..कोई रोकता क्यों नही?

कोई सिर्फ़ गजरे से घर सजाना चाहता है तो किसी को आकाश ही चाहिए । किसी को कम पर संतोष नही ...सब एक दुसरे को धोखा देने में लगे है । हर कोई दिखावा ही कर रहा ...सादगी तो जैसे बहुत पीछे .....!
किसी के लिए रिश्ते नाते सब नाटक है ...इसी बहाने लूटने का मौका मिल जाता है ....ओह !अग्नि के सात फेरे का कोई मोल नही ....
देह को लाल पिला करना ही आधुनिकता हो गई ...सबको हो क्या गया है !अबूझ पहेली .....हद हो गई है ।
....कोई रोकता क्यों नही ,रोकने वाले भी तो मिलावटी हो गए है ।

..कोई रोकता क्यों नही?

कोई सिर्फ़ गजरे से घर सजाना चाहता है तो किसी को आकाश ही चाहिए । किसी को कम पर संतोष नही ...सब एक दुसरे को धोखा देने में लगे है । हर कोई दिखावा ही कर रहा ...सादगी तो जैसे बहुत पीछे .....!
किसी के लिए रिश्ते नाते सब नाटक है ...इसी बहाने लूटने का मौका मिल जाता है ....ओह !अग्नि के सात फेरे का कोई मोल नही ....
देह को लाल पिला करना ही आधुनिकता हो गई ...सबको हो क्या गया है !अबूझ पहेली .....हद हो गई है ।
....कोई रोकता क्यों नही ,रोकने वाले भी तो मिलावटी हो गए है ।

ढोंगी बाबा रामदेव की असलियत (पन्नो से) अन्तिम कड़ी !

रामदेव और योग के अलावा अगर राजनीति में रामदेव, व्यवसाय में रामदेव, सत्ता में रामदेव अर्थशास्त्र में रामदेव, मीडिया में रामदेव रामदेव ही रामदेव तो क्या हम इसे भारत का प्रतीक मान लें।

योग गुरु से शुरू हुआ इस पाखंडी का सफर अपने महत्वाकांक्षा के परवान चढ़ते चढ़ते आज इस मुकाम पर आ गया है की इसकी महत्वाकांक्षा ने इसे योग से दूर और अपने स्वहित में राष्ट व्यवसाय में लिप्त एक ऐसे बाबा का रूप ले लिए है जो अपने मूल मन्त्र से इतर हिन्दुस्तानियों की भावनाओं का व्यवसायी बना दिया है।


इस आखिरी कड़ी में मैं बाबा के हकीकत को बयां करने वाली इस खोजपरक पत्रकारिता का आखिरी पन्ना आपके सामने रख रहा हूँ और साथ ही दे रहा हूँ पुराने सभी लिंक जिसको संयुक्त रूप से पढ़ कर इस देशद्रोही बाबा के हकीकत को जान कर आप चौंक उठेंगे,

इस खोजी पत्रकारिता करने वाली वंदना भदौरिया को भड़ास परिवार बधाई देता है और संग ही सच को सामने लेन वाले इस टीम के मुखिया सुधीर सक्सेना जी को उनकी तेम के प्रति विश्वास के लिए आभार व्यक्त करती है।

इस ढोंगी बाबा रामदेव से जुड़े किसी भी प्रकार के शंका निवारण के लिए आप अग्निबाण को मेल कर सकते हैं (agnibaan@gmail.com)

पहली कड़ी
दूसरी कड़ी
तीसरी कड़ी
चौथी कड़ी

पांचवी कड़ी

ढोंगी बाबा रामदेव की असलियत (पन्नो से) अन्तिम कड़ी !

रामदेव और योग के अलावा अगर राजनीति में रामदेव, व्यवसाय में रामदेव, सत्ता में रामदेव अर्थशास्त्र में रामदेव, मीडिया में रामदेव रामदेव ही रामदेव तो क्या हम इसे भारत का प्रतीक मान लें।

योग गुरु से शुरू हुआ इस पाखंडी का सफर अपने महत्वाकांक्षा के परवान चढ़ते चढ़ते आज इस मुकाम पर आ गया है की इसकी महत्वाकांक्षा ने इसे योग से दूर और अपने स्वहित में राष्ट व्यवसाय में लिप्त एक ऐसे बाबा का रूप ले लिए है जो अपने मूल मन्त्र से इतर हिन्दुस्तानियों की भावनाओं का व्यवसायी बना दिया है।


इस आखिरी कड़ी में मैं बाबा के हकीकत को बयां करने वाली इस खोजपरक पत्रकारिता का आखिरी पन्ना आपके सामने रख रहा हूँ और साथ ही दे रहा हूँ पुराने सभी लिंक जिसको संयुक्त रूप से पढ़ कर इस देशद्रोही बाबा के हकीकत को जान कर आप चौंक उठेंगे,

