लेकिन मुझ नादान को कविता की समझ तो है नही लेकिन अपनी-अपनी पसंद की बात है तो भूमिका दीदी की लिखी कविता आप लोगों की नजर कर रही हूं जरा इसे बाजपेयी जी की कविता से तुलना कर के भड़ासाना अंदाज में मजा लीजिये

http://bharhaas.blogspot.com/2008/11/blog-post_6702.html

क्या खोया क्या पाया जग में(अटल जी की कविता)

क्या खोया क्या पाया जग में,
मिलते और बिछड़ते मग में,
मुझे किसी से नहीं शिकायत,
यधपि छला गया पग-पग में,
एक दृष्टि बीती पर डालें,
यादों की पोटली टटोलें,
जन्म मरण का अविरत फेरा,
जीवन बंजारों का अविरत डेरा,
आज यहाँ कल वहाँ कूच है,
कौन जानता किधर सवेरा,
अंधियारा आकाश असीमित,
प्राणों के पखों को तौलें,
अपने ही मन से कुछ बोलें,
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सुबह की तलाश में

जीवन तरंगों में उलझा सा मई
नई सुबह की तलाश करता
रात को भी और दिन को भी।
आज भोर में ही नींद
गायब हो गई आँखों से
कमरे का सन्नाटा मुझे
अब भी सोने के लिए कहता
अंधेरों से बातें करता मै
न जाने कब सो गया
सुबह आई और चली गई
फिर नई सुबह की तलाश में
दिन के उजाले से लड़ता
बढ़ता रहा अनजान राहों पर
धुन्धुलका छाने लगा था
आसमान में,
पंछी डेरे में लौटने लगे थे
और मैं नई सुबह की
तलाश में रास्ता भटक गया हूँ
अँधेरा घिर आया है चाहुओअर
शोर है सिपाया बिल्कुल नही
शायद नई सुबह आने को है
जीवन तरंगों में उलझा सा
आज भी नई सुबह की तलाश करता हूँ.......

दिल्ली से गुडगाँव, डी टी सी की अनकही......

आज कल दिल्ली में हूँ, सालों बाद दिल्ली में होने का मौका हुआ है मगर काज की आप धापी कि लगता है बस डी टी सी बस में ही हूँ। रोज सुबह सुबह उठना जो की सालों पूर्व हमने छोड़ दिया था, सुबह ही नहाना और फ्रेश होकर ऑफिस के लिए तैयार होना उफ्फ आज एक सजा से कम नही लगता कारण वो ही देर तक ऑफिस में रहना देर को सोकर उठाना और देर ही ऑफिस जाने की लत जो पड़ चुकी थी। सो बस ये रूटीन एक सजा सा लगता है और इस सजा में बढोत्तरी तब हो जाती है जब दिल्ली की डी टी सी बस से सफर करके मुझे गुडगाँव जाना पड़ता है।

रोजमर्रा को आत्मसात करता हुआ रोजाना ही अपने दैनिक गतिविधि से अपने को मिलाने की कोशिश कर रहा था कि दिल्ली के डी टी सी बस के कर्मचारियों की हरकतों ने अचानक ही आकर्षित किया।

डी टी सी की ये आपा धापी दिल्ली कि रोजमर्रा है, लोगों की मुसीबत, सरोकार किसी को नही

दिल्ली से गुडगाँव के लिए रोजाना सैकडों बसें चलती हैं, स्थानीय वाहन की तादाद भी भारी मात्रा में है जो लोगों के गमन का साधन है, सो लोगों की भीड़ में मैं भी शामिल हो गया। वाहन की इतनी ज्यादा तादाद होते हुए भी लगता है की कहीं कुछ कमी है और भी होना चाहिए और उत्तर की तलाश में ख़ुद अपने आप से मंथन करता हुआ अपने गंतव्य को रवाना हो जाता। बस ऐसे ही अपनी यात्रा के दौरान एक बार मैंने देखा बस में बड़ा शोर शराबा हो रहा है अपने मंथन से बाहर निकला तो देखता हूँ की टिकट को चेक करने वाले साहिबानों का हुजूम है और इनके कारण ही बस में बेपनाह शोर मची हुई है। देखा की कुछ लोग बिना टिकिट के थे शायद या फ़िर टिकिट कम के बना रखे थे सो उनपर सौ रूपये जुर्माना होना था और ये बड़ी बात भी नही जो आकर्षित कर सके क्यूँकि आपकी गलतियों का खामियाजा आपको ही भुगतना है। आकर्षित सिर्फ़ इस बात से हुआ की डी टी सी की जहालत सब जगह दिख पड़ती है जब इसके कर्मचारी बस में सफर करने वाले को पता नही क्या समझते हैं, कंडक्टर और चेकर की बदतमिजी का मैं प्रत्यक्ष गवाह अपने आप पर काबू न रख सका और इन लोगों से उलझ पड़ा।

उलझने का सिर्फ़ एक कारण जो मैंने इनको बताया जो शायद इनको हजम नही हो रहा था और इन्हें ही नही किसी भी सरकारी कर्मचारी, पदाधिकारी को नही होता है कि ये मानते ही नही कि ये आम लोगों के नौकर हैं। सरकारी नोकर हैं। इन्हें लगता है कि सरकारी मतलब तानाशाही, जो दिल करे जैसा दिल करे करो। कोई क्या कर लेगा। और वो अनपढ़ सा मजदूर सरीखे दिखने वाला मेरा गरीब सहयात्री इनके कोप का भाजन बन रहा था। मैं उठ कर खड़ा हो गया और कहा कि जो भी है आप पर्ची काटो या इसे पकड़ कर ले जाओ मगर तहजीब से, आप बदतमीजी से क्योँ पेश आ रहे हो? उस पर सारे स्टाफ बिदक गए और मुझे पर लगे हावी होने, पाठ पढाने जो हम पढने से रहे, हमारा पारा भी बढ़ता चला जा रहा था सो हम भी हत्थे से उखड गए और आवाज जरुर तेज हो गयी मगर धैर्य नही खोया और भाषा भी संतुलित ही। और उन महाशय को सिर्फ़ इतना ही समझाया कि महोदय आप सरकारी नौकर हो यानी कि इस बस के सभी यात्री के नौकर हो और इनके दिए दस रूपये से डी टी सी के साथ साथ आपकी तनख्वाह भी आती है, आप सिर्फ़ अदब से बात करें, और अपने मोबाइल से एक दो फोटो ले ली इन महाशयों की कि ये फोटो के साथ ब्लॉग पर लगाऊंगा।

