एक और सरदी का आगमन हो गया, ज्यादा पुरानी बात नही है जब पिछले सर्दियों में मैं आगरा में था। बेतरतीब सरदी और दिन से लेकर अहले रात तक कंपकपाते ठण्ड में काम के साथ गप्पें और ठण्ड सभी का आनंद। मगर इसी ठण्ड में बहुत कुछ हुआ, जिन्दगी के कुछ बहुत ही तकलीफदेह पल आए, समवेदना के ज्वार भाटा में उलझा रहा क्यूंकि जो बहुत करीब था वो अचानक से बहुत दूर हो गया। गुमसुम सा सन्नाटे की तरह पसरा बीतती रात की तरह काम से लिपट कर उस एकाकी पल को दूर करने का हरसंभव प्रयास विफल हो रहा था, मुहब्बत का जन्नत ताज का शहर आगरा मेरे उस एक एक पल को भारी कर रहा
आगरा से प्रकाशित होने वाला समाचारपत्र अकिंचन भारत उस समय मेरा ठिकाना हुआ करता था। जहाँ सुबह से लेकर रात के दो से तीन बजे तक में अखबारनवीसों के बीच हुआ करता था, एक नए बच्चा अखबार में कुछ बेहतरीन लोगों का साथ मानों एक परिवार का साथ हो। वरिष्ट पत्रकार गजेन्द्र यादव जी का बड़े भाई का प्यार और स्नेह तो वैभव पाण्डेय का छोटे भाई का प्यार मगर यहाँ चर्चा मैं इस बात का कर रहा हूँ की ये ही वो दिन थे जब ब्लॉग का खुमार मुझ पर भी चढा और ब्लॉग की दुनिया में मैंने भी पदार्पण किया।
यहीं पर सेन्ट्रल डेस्क पर विनीत उत्पल हुआ करते थे, समभाषी होने के कारण, अन्य कारण भी कि हमारी मित्रता भी हुई, पत्रकारों का तकनिकी में रुझान हमेशा मुझे आकर्षित करता रहा है और ये भी एक वजह थी कि विनीत के साथ हमारी गाहे बगाहे बात चीत होती रही। जहाँ मैंने विनीत को ब्लॉग पर लिखते पढ़ते पाया, एक हिन्दी भाषी और हिन्दी प्रेमी का आकर्षित होना निश्चित था सो हुआ भी, और कम्पूटर से तकनिकृत होने के बावजूद ब्लॉग की दुनिया से अनजान मैं ने ब्लॉग में कदम रखा, धन्यवाद विनीत । मुझे कोई हिचक नही शर्म नही की विनीत उत्पल मेरे ब्लॉग गुरु हैं। ब्लॉग बनाने से लेकर ब्लॉग का संचालन (अग्रगेटर) करने वालों पर पंजीकरण तक, या फ़िर विभिन्न ब्लोगों पर भ्रमण तक सब विनीत की ही देन है।
विनीत के बारे में बतात चलूँ कि जब मैं रायपुर के भाष्कर में था तो वहां के वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत शर्मा ने एक बार एक झा जी पत्रकार से मेरी बात करायी जो दिल्ली में थे और प्रशांत जी के साथ काम कर चुके थे, और अकिंचन भारत में आके पता चला कि वो दूर का भाष होने वाला और कोई नही विनीत ही हैं, तभी कहते हैं कि दुनिया गोल है, कोई भी कहीं भी मिल सकता है.
भड़ास का रास्ता भी विनीत का ही दिखाया हुआ है। न्योता पाओ भडासी बनो अद्भुत था वो यशवंत जी का स्लोगन, बिना आकर्षित हुए आप रह ही नही सकते थे सो मैं भी हुआ और बन बैठा भडासी.
आरंभिक दिनों में मैं बस चिट्ठाजगत या ब्लोग्वानी, और नारद सरीखे अग्रगेटर पर ही घुमा करता था, लिखने का वक्त नही सो गाहे बगाहे बस नजर मार लिया करता था, भडास पर आने के बाद भी मजे से पढ़ना और बस पढ़ना इससे ज्यादा नही कर पा रहा था। आगरा से वापिस भी आ चुका था और लिखने की तीव्र इच्छा हिलोरें भी मार थी सो बस कैसे-कैसे के उहा पोह में पड़ा हुआ था की यशवंत सिंह भड़ास वाले मेरे दुसरे गुरु बने जब उन्होंने बताया की कैसे मैं पोस्ट लिख सकता हूँ, (मेरा मतलब भड़ास पर से है), गुरुदेव प्रणाम प्रणाम।
ब्लॉग पर पोस्ट करना तो सीख गया था मगर समयाभाव की बस सिर्फ़ टिपिया कर निकल लेता था, और महीनों सिर्फ़ पढने और टिपियाने का सिलसिला चला, इस बीच मैं रायपुर, नागपुर, दिल्ली होते हुए मायानगरी मुंबई पहुँच गया था। टीका टिपण्णी से लगता था की डॉक्टर रुपेश आजिज आ गए हैं जब मेरे पीछे ही पड़ गए की बहुत हो गया टिपियाना अब जल्दी से पोस्ट डाल दो, और सच्चे अर्थों में कहूं तो पोस्ट लिखने और निरंतर लिखने की प्रेरणा बस डॉक्टर रुपेश का किया धारा है, डॉक्टर साहब को प्रणाम और प्रणाम अपने तीनो गुरुओं को जिनके कारण थोड़ा बहुत लिख कर अपने भाव व्यक्त कर पता हूँ।
यात्रा जारी है और संग ही जारी है मेरे गुरुओं के आशीष जिस से मैं अपने पथ पर अग्रसर हूँ। विचारों का कारवां शायद इसे ही तो कहते हैं।
साल के बदलाव ने बदलते पथ पर बहुत कुछ बदला है और आगे भी बदलेगा.
1 comment:
आप्की ब्लोग यात्रा यु ही चल्ती रहे...शुभ्काम्नाये.
Post a Comment