इस खोजी पत्रकारिता करने वाली वंदना भदौरिया को भड़ास परिवार बधाई देता है और संग ही सच को सामने लेन वाले इस टीम के मुखिया सुधीर सक्सेना जी को उनकी तेम के प्रति विश्वास के लिए आभार व्यक्त करती है।

इस ढोंगी बाबा रामदेव से जुड़े किसी भी प्रकार के शंका निवारण के लिए आप अग्निबाण को मेल कर सकते हैं (agnibaan@gmail.com)

पहली कड़ी
दूसरी कड़ी
तीसरी कड़ी
चौथी कड़ी

पांचवी कड़ी

सप्ताहांत में देर तक सोने से बच्चे स्वस्थ !!

वैज्ञानिकों ने हाल ही एक शोध में पाया कि अगर बच्चे सप्ताहांत मे देर तक सोते हैं तो स्वस्थ रहते हैं। पांच से 15 साल के बच्चों का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने शोध में कहा कि जो बच्चे शनिवार और रविवार को देर तक सोते हैं उनमें वजन बढ़ने की संभावना बहुत कम हो जाती है।


अध्ययन में कहा गया है कि रात को कम देर तक सोने से शरीर के उपापचय पर असर पड़ता है जिससे हम अधिक मात्र में कैलोरी लेते हैं और यही वजह मोटापे का कारण बनती है। वैज्ञानिकों ने यह शोध इसलिए किया क्योंकि वे यह देखना चाहते थे कि सप्ताहांत के दिन ज्यादा देर तक सोने से बच्चों पर इसका क्या असर पड़ता है।
वैज्ञानिकों ने करीब पाँच हजार स्कूली बच्चों के माता-पिता से उनकी दिनचर्या, क्या खाते हैं, वजन और सोने के व्यवहार के बारे में जानकारी ली। वैज्ञानिकों का मानना है कि स्कूल के दिन जो बच्चे ठीक से नहीं सो पाते वे सप्ताहांत के दिनों इस कमी को पूरी कर सकते हैं। ज्यादा देर तक सोने से बच्चे वे ज्यादा कैलोरी नहीं ले पाते जिससे उनके मोटे होने का खतरा कम हो जाता है। यह शोध चाइनीज यूनिवर्सिटी ऑफ होंगकोंग के वैज्ञानिकों ने किया। वैज्ञानिकों ने कहा कि मोटे बच्चे जल्दी उठ जाते हैं और उनकी नींद पूरी नहीं हो पाती।

सप्ताहांत में देर तक सोने से बच्चे स्वस्थ !!

वैज्ञानिकों ने हाल ही एक शोध में पाया कि अगर बच्चे सप्ताहांत मे देर तक सोते हैं तो स्वस्थ रहते हैं। पांच से 15 साल के बच्चों का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने शोध में कहा कि जो बच्चे शनिवार और रविवार को देर तक सोते हैं उनमें वजन बढ़ने की संभावना बहुत कम हो जाती है।


अध्ययन में कहा गया है कि रात को कम देर तक सोने से शरीर के उपापचय पर असर पड़ता है जिससे हम अधिक मात्र में कैलोरी लेते हैं और यही वजह मोटापे का कारण बनती है। वैज्ञानिकों ने यह शोध इसलिए किया क्योंकि वे यह देखना चाहते थे कि सप्ताहांत के दिन ज्यादा देर तक सोने से बच्चों पर इसका क्या असर पड़ता है।
वैज्ञानिकों ने करीब पाँच हजार स्कूली बच्चों के माता-पिता से उनकी दिनचर्या, क्या खाते हैं, वजन और सोने के व्यवहार के बारे में जानकारी ली। वैज्ञानिकों का मानना है कि स्कूल के दिन जो बच्चे ठीक से नहीं सो पाते वे सप्ताहांत के दिनों इस कमी को पूरी कर सकते हैं। ज्यादा देर तक सोने से बच्चे वे ज्यादा कैलोरी नहीं ले पाते जिससे उनके मोटे होने का खतरा कम हो जाता है। यह शोध चाइनीज यूनिवर्सिटी ऑफ होंगकोंग के वैज्ञानिकों ने किया। वैज्ञानिकों ने कहा कि मोटे बच्चे जल्दी उठ जाते हैं और उनकी नींद पूरी नहीं हो पाती।