फोटो लेते देख शायद इन महानुभावों को हमारे छपासी होने का भान हुआ और भाषा भी नम्र हुई और आगे चुपके से खिसक भी लिए। बदकिस्मती से मेरी मोबाइल ही खो गयी और इन महोदय के अलावा भी बहुत सारी ब्लागचर्चा मोबाइल के साथ ही गुम हो गयी। उनके जाने के बाद मैं भी लोगों पर एक सरसरी नजर डालते हुए खामोशी के साथ वापस अपने सीट पर धंस गया। आँखें मूंद कर वापस विचारों के भंवर में कि क्योँ सरकार, सरकारी तंत्र, और लोकतंत्र के हाथी के दांत यानि की चारो पाये आम आदमी को सिर्फ़ निचोड़ना जानते हैं, और सारे अधिकार रखने वाला आम अपने को इन के हाथों निचुड्वाकर भी खुश है.

बस इसी चिंतन में अपने अगले यात्रा की और बढ़ चला।



लंठ लंठई और लंठाधिराज

पुरानी कहावत है दोस्तों - लंठ न छोडे लंठई , कोटिक मिले अलंठ । इसका सीधा सा तात्पर्य है की लंठ अपनी लंठई कभी नही छोड़ता, भले ही उसे सही लोग मिले। ये फार्मूला इस समय भारत , पाकिस्तान और अमेरिका पर लागु किया जाए तो नज़ारा कुछ इस तरह का बनता है। सबसे बड़ा लानत कौन ? हमारी सरकार। लंठई कौन कर रहा है? पाकिस्तान सरकार । सबसे बड़ा लंठाधिराज कौन ? अरे वही जूते खाने वाला अमेरिका। अब आप ही देखिये कुछ पाकिस्तानी सरफिरों की बाबत मुंबई में आतंकियों ने खून बहाया। एक जिन्दा एविडेंस भी हमारे पास है जो बार-बार जोरदार तरीके से अपने पाकिस्तानी होने का सबूत दे रहा है। हमारी सरकार इतनी लंठ हो गई है की सरे सुबूत लेकर पाकिस्तान की बजाये वॉशिंगटन जा रही है। पाकिस्तान सरकार तो नाडा खोलकर लंठई करने पर उतारू है और हो भी क्यों न उसे पता है की लंठों से कैसे निबटा जाता है। क्योंकि वह ख़ुद सबसे बड़ी लंठई करता रहा है। अब देखिये लंठाधिराज क्या कर रहे हैं ? जैसे ही इनको पता चला की एक लंठ ने घोर लंठई कर डाली तो तुंरत इसने लंठ्रानी राइस को लंठ नगरी का दौरा करने भेज दिया। गुमगिन माहौल में भी लंठ्रानी का अभूत पूर्व स्वागत किया गया। लंठारानी काली बिल्ली म्याऊ- म्याऊ करके वापस चली गई। बोल गई की बहुत हो गई लंठई अब सुधर जाओ। लेकिन साहेब लंठ जो ठहरा वह कब सुधारने लगा ! लगा लंठई पर लंठई करने अभी भी लंठई अनवरत जरी है... हमारी लंठ सरकार लंठ तो थी ही अब लगता है की लकवा भी मार गया है। इसीलिए तो बयां पे बयां दिए जा रहे है। पाकिस्तान की लंठई तो जग जाहिर है, लेकिन हमारी लंठई अभी शुरू हुई है , देखिये अंतुले को जबर्जुस्त लंठई कर गया। अब बयां से भी मुकर गया है , ये हुई न लंठो वाली बात......लेकिन भईये सरकार जी से येही बिनती है की अपनी लंठई से जनता को चुत्तिया मत बनाओ। बयानबाजी वाली लंठई छोडो और पाकिस्तान से राज्नायिनिक सम्बन्ध ख़त्म करो। रेल, हवाई और सड़क मार्ग बंद करो। व्यापर, कारोबार बंद करो। तब कही जाकर पाकिस्तान की लंठई कुछ कम की जा सकती है॥ फर्जी में युद्ध का माहौल बनाकर जो लंठई की जा रही है उससे लंठाधिराज तो खुश हो सकता है। लेकिन इस देश की आम जनता नही। जब तक लंठाधिराज से चिपके रहोगे तब तक बस लंठई होगी और कुछ नही.....
जय भड़ास जय जय भड़ास

मेडिकल ब्लागिंग करने वालों क्या E.T.G. के बारें में चर्चा करने से डरते हो????

