बुद्धिजीवियों की बरसात.....

हर कोई व्यस्त है सलाह देने में, हर लोग एक दुसरे को समझाने में लगे हैं कि ग़लत क्या है सही क्या है......योगगुरु अब योगगुरु नही रहे राजनीतिग्य बन गए हैं, योग साधना से उनका ध्यान अचानक ही समाज के घटते सांस्कृतिक मूल्यों की तरफ़ ज्यादा दिख रहा है.....धर्मगुरु भी अब धर्म छोड़ कर सब कुछ बताते हैं....


दूसरी तरफ़ एक बाढ़ सी आ गई है पत्रकारों की, पता नही कैसे, क्यों और कब लोगों ने पत्रकारों को अधिकार सौंपा की हर वो समस्या जो कि समस्या नही है अचानक ही मुद्दा बन जाती है, वैसे इसमे कोई बुराई नही परन्तु हर वो समस्या जो की आम जिंदगी से सरोकार रखती है इन पत्रकार बंधुओं को दिखता ही नही है........आज तक ना ही देखा ना ही सुना कि किसी भी अच्छे कदम जो कि सिस्टम ने उठाये हो उनको हमारे पत्रकारों ने लोगो तक पहुंचाया हो (उस पर इनका कहना है कि ये तो सिस्टम में इनका कर्तव्य है), एक भी स्तरीय बहस चाहे वो संसद में हो या फ़िर जन साधारण के बीच हमारे पत्रकारों को फूटी आँख नही सुहाता है, परन्तु लालू जी की हर वो बात जिसमे जनसाधारण के लिए भले ही कुछ न हो 24X7 देखने और सुनने को मिलता है........


पढ़े लिखे और अनुभवी लोग जो हमारी कार्यपनाली को चलाने के लिए जिम्मेदार है कि पतलून उतारने की ज़िम्मेदारी उन लोगों ने ले रखी है जिनकी शिक्षा और समझ की जानकारी शायद ही किसी आम जन को हो, दुसरे शब्दों में अगर आप कुछ नही हैं तो एक पत्रकार तो हैं ही...


बुद्धिजीवियों की खोज जारी है.......


लेखक : रणधीर झा

10 comments:

नितिन माथुर said...

एक लेबोरेटरी में चार मर्तबानों में केकड़े रखे थे। तीन मर्तबानों के मुंह बंद थे एक का खुला था। किसी ने पूछा की इस मर्तबान का मुंह क्यों खुला है। जवाब मिला की इस मर्तबान में भारतीय केकड़े हैं। एक उपर चढ़ता है तो बाकी उसे नीचे खींच लेते हैं।
लेकिन समाज के मर्तबान में एक औऱ केक़ड़ा है जिसका काम समाज के विभिन्न तबकों को यह बताना है कि अब किस केकड़े को नीचे गिराने का समय आ गया है। और मजे की बात यह है कि केकड़े को उपर भी वही चढ़ाता है।
यह नया केकड़ा किस प्रजाती का है आप सब समझ ही गए होंगे। नहीं समझे तो शायद आप समाचार देखने,सुनने औऱ पढ़ने की बीमारी से बचे हुए हैं।

Kusum Thakur said...

पढ़े लिखे और अनुभवी लोग जो हमारी कार्यपनाली को चलाने के लिए जिम्मेदार है की पतलून उतारने की ज़िम्मेदारी उन लोगों ने ले रखी है जिनकी शिक्षा और समझ की जानकारी शायद ही किसी आम जन को हो, दूसरे शब्दों में अगर आप कुछ नही हैं तो एक पत्रकार तो हैं ही...

बिल्कुल सही कहा है.

Anonymous said...

बहुत तीखे तेवर हैं जनाब के। आप भी वही कर रहे हो जिसका आरोप आप पत्रकारों पर लगा रहे हो। पतलून कौन किसकी उतार रहा है, आप अच्छी तरह जानते है. वैसे ये बताए..वे कौन कौन से सरोकार हैं जो पत्रकार बंधुओं को दिखाई नहीं दे रहा है। एक भी बता दें और बताने से पहले होमवर्क जरुर कर लें कि उन पर मीडिया ध्यान देता है या नहीं। सिर्फ कुढन के कारण कोसना बेकार है..मुद्दे की बात करिए जनाब।

रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) said...

अनाम मित्र,
तेवर पर आपकी प्रतिक्रया गुमनाम हो कर आयी, वस्तुतः ये ही पहचान हमारी मीडिया की भी है, बस क्षद्मता ही क्षद्मता , काश आप खुल कर सामने आते और एक उपयोगी बहस को बनाते,
हम इन्तेजार करेंगे कि आपके बुद्धिजीवी समूह वाकई में हैं या नहीं या स्वयम्भू हैं?

Vivek Kukmar said...

शुरू से शब्द और जादू एक ही चीज थे, और आज भी शब्दों में कुछ जादुई शक्ति कायम है। शब्दों द्वारा एक आदमी दूसरे को अधिक से अधिक सुख भी पहुंचा सकता है और उसे घनी ने घनी निराशा में भी डाल सकता है।

अजय मोहन said...

भाई पतलून उसकी ही उतारना जिसने अंदर चड्ढी पहन रखी हो इस बात की गारंटी हो वरना पता चला कि जिसकी पतलून उतारी वो तो हिजड़ा निकला.... सारा श्रम बेकार जाएगा। आज कल शब्द-शब्द खेल रहे हैं।

रंजनी कुमार झा (Ranjani Kumar Jha) said...

सटीक लेख,
आभार

अग्नि बाण said...

बढे भैया बहुत खूब लिखा,
शब्दों से खेलने वाले रहे नहीं,
निकम्मों की तादाद में अपने आप को बुद्धिजीवी बताने वाले कुकुड़मुत्ते पर सटीक आलेख.

रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) said...

सभी साथी का प्रतिक्रिया के लिए आभार.

सतीश सक्सेना said...

एक अच्छा लेख , यहाँ स्पष्ट बोल पाने वालों की बहुत कमी है , आपको शुभकामनायें !

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