भाई रणधीर "सुमन" जी और भाई गुफ़रान जी मेरी कुछ निजी बातें

मेरी धर्मपुत्री हुमा नाज़ जबरन मुस्कराने की कोशिश करते हुए
मेरी नवजात नातिन पांच घंटे हुए दुनिया में आए नाना की गोद में सुरक्षित महसूस करते हुए
आज कल व्यस्तता की अमीरों को होने वाली बीमारी ने मुझ महाफटीचर को भी अपने चपेट में ले लिया है। सामान्यतः व्यस्तता एक राजरोग है जो कि अमीरों को हुआ करता है लेकिन जब से हमारी बेटी हुमा नाज़ घर पर आयी है तब से हम बिना कुछ करे ही व्यस्त हो गये हैं। भाई सुमन जी से कहा था कि प्रोजेक्ट के बारे में विस्तार से लिख भेजता हूं और गुफ़रान भाई से आने का वायदा करा है लेकिन दोनो अब तक रखे हुए हैं। मेरी धर्मपुत्री हुमा नाज़ को उसके (यहां मैं इतनी गालियां लिख दूंगा कि पेज भर जाएगा लेकिन भड़ास न निकल पाएगी इसलिये ये कार्य आप सब के जिम्मे सौंप रहा हूं) पति ने छह माह का गर्भ पेट में लिये मारपीट कर दर-बदर ठोकर खाने के लिये घर से बाहर निकाल दिया, कारण वही पुराना है, चर्बी आ गयी है अब पत्नी पुरानी लगने लगी है और दूसरी शादी करनी है। बेचारी मेरी बेटी कभी नानी के घर, कभी मामा के घर और कभी अपनी मां यानि आएशा आपा के घर अपनी तकलीफ़ दिल में दबाए भटकती रही क्योंकि वो जानती है कि इनमें से सभी आर्थिक और सामाजिक तौर पर इतने कमज़ोर हैं कि न तो उस कमीने का कुछ बिगाड़ पाएंगे और न ही बेचारी हुमा को अधिक दिनों तक अपने पास रख सकते हैं।मेरी बिटिया ने इस तरह की परिस्थितियों में पांच दिन पहले अस्पताल में बेटी को जन्म दिया। कोढ़ में खाज तो गरीब और बदनसीब को ही होती है सो वैसा ही हुआ, खून पीने वाले व्यवसायिक चिकित्सकों ने बच्चे की दिल की धड़कन कम सुनाई देने का पुराना नाटक खेल कर सिज़ेरियन आपरेशन कर डाला जिसके चलते अब चालीस हजार का बिल बना दिया है। अपनी भी तो मुंह तक फटी है सो जानते हैं कि हमें तो न पैसा चाहिए न प्रसिद्धि और न शांति लेकिन इन बच्चों को तो चाहिए। गुफ़रान भाई यहां तो किसी से बैतूलमाल और कर्ज़-ए-हसना की बात करो तो लोग मुंह देखते हैं जैसे मैंने कुछ विचित्र कह दिया हो और दाढ़ियां लम्बी-लम्बी रखे हुए हैं। अब आप लोग खुद ही विचार करिये कि मेरे जैसा फालतू इंसान आजकल किस कदर व्यस्त है। सवाल हैं हुमा की समस्या का क्या हल निकाला जाए? मेरी नवजात नातिन का क्या भविष्य होगा? क्या हुमा के पति जैसे लोगों का कुछ करा जा सकता है? ऐसी ही कहानी मेरी बहन मुबीना और उसकी नन्ही से बेटी ताबिना की है। जय जय भड़ास