अब एक तो हिंदी ब्लागर ऊपर से मेडिकल के बारें में लिखने वाला तो भला सोचिये कि कितना गया गुजरा होगा वो चिकित्सक जो प्रेक्टिस वगैरह के नोट छापने के धंधे को छोड़ कर ब्लागिंग के कीचड़ में कूद पड़े। हमारे देश में तो वैसे भी हिंदी कुंठित और गंवार लोगों की भाषा मानी जाती है ऐसे में भला कोई आयुर्वेद के बारे में क्यों लिखे? लिखे भी तो क्या कफ-पित्त-वात का चूतियापा करे? अरे लिखना है तो बड़ी-बड़ी बातें लिखो जैसे कि डॉ.प्रभात और डॉ.प्रवीन लिखते हैं मजाल है कि हमारे जैसा कोई गंवार वहा पहुंच जाए वहां तो टिप्पणी करने वाले भी गधी के दूध से नहा कर आते हैं। हमारे जैसे धुर गंवारों के गुरूदेव हैं डॉ.देशबंधु बाजपेयी जी बेचरऊ ने अपनी जीवन भर की रचनात्मक ऊर्जा समेट कर एक ऊलजुलूल सा अविष्कार कर डाला है जिसे हम इलैक्ट्रो त्रिदोषग्राम(E.T.G.) कहते हैं। इस अविष्कार के बारे में मैने पहले कुछ लाइने लिखी थीं तो शराफत और बौद्धिकता का जिनका ठेका है उनमें से कई जनों के तो पिछवाडे़ में हवन कुंड बन गया, सुलग गई, धुंआ उठने लगा। मैंने बाबा रामदेब के दोहरे मानदंडों के बारे में लिखा था इसी E.T.G. के संदर्भ में......। अब बाबा जी जैसे वणिक सोच और राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा रखने वाले प्राणी हमारे जैसे तुच्छ, क्षुद्र और गलीज़ लोगों की बातों पर अगर प्रतिक्रिया भी कर दें तो हम बड़े हो जाएंगे तो बाबाजी चुप्पी साध गए। मैंने अब सोचा कि चलो हर एग्रीगेटर(ब्लागो की जानकारी का संकलक) पर सेहत-स्वास्थ्य के खांचे को घेरे रहने वाले डाक्टरों को उंगली करके देखूं क्या होता है क्या वे E.T.G. के बारे में अपनी अति बौद्धिक संपदा हिंदी के ब्लाग पर इस चीज का जिक्र करते हैं या हरामी राजनेताओं की तरह कन्नी काट कर चुप्पी साध लेते हैं। E.T.G. के बारे में बस इतना ही कहना काफी है कि दुर्भाग्य है ये मेरे अविष्कारक गुरूदेव डॉ.देशबंधु बाजपेयी का कि उन्होंने भारत में जन्म लिया है अगर यही वे अमेरिका या किसी भी पश्चिमी देश में पैदा हुए होते तो साले हरामी स्वास्थ्यमंत्री इस तकनीक को खरीदने के लिये मर रहे होते क्योंकि उस तकनीक की खरीद में करोड़ों का घोटाला करने का मौका जो मिल रहा होता। लेकिन हमारा स्वास्थ्य मंत्री है कि उसे समलैंगिकों के बारे में ज्यादा चिंता है पता नहीं क्या खुद भी उल्टी साइकिल तो नहीं है भगवान ही जाने......।
मैं इस पोस्ट के द्वारा साइबर स्पेस में हिंदी के खांचे में मेडिकल का पुछल्ला पकड़ कर अपनी विद्वता की उल्टियां करने वाले सारे ब्लागरों को गरियाता हूं कि कम से कम तुम तो साहस दिखाओ या बस जीवन का सामाजिक संदर्भ बस यही है कि अपनी ही उंगली सूंघो और कहो कि इसमें जरा ही बदबू नहीं है क्योंकि मैं तो गुलाब और केवड़े के फूल खाता हूं। लिखो वरना थू है तुम्हारी ब्लागिंग पर....।

भारतीय पत्रकार का चला खर्चा इराकी जूते से

इराक़ के एक बहादुर पत्रकार ने दुनिया के सबसे ताक़तवर देश के राष्ट्रपति को जूता फेंक कर मारा और मानो जलजला गया, इस लिए नही की अमेरिका ने इस पर प्रतिक्रिया की या इसलिए भी नही की अमेरिका सर्वशक्तीमान पर जुटे से प्रहार हुआ अपितु व्यवसाय की होड़ में अंधी हो चुकी पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा लौटरी निकला, अंधे पत्रकारों के हाथ बटेर लगी.


सबसे ज्यादा जलजला तो हमारे हिन्दुस्तानी मीडिया के हाथ लगा, आख़िर हो भी कैसे नही, हिन्दुस्तान की सरकार के क़दमों चिन्ह पर चलते हुए हमारी मीडिया सब कुछ के लिए अमेरिका का मोहताज जो हो जाती है, राजनेता की तरह पत्रकारिता के भी दामाद अमेरिका जो ठहरे, सो बस जूता ही जूता-मौजा ही मौजा। जूता से स्वागत





सबसे हद तो भारत के पत्रकारों ने कर दी, बेचने की होड़ और लाला जी की सेवा में सदैव त्पर ये पत्रकारों की जमात ने जुटे और जैदी की कवायद तो शुरू की मगर नजरिया सिर्फ़ व्यावसायिक ख़बर बेचना, लोगों की भावना बेचना, संवेदना बेचना और बेचना अपनी पत्रकारिता को।

जूते को बेचा, बुश को बेचा मगर क्या पत्रकारिता पर खड़े उतरे ?

कहाँ है हमारा बहादुर पत्रकार
क्या जैदी जैसा जज्बा, जोश और पत्रकारिता है हमारे देश के पत्रकारों में ?
क्या ये पत्रकारिता के साथ इन्साफ कर रहे हैं ?
क्या व्यवसाय की होड़ में लाला जी की दुकानदारी के ये चाकर लोगों की जुबान बन रहे हैं ?

या फ़िर प्रेस का कार्ड और लोगो लगा कर लालबत्ती का सुख भोग रहे हैं ?
ख़बर के नाम पर मनोरंजन और बेस्वाद व्यंजन पडोसने वाले इन पत्रकारों ने जैदी के लिए मुहीम चलायी है ?
कहाँ है जैदी?
क्या हो रहा है जैदी के साथ?

प्रश्न बहुत सारे हैं मगर जवाब देने वालों में पत्रकार नही क्यौंकी इन्हें इन्तेजार है अगला जूता कौन फेंकेगा, हमारी एक्सक्लूसिव और फुटेज कैसे बनेगी।

प्रश्न है मगर अनुत्तरित ?

हम है राही प्यार के फ़िर मिलेंगे, चलते चलते.

कल रविवार था, छुट्टी का दिन मगर क्या ऐसा होता है, बाकि दिनों से ज्यादा आप रविवार को व्यस्त रहते हैं, अगर आप अकेले रहते हों तो ये व्यस्तता और भी ज्यादा बढ़ जाती है। पूरे हफ्ते का काम काज निबटाने के बाद शाम को बिस्तर पर लेटा ही था कि घंटे भर बाद मेरा अनुज मुझे उठाते हुए कहता है कि भाई जल्दी से उठ जाओ टाइम होने वाला है, कुनमुनाते हुए उठ तो गया पर समझ में नही आया कि किस का टाइम होने वाला है, बहरहाल सामने चाय भी थी सो उठ गया, चाय का लालच तो मुर्दों में भी जान डाल दे हम किस बला का नाम हैं।

