आत्मन दिवाकर मणि जी,आपने लिखा कि टिप्पणी प्रकाशन में कोई पक्षपात आपने देखा है,मैं इस सामुदायिक पत्रा का संचालक होने के नाते आपसे आग्रह करता हूँ कि कृपया बताएं कि आपने किस पोस्ट पर ये अनुभव करा है। असल में यहां पर टिप्पणी के मॉडरेशन के पीछे कारण है कि बेनामी डरपोक लोग जितनी गालियाँ माँ बहनों को देते हैं आप उसे कदाचित सहन न कर सकेंगे इसलिये उन्हें रोक दिया जाता है। नाम सहित करी टिप्पणियों को मैं और भाई रजनीश झा देखने के बाद प्रकाशित कर देते हैं लेकिन जो बात आप कह रहे हैं उसे अवश्य स्पष्ट करें क्योंकि लेखक भी आपकी करी टिप्पणी हटाने के लिये स्वतंत्र रहता है हो सकता है हमारी नज़र में आने से पहले ही आपकी टिप्पणी लेखक ने हटा दी हो और आपको लगा हो कि ये हमारी धूर्तता या पक्षपात है। रही बात हमारे पिछवाड़े पर लात पड़ने की तो मुंबई में जो हुआ उसे हमसे बेहतर कौन समझ सकता है हमने अपने साथी खोए हैं आप कदाचित गांधी के सिद्धान्तों के पीछे खड़ी हमारी न्यायपालिका और विधायिका के दोमुँहे व्यवहार पर करे गये व्यंग को एकदम सादे अर्थ में ले रहे हैं। यही वह मंच है जहाँ न्यायपालिका के व्यवहार में अनियमितताओं के विरोध में लिखने का साहस है वरना कितने ऐसे पत्रा हैं जहाँ लोग चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया बालाकृष्णन के विरोध में लिख पाते हैं जरा दो चार के नाम लिख दीजियेगा।
नीलाभ वर्मा जी तो पता नहीं किस दुनिया में रह रहे हैं जो कि ये कह रहे हैं कि शायद ही कोई ऐसा भारतीय होगा जो महात्मा गाँधी के सिद्धान्तों से परे है। साफ़ शब्दों के लिखिये कि महात्मा गाँधी का कौन सा सिद्धान्त फांसी का समर्थन करता है। ये विरोधाभास किस बात का है हमारी संवैधानिक व्यवस्था का या फिर गाँधी के आजकल के परिप्रेक्ष्य में समयबाह्य जैसे दिखने का संदर्भ???? मेरी जानकारी में आप सुधार करेंगे इस बात का निवेदन है। क्या महात्मा गाँधी सजा के पक्षधर थे या आप उनसे सहमत नहीं हैं?? आपके अनुसार जो सजा मिली है वह कम है तो आप भड़ास के खुले मंच पर लिखिये कि क्या सजा होती महात्मा गाँधी के सिद्धान्तों से सहमत "सभी" भारतीयों के अनुसार????
क्या कभी आतंकवाद के मूलभूत कारणों पर विमर्श करने का साहस है आपमें??? मैं भड़ास पर आपका स्वागत करता हूँ।
जय जय भड़ास
2 comments:
nice
मान्यवर, सबसे पहले आपको धन्यवाद कि बिलंब से ही सही मेरी टिप्पणियों को आपने प्रकाशित किया। बेनामियों वाली आपकी बात से मैं पूर्ण रूपेण सहमत हूं। मुझे नहीं पता था कि टिप्पणियों का मॉडरेशन दो जगह से होता है, एक लेखक के द्वारा और दूसरा आपके और रजनीश जी के द्वारा। मेरी आपत्ति एडवोकेट शुएब के "लोकसंघर्ष: आतंकवाद" वाले आलेख पर भेजी गई पहली टिप्पणी को लेकर थी जिसे शायद (यदि आपने नहीं मिटाया है तो) लेखक महोदय ने अस्वीकृत कर दिया है। उस प्रथम टिप्पणी में मैंने यही लिखा था कि बहुत से वादों की आप चर्चा कर रहे हैं, शाहिद बद्र फलाही को आप सच्चाई का रहनुमा दिखला रहे हैं, जरा यहां आकर शाहिद मियां की सच्चाई भी जानते चलें- http://diwakarmani.blogspot.com/2008/12/blog-post.html (अंदाज ए बयां : सिमी के पूर्व अध्यक्ष शाहिर बद्र फलाही)
अब आप ही बताइए कि इसमें ऐसा क्या था कि उसे प्रकाशित नहीं होने दिया गया, और उसी समय में वेद विषयक आलेख पर मेरी टिप्पणी प्रकाशित हुई रहती है। इस स्थिति में मैं ही क्या, कोई और भी होता तो ऐसा ही सोचता।
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