भाई रणधीर "सुमन" जी और भाई गुफ़रान जी मेरी कुछ निजी बातें

मेरी धर्मपुत्री हुमा नाज़ जबरन मुस्कराने की कोशिश करते हुए
मेरी नवजात नातिन पांच घंटे हुए दुनिया में आए नाना की गोद में सुरक्षित महसूस करते हुए
आज कल व्यस्तता की अमीरों को होने वाली बीमारी ने मुझ महाफटीचर को भी अपने चपेट में ले लिया है। सामान्यतः व्यस्तता एक राजरोग है जो कि अमीरों को हुआ करता है लेकिन जब से हमारी बेटी हुमा नाज़ घर पर आयी है तब से हम बिना कुछ करे ही व्यस्त हो गये हैं। भाई सुमन जी से कहा था कि प्रोजेक्ट के बारे में विस्तार से लिख भेजता हूं और गुफ़रान भाई से आने का वायदा करा है लेकिन दोनो अब तक रखे हुए हैं। मेरी धर्मपुत्री हुमा नाज़ को उसके (यहां मैं इतनी गालियां लिख दूंगा कि पेज भर जाएगा लेकिन भड़ास न निकल पाएगी इसलिये ये कार्य आप सब के जिम्मे सौंप रहा हूं) पति ने छह माह का गर्भ पेट में लिये मारपीट कर दर-बदर ठोकर खाने के लिये घर से बाहर निकाल दिया, कारण वही पुराना है, चर्बी आ गयी है अब पत्नी पुरानी लगने लगी है और दूसरी शादी करनी है। बेचारी मेरी बेटी कभी नानी के घर, कभी मामा के घर और कभी अपनी मां यानि आएशा आपा के घर अपनी तकलीफ़ दिल में दबाए भटकती रही क्योंकि वो जानती है कि इनमें से सभी आर्थिक और सामाजिक तौर पर इतने कमज़ोर हैं कि न तो उस कमीने का कुछ बिगाड़ पाएंगे और न ही बेचारी हुमा को अधिक दिनों तक अपने पास रख सकते हैं।मेरी बिटिया ने इस तरह की परिस्थितियों में पांच दिन पहले अस्पताल में बेटी को जन्म दिया। कोढ़ में खाज तो गरीब और बदनसीब को ही होती है सो वैसा ही हुआ, खून पीने वाले व्यवसायिक चिकित्सकों ने बच्चे की दिल की धड़कन कम सुनाई देने का पुराना नाटक खेल कर सिज़ेरियन आपरेशन कर डाला जिसके चलते अब चालीस हजार का बिल बना दिया है। अपनी भी तो मुंह तक फटी है सो जानते हैं कि हमें तो न पैसा चाहिए न प्रसिद्धि और न शांति लेकिन इन बच्चों को तो चाहिए। गुफ़रान भाई यहां तो किसी से बैतूलमाल और कर्ज़-ए-हसना की बात करो तो लोग मुंह देखते हैं जैसे मैंने कुछ विचित्र कह दिया हो और दाढ़ियां लम्बी-लम्बी रखे हुए हैं। अब आप लोग खुद ही विचार करिये कि मेरे जैसा फालतू इंसान आजकल किस कदर व्यस्त है। सवाल हैं हुमा की समस्या का क्या हल निकाला जाए? मेरी नवजात नातिन का क्या भविष्य होगा? क्या हुमा के पति जैसे लोगों का कुछ करा जा सकता है? ऐसी ही कहानी मेरी बहन मुबीना और उसकी नन्ही से बेटी ताबिना की है। जय जय भड़ास