उठकर सोफे पर बैठ गया, सरदी की शाम फ़ैल नही सकता सो बैठा भी सिकुड़ कर ही था, चाय सुड़कते हुए पाँच एक मिनट बीते होंगे कि वापस भाई की जोर की आवाज जल्दी से तैयार हो जाओ समय हो गया है लेट हो जाएँगें, सो फटाफट चाय खत्म की थोड़ा सा फ्रेश हुआ (सरदी थी सो ज्यादा होने की हिम्मत नही थी) और कपड़े सपडे बदल कर हो गया तैयार, तब तक में हमारा एक और भाई जो बगल में रहता है आ चुका था। फ़िर सबने साथ ही बताया कि भाई जल्दी से चलो मैंने सुबह ही "रब ने बना दी जोड़ी" की टिकट अनुपम में बुक कर दी थी और पौने सात की शो है सो जल्दी निकलो।

मैं अमूमन सिनेमा से दूर ही रहता हूँ, वजह बहुत सारी जिनका जिक्र करूंगा तो दो तीन पोस्ट बन जायेंगे सो ये किस्सा फ़िर कभी। हमने ऑटो की और पहुँच गए साकेत। सालो बाद अनुपम पर गया था सो कुछ नयी पुरानी यादों के साथ बदला हुआ अनुपम एक अपनेपन का एहसास दे रहा था और रंगीनियों के साथ मस्ती भी।


तुझ में रब दिखता है

अनुपम में सुरक्षा जांच से लेकर अपने सीट तक जाने में पढाई के ज़माने की याद को ताजा करते हुए जा कर सीट पर धंस गया और इन्तज़ार करने लगा सिनेमा के शुरू होने का। शुरूआती विज्ञापन और आनेवाली सिनेमाओं की झलकियों के बाद मेरे चित्रपट की भी बारी आ ही गयी, और फ़िल्म से पहले हो रहे इन छोटे मोटे हलचल की बोरियत से निजात भी।

अमूमन फिल्मों से दूर रहने वाला मैं शाहरुख़ के सिनेमा से अपने को ज्यादा दूर नही रख पाता सो व्यस्त हो गया परदे पर हो रही हलचल के साथ। आम आदमी पर आधारित यह कहानी बदलते परिवेश में कितना सटीक बैठती है के लिए मुझे ज्यादा सोचना नही पड़ा, क्योंकि परदे पर हो रही हलचल और उसपर सामने दर्शकदीर्घा में हो रही चहलपहल सब कुछ बयां कर रही थी।

दोहरे चरित्र को जी रहा सुरिंदर साहनी या ज़माने के हिसाब से बदला राज कपूर, किसकी पसंद कौन ज्यादा बताने की जरुरत नही की दर्शक दीर्घा से हो रही चपर चपर ही दर्शकों के क्षद्म चरित्र का पोल खोल रही थी, मन व्यथित हुआ जा रहा था, कि क्या आज के दौर में आम होना गुनाह है, अगर आप आम हैं, संवेदना के अथाह सागर है, प्रेम का समागम हैं, लोगों की परवाह है यानी की आप सुरिंदर साहनी हैं जिसकी अहमियत सिर्फ़ पंजाब पावर तक सिमटा हुआ है, जिसकी भावना और अभिव्यक्ति की शून्यता लोगों को बिजली के आने जाने की तरह लगती है, मगर उसी साहनी का राज बदल कर लोगों को लुभाना यानी कि समयचक्र के साथ आम का घटता अहमियत सामने आ रहा था, सोच में था कि शायद इसी कारण से लोगों में दिखावे की भावना का जन्म हुआ और ये ही आज चरम पर है, व्यक्तिगत समस्या हो या पारिवारिक, सामजिक हो या धार्मिक बस दिखावा ही दिखावा और ये ही लोगों की पसंद भी, भले ही ये आपकी ज़िन्दगी को दो से चार राहों पर ले जाए. फ़िल्म समाप्त होते होते दुखी और थोड़ा सा मन चंचल भी हो गया, शायद अपनी इन्हीं संवेदनाओं के कारण मैं सिनेमा से परहेज करता हूँ. तुझमे रब दिखता है , यारा मैं क्या करुँ ? ये अनुत्तरित प्रश्न आज के ज़माने में शायद अनुत्तरित ही रहेंगे क्योंकि किसी को किसी में रब नही दिखता, अपने जीवन स्तर को बढ़ाने के लिए किसी का भी बलिदान मंजूर है चाहे वो रब ही क्यों ना हो।

फ़िल्म में आए "तुझमे रब दिखता है , यारा मैं क्या करुँ ?" के गाने में दिए गए संदेश को भी किसी ने नही देखा पढ़ा या रुचा होगा, आख़िर हम सिनेमा जा रहें हैं फालतू मैं अलक लगा कर सरदर्दी मोल क्योँ लें। मगर जिस तरह से इस गाने में सभी धर्मों के प्रति आस्था दिखाई गयी है, सभी में श्रद्धा और विश्वास दिखाया गया है प्रसंशनीय है, साभार हमारी इस मीडिया का, कमोबेश इसी प्रवृत्ति के कारण खबरिया मीडिया ने भी लोगों के आशा के अनुरूप ही खिचडी और चटनी परोसनी शुरू कर दी है।


जिंदगी की असली किताब !!!

