बचपन की यादें तस्वीरों के बहाने


रविवार की वो शाम, हलकी हलकी बूंदा बांदी के बीच ऑफिस से घर के लिए निकला, हलकी बरसात हमेशा से ही मेरा पसंदीदा मौसम रहा है सो मैं इसका लुत्फ़ लेने से चूकता नही हूँ और ये ही वजह थी कि बारिश और मैं साथ साथ अपनी मंजिल को रवाना हुए।

ओ सजना, बरखा बहार आयी रस की फुहार लायी अंखियों में प्यार लायी..........

सुमन कल्याणपुर की सुमधुर आवाज मौसम में एक खुशनुमा रंग घोल रहे थी।

चलते चलते बीच में एक खाली छोटा सा मैदान जहाँ मैं रुक गया, कुछ बच्चे पिट्टो-पिट्टो ( एक छोटा सा टीला बनाकर रबड़ की गेंद से उसे गिरना और गिर जाए तो वापस लगना, इस बीच विरोधी खेमा के गेंद के निशाने से भी बचना) शायद अलग अलग हिस्सों में अलग अलग नामों से जाना जाता हो मगर खेल का प्रारूप यही रहता है।

बारिश में भीगता हुआ रूक गया और बच्चों के उस खेल का दर्शक बन गया और खो गया अपनी बचपन में। सच में हमने कितने ही पारंपरिक खेल को खेला। चाहे गिल्ली डंडा हो या कंचे चोर सिपाही या फ़िर पिट्टो, मगर बदलते परिवेश में हमारी पारम्परिकता समाप्त तो नही होती जा रही है। इसी उधेड़बुन में यहीं बैठ गया और एक तरफ़ जहाँ पिट्टो के बहाने बचपन की यादें ताजा वहीँ शहरीकरण में ख़तम होती भारत की परम्परा।

कम्पूटर और तकनीक के बयार में बह गया परम्परा।


बस अब तो यादें ही हैं।

20 comments:

Kusum Thakur said...

सच, बचपन की यादें ताजा कर देती हैं मनुष्य को, चाहे वह अपने बचपन की हों या अपने बच्चे के बचपन की।

निर्मला कपिला said...

बचपन ही तो मस्त है। आब अपने बेटे की शरारतों का आनन्द लिया कीजिये वो भी तो आपकी तरह शरारती है यही सुना है मैने। फिर और भी यादें हम से बाँटें । काश कि बचपन एक बार फिर से लौट कर आ सके। तस्वीर बहुत सुन्दर है शुभकामनायें आभार्

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

बचपन की यादो के झरोखे,
बहुत कुछ याद दिलाते हैं।
बधाई हो!

Ratna said...

इक था बचपन, इक था बचपन्…।

अजेय said...

यहां धुर हिमालय में भी इसे पिट्टू कहते हैं. बचपन मे खूब पिट्टू खेला है. परम्पराएं खत्म नहीं होती. बस स्वस्थ आंखें चाहिए देख सकने वाली.
देखें, दर्ज करें, और सब मिल कर इन्हें सहेजें.
बह्तरीन पोस्ट.

वन्दना said...

bachpan ki yaadein bahut hi sunahri hoti hain aur jab insaan unmein kho jata hai to kuch pal ke liye khud ko bhi bhool jata hai.

Amitraghat said...

आज मनुष्य अपनी निजता से बाहर नहीं निकल पा रहा है कारण साफ़ है हम बड़ी बड़ी खुशियों के चक्कर मैं ये छोटी छोटी खुशियों को छोड़ देते उन्हें याद दिलाने के लिए शुक्रिया
प्रणव सक्सेना अमित्रघात

Deepti Pant said...

wah ravi jee...
m borrowing it...

Ravi Sharma said...

अबकी बारी गाँव में जाकर पनघट पोखर ढूँढूँगा..फिर खलियानों के रस्ते में तितली के पर ढूँढूँगा..!!!

Arun Jain said...

felt very deeply & explained too. really, all those beautiful things of BACHPAN are no more with us now. we must regret........

Shrikant Asthana said...

A post-modernist romantic thought?

Pankaj Narayan said...

धूप के टुकड़े पकड़ कर एक दूसरे के चेहरे पर फेंकना, आसमान के दूसरे सिरे तक जाने के लिए दौड़ना… साथी, क्या हम फिर से उन सपनों तक नहीं पहुंच सकते, जहां लोन कन्याओं की स्कीम न पहुंच पाये। सारे बैंक खाली होने के बाद भी हमारी हथेली को वह धूप का टुकड़ा नहीं दे सकते, जिससे तुम्हारे चेहरे पर थोड़ी रौनक मल सकूं। बचपन के नासमझ सपनों ने हमें दौड़ना सिखाया… अब हमारे समझदार सपने भागना सिखा रहे हैं।

Ashok Rathi said...

बचपन अगर संजोये रहेंगे तो जीवन तो रसमय रहेगा ही मन भी प्रफुल्लित रहेगा. अक्सर हम स्वयं को बड़ा मान लेते हैं ..... फिर कहते हैं क्या बचपना कर रहे हो.... रजनीश जी मैं भी आपके साथ उस पार्क तक हो आया हूँ अच्छा लगा.. पर हर साल पहली बरसात में मैं बेटे के साथ आँगन में जरुर नहाता हूँ बादलों के निचे और पत्नी यही कहती रहती है क्या बचपना कर रहे हो... तो मित्र धन्यवाद ऐसी बातें करते रहिएगा ... ख़ुशी हुई...सादर

Arun Jain said...

मेरा बचपन मुझे कोई लोटा दे , काश ! वक्त को घुमा दे

जिस गोद मै सिर रखकर मैं सो जाया करता था
प्यार भरी थाप से भी रो जाया करता था
कोई मेरे अश्रु वो फिर से बहा दे...
काश ! वक्त को घुमा दे

वो नीर सी नादिया जो गाँव मैं बहती थी
मत नहा तू इसमे माँ डाट कर कहती थी
कोई उस सरिता को फिर से बहा दे
काश ! वक्त को घुमा दे
खेल -कूद लुका -छिपी येही तो जीवन था
वो नींव वो बरगद कितना सघन वन था
कोई उन यादों को फिर से सजा दे
काश ! वक्त को घुमा दे
...
(यथार्थ)
अब नही वो थाप जो फिर हमे रुला दे
अब नही वो नादिया जो फिर हमे निहला दे
अब न कोई मंजिल खड़ी है राहों मैं
अब न कोई अपना जो भर ले बाँहों मैं

अब समय को हम चुपचाप बेबस से ताकते है
बचपन को अपने सिर्फ़ यादों के झरोंखों से झांकते हैं

Suman said...

nice

Ravi Ranjan said...

Good ,

Jha bhaiya Kuchh Naxaliyon per bhi to likhiye .

Vijay Kumar Sappatti said...

rajneesh ji ,

aapne bachpan ki yaad dila di ...

kay kahun , kho sa gaya hoon ...


is behatreen post ke liye meri badhai sweekar karen..

regards

vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com

अग्नि बाण said...

मजा आ गया,
धन्यवाद भाई

रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) said...

प्रतिक्रया के लिए सभी मित्रों को धन्यवाद

रंजनी कुमार झा (Ranjani Kumar Jha) said...

एकदम बचपन में चला गया,
बहुत पिट्टो पिट्टो खेली है हमने भी,
धन्यवाद सर जी

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