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता - अन्तिम भाग

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात में सन् 2002 में अल्पसंख्यक समुदाय की सामूहिक हत्या एवं बलात्कार काण्ड सम्बंधी मुकदमे को गुजरात राज्य से ठीक चुनाव से पहले बाहर हस्तान्तरित कर दिया ताकि वोटरों का धु्रवीकरण हो जाए एवं यह तर्क दिया गया कि अल्पसंख्यक समुदाय को राज्य में न्याय मिलना असंभव है। यहाँ पर यह बात महत्वपूर्ण है कि राजनैतिक रूप से सक्रिय कारपोरेट घरानों एवं धनी वर्ग, जो कि यू0एस0ए0 एवं ब्रिटेन से घनिष्टता से जुड़े हुए हैं के मुख्यालय महाराष्ट्र एवं गुजरात में हैं। यह भी बात महत्वपूर्ण है कि कर्नाटक राज्य जिसमें कि अभी जल्दी ही कारपोरेट घरानों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों का आधिपत्य हुआ है, में फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों का तेजी से उदय हुआ है। कर्नाटक में स्त्रियों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों, ईसाई मिशनरियों, एवं मुसलमानों पर आक्रमण में बढ़ोत्तरी हुई है। आश्चर्य की बात यह है कि इन हमलों की कोई गंभीर जाँच नही की गई है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा से भरे भाषण भारत में दैनिक चर्चा का विषय बन चुके हैं। न तो ऐसे मामलों की जाँच की जाती है और न ही उन पर मुकदमा चलाया जाता है, अगरचे ऐसा भाषण उच्च पुलिस अधिकारियों जैसे स्व0 हेमन्त करकरे के खिलाफ ही क्यों न हो। हेमन्त करकरे ने, जो मुम्बई के संयुक्त पुलिस आयुक्त थे, ऐसे फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों के खिलाफ धर्मयुद्ध शुरू कर रखा था। उनको 26 नवम्बर 2008 में शिवसेना के प्रमुख अखबार ‘सामना’ के माध्यम से गंभीर परिणाम की धमकी दी गई एवं उसी दिन उनकी हत्या कर दी गई जब मुम्बई पर कुख्यात हमला किया गया। इस हमले में अनेक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं विदेशी मारे गए। आज तक इस हमले का उद्देश्य रहस्य में लिपटा हुआ है।
उड़ीसा, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ में जहाँ कि आदिवासियों की एक बड़ी संख्या मौजूद हैं, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों एवं गरीबों पर हमलों में पिछले दो दशकों मंे काफी वृद्धि हुई है क्योंकि ये लोग अपनी जम़ीन पर अवैध कब्जों का विरोध कर रहे थे जो भारतीय कारपोरेट घरानों एवं मल्टी नेशनल कम्पनियों द्वारा उस क्षेत्र में खनिज खुदाई के नाम पर बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए हुए, हड़पी जा रही थी। ये लोग ‘फूट डालो एवं राज्य करो’’ की नीति का अनुसरण कर रहे हैं।
1991 के पश्चात सुप्रीम कोर्ट के द्वारा यह फैसला लिया गया कि ‘जनहित के नाम’ पर याचिकाओं में सरकार की आर्थिक नीति के मामलों में उच्च अदालतें पुनरावलोकन नहीं करंेगी क्योंकि इसका सम्बन्ध कार्यपालिका की नीति निर्धारण से है। जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को असीम पुनरावलोकन की शक्तियाँ प्रदान की हैं। काम्पट्रोलर एवं आडीटर जनरल आफ, इण्डिया (कैग) जो एक संवैधानिक संस्था है, ने कार्यपालिका के उन अधिकारियों को दोषी ठहराया है जिन्होंने सरकारी संस्थानों का निजीकरण किया। कैग ने निर्णय दिया कि सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के मूल्य का आकलन उचित प्रकार से नहीं किया गया एवं उनका निजीकरण उनकी कीमत से कहीं कम दर पर किया गया जिसके कारण राजकोष को हानि उठानी पड़ी। भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने बालको इम्पलाइज यूनियन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2002 एस0सी0 350) मुकदमे में पब्लिक सेक्टर कम्पनी के निजीकरण के मामले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया, यद्यपि जिन आधारों पर हस्तक्षेप की