आज की इस तेज रफ्तार जिंदगी में अगर पति-पत्नी दोनों कामकाजी हों तो एक-दूसरे के साथ बैठने और बातचीत के लिए भी समय निकालना मुश्किल हो जाता है। इसका सीधा असर पड़ता है उनकी सेक्स लाइफ पर। लंबे समय तक सेक्स के प्रति उदासीनता धीरे-धीरे वैवाहिक जीवन पर असर डालने लगती है। नतीजा होता है आपसी कड़वाहट और रिश्तों में तनाव। भागदौड़ भरी जिंदगी और यौन थकानकॉरपोरेट कल्चर के बीच काम करने वालों की रोजमर्रा की जिंदगी में इतनी जिम्मेदारियां और तनाव होते हैं कि बेडरूम तक पहुंचते-पहुंचते वे बिल्कुल निचुड़ चुके होते हैं। एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले विनय और उनकी साफ्टवेयर इंजीनियर पत्नी गौरी भी इसे स्वीकार करते हैं। गौरी कहती हैं: मैं महसूस करती हूं कि पहले की तरह अब हम सेक्स के लिए समय नहीं निकाल पाते। अक्सर युवा सोचते हैं कि थोड़ा सेटल हो जाएं उसके बाद से इस भागदौड़ भरी जिंदगी को थोड़ा कंट्रोल में लाएंगे। पहले के मुकाबले जागरुक हुए दंपतिहालांकि समाजशास्त्रियों ने महसूस किया है कि अक्सर लेट थर्टीज़ में स्थितियां सुधरने लगती हैं। दंपति शुरुआती जिंदगी के मुकाबले थोड़ा निश्चिंत हो जाते हैं। इसका उनकी सेक्स लाइफ पर सकारात्मक असर पड़ता है। इसके अलावा महानगरों में रहने वाले दंपति अब पहले के मुकाबले ज्यादा जागरुक हो गए हैं। इंटरनेट, सेटेलाइट चैनल और समाज में सेक्स को लेकर आए खुलेपन ने उनकी सोच बदली है। खास तौर पर स्त्रियां यह स्वीकारने लगी हैं कि सेक्स जीवन का एक अहम हिस्सा है। तनाव और थकान भगाता भी है सेक्सयह सच है कि तनाव और थकान का पति-पत्नी के यौन जीवन पर बुरा असर पड़ता है, मगर वहीं यह भी सच है कि सेक्स ही आपके जीवन में पैदा होने वाले दबावों और परेशानियों से जूझने का टॉनिक भी बनता है। हाल ही में हुए शोध तो यहां तक बताते हैं कि नियमित सेक्स रोगों से लड़ने की क्षमता भी बढ़ाता है। जो पति-पत्नी सप्ताह में तीन बार तक सेक्स संबंध बनाते हैं वे अपनी उम्र से कम दिखते हैं। यह सिरदर्द, संधिवात और संक्रामक रोगों से भी बचाता है। जॉगिंग से बेहतर व्यायामसेक्सोलॉजिस्ट कहते हैं कि सेक्स करना जॉगिंग से कहीं बेहतर व्यायाम है। जॉगिंग के दौरान दिल की धड़कन 120 के लगभग होती है जबकि सेक्स संबंध बनाने के दौरान यह 160 तक पहुंच जाती है। सेक्स के दौरान मस्तिष्क के कुछ बेहद खास हिस्सों में रक्त का संचार बढ़ता है। इससे मस्तिष्क शांत होता है और यह थकान और तनाव को खत्म करता है। इससे बदन में हाइड़्रोलिक्स केमिकल का संचार होता है और आपकी त्वचा में स्निग्धता आती है। रिश्तों में निकटता लाता है सेक्ससिर्फ स्वास्थ्य ही नहीं सेक्स का असर आपसी रिश्तों पर भी पड़ता है। यह पति-पत्नी को एक-दूसरे के करीब लाने में भी मदद करता है। उनके पास आपस में एक-दूसरे से कहने लिए बहुत कुछ होता है। वे अपने-आप पर ध्यान देने लगते हैं। पहले के मुकाबले वे ज्यादा चुस्त और स्मार्ट नजर आते हैं। पति-पत्नी के बीच आपसी मधुरता का असर उनके सामाजिक रिश्तों पर भी पड़ता है। उनका चमकता चेहरा उनके जीवन की खुशहाली को दर्शाता है। सेक्स ऐसा जिसे दोनों एंज्वाय करेंमनोचिकित्सकों का मानना है कि जीवन में सकारात्मक ऊर्जा लाने के लिए ऐसा सेक्स जरूरी है जिसे पति-पत्नी दोनों एंज्वाय करें। इसके लिए जरूरी है कि इसे एक मशीनी क्रिया में बदलने की बजाय दिलचस्प बनाने पर जोर दिया जाए। इसमें फोरप्ले और कल्पनाशीलता की अहम भूमिका होती है। दरअसल यही आपको तनाव से मुक्त करता है और एक-दूसरे के करीब लाता है। सेक्स के दौरान सिर्फ एक-दूसरे के अंगों को सहलाकर और चूमकर शिथिलता दूर की जा सकती है। आपस में मधुर बातें, ओरल सेक्स या हस्तमैथुन के जरिए रुटीन की सेक्स लाइफ को ज्यादा स्पाइसी बनाया जा सकता है। इसलिए व्यस्तता भरी जिंदगी में भी सेक्स से मुंह न मोड़ें यह आपके जीवन को ज्यादा ऊर्जा से भरा और स्वस्थ बनाता है।

वेंगसरकर के भोंकने के बाद ही

जब आमदनी हो कम,खर्च हो ज्यादा।
जब भैंस दूध दे कम ,चारा खाये ज्यादा ।
जब खुसी हो कम ,आँसू हो ज्यादा ।
जब दमखम वाले नेता हों कम आतंकवादी हों ज्यादा ।
सिलिण्डर हो कम ,लाईन हो ज्यादा ।
अटल जी हों कम, अंतुले हो ज्यादा ।
फिर भी हौसला रखें क्योंकि ,
कितनी भी काली रात हो सवेरा अवश्य होता है ।
9999 गलती के बाद ही ऐडीसन बल्ब बनाते हैं ।
दसवीं फेल होने के बाद ही आईनस्टीन जैसे वैज्ञानिक बनते हैं ।
वेंगसरकर के भोंकने के बाद ही द्रविड़ सतक बनाते हैं ।

हम भड़ासिन शिक्षिकाएं



बांए से दांए- श्रीमती कृष्णा शर्मा व मुनव्वर आपा
दो भड़ासी शिक्षिकाएं जिनमें एक भड़ासिन तो दूसरी महाभड़ासिन हैं इनमें से मुनव्वर आपा(मुनव्वर सुल्ताना) को तो अपनी तेज़-तर्रार पैनी लेखनी के कारण खाली (कु)ख्याति हासिल कर चुकी हैं और दूसरी हैं नव भड़ासिन कृष्णा शर्मा जी। अब देखिये कि इनके मिलने से आगे क्या-क्या होने वाला है किसकी खुली हुई सिलाई पर टांके कसे जाएंगे और किसकी सिलाई फाड़ी जाएगी:)


इराक के पत्रकार का जूता,भारत के पत्रकारों का जेब खर्च !

इराक़ के एक बहादुर पत्रकार ने दुनिया के सबसे ताक़तवर देश के राष्ट्रपति को जूता फेंक कर मारा और मानो जलजला गया, इस लिए नही की अमेरिका ने इस पर प्रतिक्रिया की या इसलिए भी नही की अमेरिका सर्वशक्तीमान पर जुटे से प्रहार हुआ अपितु व्यवसाय की होड़ में अंधी हो चुकी पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा लौटरी निकला, अंधे पत्रकारों के हाथ बटेर लगी.

सबसे ज्यादा जलजला तो हमारे हिन्दुस्तानी मीडिया के हाथ लगा, आख़िर हो भी कैसे नही, हिन्दुस्तान की सरकार के क़दमों चिन्ह पर चलते हुए हमारी मीडिया सब कुछ के लिए अमेरिका का मोहताज जो हो जाती है, राजनेता की तरह पत्रकारिता के भी दामाद अमेरिका जो ठहरे, सो बस जूता ही जूता-मौजा ही मौजा।




जूता से स्वागत

सबसे हद तो भारत के पत्रकारों ने कर दी, बेचने की होड़ और लाला जी की सेवा में सदैव तत्पर ये पत्रकारों की जमात ने जुटे और जैदी की कवायद तो शुरू की मगर नजरिया सिर्फ़ व्यावसायिक ख़बर बेचना, लोगों की भावना बेचना, संवेदना बेचना और बेचना अपनी पत्रकारिता को।

जूते को बेचा, बुश को बेचा मगर क्या पत्रकारिता पर खड़े उतरे ?
क्या जैदी जैसा जज्बा, जोश और पत्रकारिता है हमारे देश के पत्रकारों में ?
क्या ये पत्रकारिता के साथ इन्साफ कर रहे हैं ?
क्या व्यवसाय की होड़ में लाला जी की दुकानदारी के ये चाकर लोगों की जुबान बन रहे हैं ?
कहाँ है हमारा बहादुर पत्रकार
या फ़िर प्रेस का कार्ड और लोगो लगा कर लालबत्ती का सुख भोग रहे हैं ?
ख़बर के नाम पर मनोरंजन और बेस्वाद व्यंजन पडोसने वाले इन पत्रकारों ने जैदी के लिए मुहीम चलायी है ?
कहाँ है जैदी?
क्या हो रहा है जैदी के साथ?

प्रश्न बहुत सारे हैं मगर जवाब देने वालों में पत्रकार नही क्यौंकी इन्हें इन्तेजार है अगला जूता कौन फेंकेगा, हमारी एक्सक्लूसिव और फुटेज कैसे बनेगी।

प्रश्न है मगर अनुत्तरित ?


हिंदी ब्लागिंग ने दिया हिजड़ा होने का दंड/भड़ास से लैंगिक विकलांग मनीषा नारायण सहित तीन की सदस्यता समाप्त


वैसे भी मैंने जीवन में इतने दुःख तकलीफ़ और तिरस्कार को भोग लिया है कि अब तो यदि कुछ भी ऐसा हो तो कोई आश्चर्य नहीं होता लेकिन अब भी कहीं मन में कुछ मानवीय कमजोरियां शेष हैं जिनके कारण मैं कुछ स्थायी धारणाएं बना लेती हूं किसी भी व्यक्ति के बारे में, मुझे याद आते है वो दिन जब लगभग साल भर पहले मुझे भाई डा.रूपेश श्रीवास्तव अपने घर लेकर आये थे किस तरह हाथ पकड़ कर कंम्प्यूटर पर जबरदस्ती बैठाया था मैं डर रही थी कि कहीं कुछ खराब न हो जाए। हिंदी कम आती थी बस कामचलाऊ या फिर हिंदी में दी जाने वाली गन्दी गन्दी गालियां। भाई ने टाइप करना सिखाया तो अजीब लगा कि अंग्रेजी के की-बोर्ड से हिंदी और तेलुगू व तमिल कैसे टाइप हो रहा है। एक उंगली से टाइप करी पोस्ट शायद भड़ास पर अभी भी अगर माडरेटर भाई ने हटा न दी हों तो पड़ी होगी, एक कुछ लाइन की पोस्ट टाइप करने में ही हाथ दर्द करने लगा था। लिखना सीखा, हिंदी सीखी लेकिन मौका परस्ती न सीख पायी। एक पत्रकार और ब्लागर मनीषा पाण्डेय के नाम से समानता होने के कारण भड़ास पर बड़ा विवाद हुआ जिसमें कि तमाम हिंदी के ब्लागर उस लड़की की वकालत और भड़ास की लानत-मलानत करने आगे आ गये। मैंने सब के सहयोग से अपना वजूद सिद्ध कर पाया। मैं लिखती रही, "अर्धसत्य" (http://adhasach.blogspot.com/) बनाया भाई साहब ने सहयोग करा। कुछ दिन पहले की बात है कि जब भड़ास के मंच पर एक सज्जन(?) ने डा.रूपेश श्रीवास्तव पर एक पोस्ट के रूप में निजी शाब्दिक प्रहार करा कि वे आदर्शवाद की अफ़ीम के नशे में हैं वगैरह...वगैरह। मैंने, भाईसाहब, मुनव्वर सुल्ताना(इन्हे तो भड़ास माता कह कर नवाजा जाता था) ने इसके विरोध में अपनी शैली में लिखा। अचानक इसका परिणाम जो हुआ वह अनपेक्षित था कि भड़ास पर से मेरी, मुनव्वर सुल्ताना और मोहम्मद उमर रफ़ाई की सदस्यता को बिना किसी संवाद या सूचना अथवा आरोप के बड़ी खामोशी से समाप्त कर दिया गया। इससे एक बात सीखने को मिली कि लोकतांत्रिक बातें कुछ अलग और व्यवहार में अलग होती हैं। माडरेटर जो चाहे कर सकता है इसमें लोकतंत्र कहां से आ गया, उनका जब तक मन करा उन्होंने वर्चुअली हमारा अस्तित्त्व जीवित रखा जब चाहा समाप्त कर दिया। मुझे अगर हिजड़ा होने की सजा दी गयी है तो मुनव्वर सुल्ताना और मोहम्मद उमर रफ़ाई को क्या मुस्लिम होने की सजा दी गयी है? यदि इस संबंध में भड़ास के ’एकमात्र माडरेटर’ कुछ भी कहते हैं तो वो मात्र बौद्धिकता जिमनास्टिक होगी क्योंकि बुद्धिमान लोगों के पास अपनी हर बात के लिये स्पष्टीकरण रेडीमेड रखा होता है बिलकुल ’एंटीसिपेटरी’..... वैसे तो चुप्पी साध लेना सबसे बड़ा उत्तर होता है बुद्धिमानों की तरफ से । आज मैं एक बात स्पष्ट रूप से कह रही हूं कि सच तो ये है कि न तो मुनव्वर सुल्ताना का वर्चुअली कोई अस्तित्त्व है और न ही मोहम्मद उमर रफ़ाई के साथ ही मनीषा नारायण का बल्कि ये सब तो फिजिकली अस्तित्त्व में हैं और वर्चुअली अस्तित्त्वहीन और न ही इनकी कोई सोच है अतः इन्हें किसी मंच से हटा देना इनकी हत्या तो नहीं है। मुझे और मेरे भाई को अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है शायद हो सकता है कि आने वाले समय में हम सब भी बुद्धिमान हो सकें और हिंदी ब्लागिंग के अनुकूल दिमाग और दिल रख सकें।
आदतन ही सही लिखूंगी जरूर
जय जय भड़ास

बरसाती मेंढक टूर्र-टूर्र.....