माँग की जा रही थी, उनमें एक आधार यह भी था कि पब्लिक सेक्टर कम्पनी की सम्पदा का आकलन निजीकरण करने के लिए गलत ढंग से किया गया एवं आरक्षित मूल्य को मनमाने ढंग से निर्धारित किया गया। सी0आई0टी0यू0 बनाम महाराष्ट्र राज्य मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने एक मुख्य टेªड यूनियन की उस याचिका को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया जिसमें इनरान कम्पनी के प्रोजेक्ट को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह प्रोजेक्ट राज्य बिजली बोर्ड की अर्थ व्यवस्था के लिए अहितकारी है एवं यह प्रोजेक्ट भारतीय बिजली अधिनियम के विपरीत है। सेन्टर फार पब्लिक इन्टरेस्ट लिटीगेशन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2008 एस0सी0 606) मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने, एक सार्वजनिक उपक्रम आयल एण्ड नेचुरल गैस कमीशन (ओ0एन0जी0सी0) द्वारा एक प्राइवेट कम्पनी रिलायन्स को आफशोर गैस एवं आॅयल कुओं की बिक्री, में जाँच करने से इन्कार कर दिया। इस याचिका में उक्त बिक्री में भ्रष्टाचार की शिकायत की गई थी तथा सबूत पेश किए गए थे जिसमें सी0बी0आई0 के एक अधिकारी की टिप्पणी भी थी कि इस मामले में अपराधिक मुकदमा दायर किया जाए।
नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप कार्य के स्थायित्व की कानूनी अवधारणा को नुकसान पहुँचा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सम्बंध में अपने पहले के कई निर्णयों को बदला है। साथ ही साथ ‘कान्टैªक्ट लेबर एक्ट 1970 (नियमितीकरण एवं उन्मूलन) की भी खिलाफवर्जी की है। इस कानून के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि कार्य विशेष के लिए समझौते के आधार पर श्रम को समाप्त किया गया है एवं यदि कार्य की प्रकृति स्थाई है तथा कार्य करने वाला इस सम्बन्ध में आवेदन पत्र भी देता है तो कार्य करने वाले को स्थायी आधार पर सेवा दी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में स्टील अर्थारिटी आॅफ इण्डिया लिमिटेड बनाम नेशनल यूनियन वाटर, फ्रन्ट वर्कर्स (ए0आई0आर0 एस0सी0 527) मुकदमे में फैसला दिया कि समझौता पर आधारित श्रम अब समाप्त हो चुका है एवं कार्य की प्रकृति भी स्थायी है तथापि वर्तमान समझौते पर रखे गए मजदूरों को स्थाईं तौर पर नौकरी दिए जाने का कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है। इस फैसले से हजारों मजदूरों के लिए जो सेवा में स्थायित्व चाहते थे, कोर्ट का दरवाजा बन्द हो गया है।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के द्वारा डा0 विनायक सेन को 2007 में जमानत पर रिहा न करने के फैसले की काफी आलोचना की गई है। 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने उनको रिहा करने की अपील की थी। डा0 विनायक सेन, पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टी के उपाध्यक्ष हैं। साथ ही साथ वह प्रसिद्ध समाजसेवी तथा बच्चों के मशहूर डाक्टर हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य में गरीब आदिवासियों के उत्थान के लिए काफी कार्य किया है। वे पिछले 20 महीनों से जेल में सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन को अनिश्चित काल के लिए इसलिए जेल में डाला गया क्योंकि उन्होंने ‘सलवा’ जुडूम का विरोध किया था। सलवा जुडूम एक राज्य पोषित सशस्त्र संगठन है जिसको छत्तीसगढ़ राज्य में उन राजनैतिक आन्दोलन कारियों एवं लोगों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए सरकार द्वारा खुली छूट दे दी गई हैं जो भारतीय कारपोरेट कम्पनियों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों के द्वारा जमीन एवं संशाधनों पर कब्जे का प्रबल विरोध कर रहे हैं। हजारों आदिवासियों को पैरामिलिट्री सेनाओं के द्वारा छोटे-छोटे गाँवों में बन्दी बना दिया गया है। नागरिकों