हाय रे मेरे देश की राजनीती... मुए नेताओं को कोई मुद्दा न मिला, पिछले कई दिनों से अंदर ही अंदर किल्बिलाये जा रहे थे। अचानक सांसद अंतुले की जबान ऐंठ गई... वह बोल गया की करकरे को मरने के पीछे साजिश हो सकती है। अबे बेवकूफ इतनी बड़ी साजिश हो गई, सारी दुनिया में दुन्दुभी मच गई, सोया था क्या अभी तक? अब क्या था जिसे देखो अंतुले के पीछे हाथ, पैर, सर सब कुछ धोकर पीछे पड़ गए। कुर्सी भी जाती रही बन्दे की..ये नेता महाराष्ट्र से जुडा हुआ है, इसलिए वहा भी इसका पुरजोर विरोध हुआ। अच्छा लगा की किसी सही बात पे सारे मौकापरस्त एक दिखे। लेकिन उनका क्या जो अभी-अभी समुंदर के खारे पानी में दुबके हुए थे... न जाने कौन सी बयार बही की बरसाती मेंढक की तरह सड़कों पर उतिरा गए। आप बिल्कुल सही समझ रहे है , बात हो रही है अपने आप को भगवन शिव की तथाकथित सेना कहने वाले उन गीदडों की जो मौत बनकर सहर की तरफ़ भागते है। अंतुले ने इनको भी मौका दे दिया तर्ताराने के लिए... अरे मेंढको होश में आओ ये बरसात का नही ठण्ड का महिना है , सड़कों पे दौडोगे तो खामखाह शर्दी लग जायेगी। शर्दी तो दूर की बात है हवा भी लग गई तो शरीर में ऐंठन हो जायेगी। वैसे भी अन्य नेताओं की तरह तुम्हारे शरीर में भी हड्डी तो होती नही है, कब, कहाँ, कैसे और क्यों घुस जाते हो और निकल जाते हो पता ही नहीं चलता। इसलिए भैय्ये लोगों की राय मनो और निकल लो पतली गली से.... क्यूंकि अब लोग जान चुके है की किस मेंढक के बोलने से बरसात होगी और किस के बोलने से आफत आयेगी।

पेशे से पत्रकार हूं लेकिन जो आप को भेज रहा हूं उसे छाप नहीं सकता

वह मासूम छात्रा उन दारिंदों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी

पेशे से पत्रकार हूं लेकिन जो भेज रहा हूं उसे छाप नहीं सकता। न छाप पाने की वजह से भारी कुण्‍ठा में हूं। वैसे भी किसी भी संवेदनशील और जागरूक व्‍यक्ति को हिला कर रख देने वाली है यह घटना। पूरा मामला जानने के बाद सभी हिल जायेंगे । इसलिये अनुरोध है और भी। इस पूरे विवरण को अपने ब्‍लाग पर लाकर सभी ब्लोगर समुदाय की एक मुहीम खडी करने की।

मेरे शहर गोरखपुर में एक प्रतिष्ठित विद्यालय है। शैक्षिक सत्र की शुरुआत होने पर उसमें अपने बच्‍चों को दाखिला दिलाने के लिये जबरदस्‍त मारामारी होती है। उसी विद्यालय में पिछले दिनों एक सनसनीखेज घटना हुई। उस विद्यालय में सांतवीं कक्षा में पढने वाली एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली।

बताते हैं कि विद्यालय में अंग्रेजी पढाने वाले एक शिक्षक ने कुछ छात्रों के साथ मिल कर उस छात्रा का एमएमएस तैयार किया। इसके लिये उन्‍होंने अश्‍लील फिल्‍म में उसकी तस्‍वीर जोड दी और उसे यू ट़यूब में डाल दिया। इतना ही नहीं छात्रों और अंग्रेजी शिक्षक ने उस छात्रा का मनचाहा इस्‍तेमाल भी करना शुरू कर दिया। वह मासूम छात्रा उन दारिंदों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी। सभी मिल कर उसका मनचाहा इस्‍तेमला करने लगे। छात्रों के इस गिरोह में सभी बडे परिवरों के बच्‍चे शामिल थे।

इससे तंग आकर छात्रा ने 6 दिसम्‍बर 08 को अपने घर के अंदर पंखे से झूल कर खुदकुशी कर ली। सूत्र बताते हैं कि छात्रा ने इस संबंध में सुसाइड नोट भी छोडा था। जिससे छात्रा के परिवार वालों को पूरी बात पता चली। हालांकि परिवार वाले इस मामले में मुंह नहीं खोले। लेकिन दूसरे दिन 7 दिसम्‍बर 08 को जब विद्यालय के शिक्षक छात्रा के घर पहुंचे तो छात्रा के परिजनों का आक्रोस फूट पडा। उन्‍होंने शिक्षकों को जम कर धुन दिया।

गौर करने की बात यह है कि इस पूरी घटना के बारे में विद्यालय के हर बच्‍चे को मालूम है। उस विद्यालय में पढने वाले बच्‍चे रिक्‍शे और बसों में इस घटना के बारे में चर्चा करते रहते हैं। बच्‍चों के माध्‍यम से यह बात अन्‍य घरों में भी पहुंच गयी है। अभिभावक सहमे हुये है। खास कर पूरे मामले में विद्यालय के शिक्षक की भूमिका का पता चलने के बाद। लेकिन बच्‍चों की भविष्‍य की चिंता की वजह कोई कुछ बोल नहीं रहा है। विद्यालय परिसर में भी इन दिनों अजीब सा सन्‍नाटा पसरा हुआ है। मगर छात्रा के परिजन अपनी इज्‍जत बचाने के लिये कुछ बोल नहीं रहे हैं।