द्वारा गठित की गई जाँच समितियों ने फैसला दिया है कि डा0 विनायक जेल अधिकारियों की पूर्व अनुमति से जेल के अन्दर वृद्ध माओवादी कैदी को चिकित्सीय सहायता देने के लिए गए थे। इसी कारण उनको छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट 2005 एवं अवैध गतिविधियाँ (रोकथाम) एक्ट 1967 के तहत गिरफ्तार किया गया। उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे गुप्त दस्तावेज ले जाने का कार्य करते हैं। इस राक्षसी कानून के अन्तर्गत 1000-से ऊपर राजनैतिक कैदी राज्य की विभिन्न जेलोें में विगत कई वर्षों से सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन जो हृदय रोग के गंभीर मरीज हैं, उनको आवश्यक चिकित्सीय सुविधा नहीं पहुँचाई गई। अदालत ने अभी जल्दी ही ये आदेश दिया है कि कैदी की मेडिकल रिपोर्ट प्राप्त की जाए एवं उन्हें आवश्यक चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराई जाए। (डा0 विनायक सेन को इस लेख के लिखने के दो महीने के बाद मई 2009 में अन्ततोगत्वा रिहा कर दिया गया।)
20 जनवरी 2005 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने पूरे हिन्दुस्तान की टेªड यूनियनों के पदाधिकारियों एवं सदस्यों को आश्चर्य में डाल दिया। सुप्रीम कोर्ट ने, एक विशेष अनुमति याचिका जिसको सी0बी0आई0, मध्य प्रदेश राज्य, एवं छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा आदि ने दायर किया था, पाँच मुख्य षड़यंत्रकारियों को रिहा कर दिया जिन पर टेªड यूनियन लीडर गुहानियोगी की हत्या का आरोप था। इन पाँचों में दो उद्योगपति, ओसवाल आॅयल एण्ड स्टील प्राइवेट लिमिटेड के मालिक चन्द्रकान्त शाह तथा सिम्पलेक्स इण्डस्ट्रीज के मालिक, मूलचन्द भी थे। सुप्रीम कोर्ट ने छठे व्यक्ति अर्थात जिस व्यक्ति को गुहा नियोगी को मारने की सुपारी दी गई थी, को उम्रकैद की सजा सुनाई। इसके पूर्व दुर्ग की सेशन कोर्ट ने पाँच अभियुक्तों जिसमें दो उद्योगपति शामिल थे उम्र कैद की सजा दी थी तथा छठे को जिसने सुपारी ली थी मौत की सजा सुनाई थी। गुहा नियोगी, जो मशहूर ट्रेड यूनियन नेता थे, को 25 सितम्बर 1991 को पत्तन मल्लाह, जो भाड़े का कातिल था, जिसके साथ गुहा की कोई शत्रुता न थी, के द्वारा निर्ममता से हत्या कर दी गई थी। सेशन्स कोर्ट के मुकदमें के दौरान सरकारी वकील ने यह आरोप लगाया था कि भिलाई के दो अग्रणी उद्योगपतियों ने शंकर गुहा नियोगी की हत्या करवाई क्योंकि नियोगी मजदूरों को संगठित कर रहा था और उनसे टेªड यूनियनें बनवा रहा था। जिसके कारण मजदूरों से सम्बंधित बहुत से कानून उस क्षेत्र में लागू करने पड़ रहे थे। इसके पूर्व, हाईकोर्ट ने सेशन्स कोर्ट के फैसले को उलटते हुए सभी 6 अभियुक्तों को रिहा कर दिया था।
उपर्युक्त न्यायिक निर्णयों का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट रूप से जाहिर हो रही है कि न्यायालय की स्वतंत्रता तो सैद्धांतिक रूप से मौजूद है परन्तु वास्तव में न्यायालय दुनिया के दो बड़े प्रजातंत्रों एवं अन्य में स्वतंत्र नहीं हैं। संसार में बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं। पुरानी प्रजातांत्रिक व्यवस्था, अपने सामाजिक एवं आर्थिक महत्व एवं उपयोगिता को खो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, ‘‘बानकी मून’’ ने वर्तमान राजनैतिक एवं आर्थिक संस्थाओं की निरर्थकता को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित टिप्पणी की है क्योंकि ये संस्थाएँ आर्थिक एवं राजनैतिक संकट का सामना नही कर पा रही हैः-
‘‘हमने परिवर्तन की भयानकता को देखा है, मुझे डर है कि अभी हालात इससे भी खराब आने हैं। एक ऐसा राजनैतिक तूफान आएगा, जिससे समाज में अव्यवस्था बढ़ेगी, सरकारें और निर्बल होंगी एवं जनता और क्रुद्ध होगी-ऐसी जनता जिसने अपने नेताओं और स्वयं अपने भविष्य में विश्वास को खो दिया होगा।’’