स्‍थानीय के चलते यह खबर यहां छप नहीं सकती। हालांकि पत्रकार होने की वजह से मैने यह खबर लिखी जरूर है। यदि इस खबर को अपने ब्‍लाग पर जगह देंगे तो मेरे मन में इस घटना को लेकर पल रही कुंठा निकल जायेगी। आपसे अनुरोध है कि इसे ब्लोगरों के बीच लाकर मासूमों के पक्ष में आवाज बुलंद करें। आभारी रहूंगा।

नवनीत
गोरखपुर


साभार:- भडास ब्लॉग

प्रेम की रूमानियत को समझें

मेरे भडासी दोस्त ने चाँद मोहम्मद के प्यार को जिस नजरिये से पेश कर दिया हो सकता है की वो ठीक हो लेकिन..मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा के प्यार न देखे जात और पात। हो सकता है की ये सिर्फ़ मीडिया हाइप के लिए किया गया हो, या ये भी हो सकता है की इसके पीछे भी कोई राजनितिक एजेंडा हो, और जनाब होने को तो कुछ भी हो सकता है। कही भी, किसी से भी और कभी भी प्यार हो सकता है। जब हो गया है तो छुपेगा कैसे। इसलिए सबके सामने है। फिर मैं इनको धन्यवाद देना चाहूँगा की इन्होने डंके की चोट पर दुनिया के सामने कबूल किया की, हाँ हमें प्यार है और हम इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, धर्म परिवर्तन भी॥ दिल्ली में हुई इनकी प्रेस कांफ्रेंस में मै भी मौजूद था। इनको देखने से कही से भी नही लग रहा था की ये कुछ छुपाने की कोशिश कर रहे थे। भाई , चाँद मोहम्मद उन चंद दगाबाज नेताओं से बहुत अच्छे है , जो रात के अंधेरे में नंगे होकर न जाने कितनो को नंगा करते है। चूँकि ये अंधेरे में होता है इसीलिए वह-वह.....अमरमणि त्रिपाठी की प्रेम कहानी ज्यादे दिन पुराणी नही है जिसमे इस नेता ने लड़की का रस चूसने के बाद उसे गोली भी मरवा दी। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह तो कुसुम रोय के चक्कर में अपनी राजनीती ही दाव पर लगा दी। अभी ताज़ा घटना है की कद्दावर नेता नारायण दत्त तिवारी के कथित बेटे ने अपना हक़ माँगा है..ये तो कुछ ऐसे उदाहरण है जिनका जिक्र गाहे-बगाहे होता रहता है..इसके अलावा कई ऐसे नेता हैं जो दुहरी या तिहरी जिंदगी जी रहे हैं, उनका क्या? ये तो अच्छी बात है की स्वार्थ में ही सही लेकिन इन्होने स्वीकार तो किया..और एक बात कुर्सी भी कुर्बान हुई है इनकी। पत्रकार भी अब सवाल कम जवाब ज्यादे देते हैं। एक मोहतरमा ने पूछा क्या आपको कुरान की वो आयत आती है? इस पर फिजा ने उत्तर दिया की क्या आपको हनुमान चालीसा याद है? पत्रकार का मुह देखने लायक था। खुस होइए की आतंक के काले बादलों से प्यार के एक फुहार निकली ..जिसने जाने-अनजाने न जाने कितने लोगों को प्यार की ठंडक से भिगोया। तो स्वागत है चाँद मोहम्मद और फिजा की प्यारी सी दास्ताँ में ..पढिये और मस्त रहिये, दुनिया को रखिये ठेंगे पर...क्योंकि जब आपके जज्बात जागेंगे तो दुनिया काम नही आयेगी और कोई काम आएगा तो सिर्फ़ व सिर्फ़ फिज़ा ............................
जय भड़ास जय जय भड़ास

मस्त फिगर का चस्का,अंग-अंग फड़का

हरियाणा के मुख्‍यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने उप मुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन को पद से हटा दिया है। पार्टी के प्रवक्‍ता ने बताया कि चंद्रमोहन पिछले 50 दिनों से अपने कार्यालय से गैरहाजिर हैं.लेकिन ये बात किसी से छुपी थोड़े ही है नवाब साब आजकल एक खूबसूरत छोकरी के इश्क मे निकम्मे हो रहे है न उन्हें जनता का दुःख दिखाई देता है ना ख़ुशी उन्हें तो सिर्फ अपनी मासूका का चेहरा नजर आता है और वे दुनिया से बेखबर सारा दिन मासूका के साथ कमरे मे बंद रहते है अब भैया जो खबर हम तक आई है सो आप को बता रहे है !

भैया तो आजकल देश मे फ़ैल रहा आतंकवाद,गरीबी और न जाने कितनी समस्याए है लेकिन वो हल कैसे होगी जब हमारे उप मुख्‍यमंत्री ही ऐसे हो ! खैर चंद्रमोहन जी भी जवानी ख़त्म होने से पहेले ही मजे लूटना चाहते है उनका सोचना भी शयद ठीक है की गरीब फिर पैदा होंगे और फिर परेशान करेंगे सो कुछ नया करो !खैर आगे की खबर भी कुछ ऐसी है हुड्डा ने उप मुख्‍यमंत्री चंद्रमोहन को कर्तव्‍य-पालन में शिथिलता बरते जाने पर हटाने का निर्णय लिया. चंद्रमोहन एक माह से गैरहाजिर चल रहे थे. इस वजह से आम जनता में भी चंद्रमोहन की नकारात्‍मक छवि बनती जा रही थी.नए उप मुख्‍यमंत्री के तौर पर अब तक किसी का नाम सामने नहीं आया है. इधर, चंद्रमोहन के भाई और हरियाणा जनहित कांग्रेस के नेता कुलदीप विश्नोई का कहना है कि चंद्रमोहन की इस हरकत से परिवार शर्मिंदा है.अब जिसका पूता इतना अच्छा होगा बह परिवार सर्मिन्दा नहीं होगा तो क्या गर्व महसूस करेगा !!जब तक आशिक kism के नेता भारत को मिलते रहेंगे तब तक बंटाधार होता रहेगा