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

अन्तिम भाग
( समाप्त )

loksangharsha.blogspot.com

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता - अन्तिम भाग

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात में सन् 2002 में अल्पसंख्यक समुदाय की सामूहिक हत्या एवं बलात्कार काण्ड सम्बंधी मुकदमे को गुजरात राज्य से ठीक चुनाव से पहले बाहर हस्तान्तरित कर दिया ताकि वोटरों का धु्रवीकरण हो जाए एवं यह तर्क दिया गया कि अल्पसंख्यक समुदाय को राज्य में न्याय मिलना असंभव है। यहाँ पर यह बात महत्वपूर्ण है कि राजनैतिक रूप से सक्रिय कारपोरेट घरानों एवं धनी वर्ग, जो कि यू0एस0ए0 एवं ब्रिटेन से घनिष्टता से जुड़े हुए हैं के मुख्यालय महाराष्ट्र एवं गुजरात में हैं। यह भी बात महत्वपूर्ण है कि कर्नाटक राज्य जिसमें कि अभी जल्दी ही कारपोरेट घरानों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों का आधिपत्य हुआ है, में फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों का तेजी से उदय हुआ है। कर्नाटक में स्त्रियों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों, ईसाई मिशनरियों, एवं मुसलमानों पर आक्रमण में बढ़ोत्तरी हुई है। आश्चर्य की बात यह है कि इन हमलों की कोई गंभीर जाँच नही की गई है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा से भरे भाषण भारत में दैनिक चर्चा का विषय बन चुके हैं। न तो ऐसे मामलों की जाँच की जाती है और न ही उन पर मुकदमा चलाया जाता है, अगरचे ऐसा भाषण उच्च पुलिस अधिकारियों जैसे स्व0 हेमन्त करकरे के खिलाफ ही क्यों न हो। हेमन्त करकरे ने, जो मुम्बई के संयुक्त पुलिस आयुक्त थे, ऐसे फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों के खिलाफ धर्मयुद्ध शुरू कर रखा था। उनको 26 नवम्बर 2008 में शिवसेना के प्रमुख अखबार ‘सामना’ के माध्यम से गंभीर परिणाम की धमकी दी गई एवं उसी दिन उनकी हत्या कर दी गई जब मुम्बई पर कुख्यात हमला किया गया। इस हमले में अनेक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं विदेशी मारे गए। आज तक इस हमले का उद्देश्य रहस्य में लिपटा हुआ है।
उड़ीसा, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ में जहाँ कि आदिवासियों की एक बड़ी संख्या मौजूद हैं, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों एवं गरीबों पर हमलों में पिछले दो दशकों मंे काफी वृद्धि हुई है क्योंकि ये लोग अपनी जम़ीन पर अवैध कब्जों का विरोध कर रहे थे जो भारतीय कारपोरेट घरानों एवं मल्टी नेशनल कम्पनियों द्वारा उस क्षेत्र में खनिज खुदाई के नाम पर बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए हुए, हड़पी जा रही थी। ये लोग ‘फूट डालो एवं राज्य करो’’ की नीति का अनुसरण कर रहे हैं।
1991 के पश्चात सुप्रीम कोर्ट के द्वारा यह फैसला लिया गया कि ‘जनहित के नाम’ पर याचिकाओं में सरकार की आर्थिक नीति के मामलों में उच्च अदालतें पुनरावलोकन नहीं करंेगी क्योंकि इसका सम्बन्ध कार्यपालिका की नीति निर्धारण से है। जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को असीम पुनरावलोकन की शक्तियाँ प्रदान की हैं। काम्पट्रोलर एवं आडीटर जनरल आफ, इण्डिया (कैग) जो एक संवैधानिक संस्था है, ने कार्यपालिका के उन अधिकारियों को दोषी ठहराया है जिन्होंने सरकारी संस्थानों का निजीकरण किया। कैग ने निर्णय दिया कि सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के मूल्य का आकलन उचित प्रकार से नहीं किया गया एवं उनका निजीकरण उनकी कीमत से कहीं कम दर पर किया गया जिसके कारण राजकोष को हानि उठानी पड़ी। भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने बालको इम्पलाइज यूनियन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2002 एस0सी0 350) मुकदमे में पब्लिक सेक्टर कम्पनी के निजीकरण के मामले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया, यद्यपि जिन आधारों पर हस्तक्षेप की माँग की जा रही थी, उनमें एक आधार यह भी था कि पब्लिक सेक्टर कम्पनी की सम्पदा का आकलन निजीकरण करने के लिए गलत ढंग से किया गया एवं आरक्षित मूल्य को मनमाने ढंग से निर्धारित किया गया। सी0आई0टी0यू0 बनाम महाराष्ट्र राज्य मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने एक मुख्य टेªड यूनियन की उस याचिका को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया जिसमें इनरान कम्पनी के प्रोजेक्ट को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह प्रोजेक्ट राज्य बिजली बोर्ड की अर्थ व्यवस्था के लिए अहितकारी है एवं यह प्रोजेक्ट भारतीय बिजली अधिनियम के विपरीत है। सेन्टर फार पब्लिक इन्टरेस्ट लिटीगेशन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2008 एस0सी0 606) मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने, एक सार्वजनिक उपक्रम आयल एण्ड नेचुरल गैस कमीशन (ओ0एन0जी0सी0) द्वारा एक प्राइवेट कम्पनी रिलायन्स को आफशोर गैस एवं आॅयल कुओं की बिक्री, में जाँच करने से इन्कार कर दिया। इस याचिका में उक्त बिक्री में भ्रष्टाचार की शिकायत की गई थी तथा सबूत पेश किए गए थे जिसमें सी0बी0आई0 के एक अधिकारी की टिप्पणी भी थी कि इस मामले में अपराधिक मुकदमा दायर किया जाए।
नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप कार्य के स्थायित्व की कानूनी अवधारणा को नुकसान पहुँचा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सम्बंध में अपने पहले के कई निर्णयों को बदला है। साथ ही साथ ‘कान्टैªक्ट लेबर एक्ट 1970 (नियमितीकरण एवं उन्मूलन) की भी खिलाफवर्जी की है। इस कानून के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि कार्य विशेष के लिए समझौते के आधार पर श्रम को समाप्त किया गया है एवं यदि कार्य की प्रकृति स्थाई है तथा कार्य करने वाला इस सम्बन्ध में आवेदन पत्र भी देता है तो कार्य करने वाले को स्थायी आधार पर सेवा दी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में स्टील अर्थारिटी आॅफ इण्डिया लिमिटेड बनाम नेशनल यूनियन वाटर, फ्रन्ट वर्कर्स (ए0आई0आर0 एस0सी0 527) मुकदमे में फैसला दिया कि समझौता पर आधारित श्रम अब समाप्त हो चुका है एवं कार्य की प्रकृति भी स्थायी है तथापि वर्तमान समझौते पर रखे गए मजदूरों को स्थाईं तौर पर नौकरी दिए जाने का कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है। इस फैसले से हजारों मजदूरों के लिए जो सेवा में स्थायित्व चाहते थे, कोर्ट का दरवाजा बन्द हो गया है।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के द्वारा डा0 विनायक सेन को 2007 में जमानत पर रिहा न करने के फैसले की काफी आलोचना की गई है। 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने उनको रिहा करने की अपील की थी। डा0 विनायक सेन, पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टी के उपाध्यक्ष हैं। साथ ही साथ वह प्रसिद्ध समाजसेवी तथा बच्चों के मशहूर डाक्टर हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य में गरीब आदिवासियों के उत्थान के लिए काफी कार्य किया है। वे पिछले 20 महीनों से जेल में सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन को अनिश्चित काल के लिए इसलिए जेल में डाला गया क्योंकि उन्होंने ‘सलवा’ जुडूम का विरोध किया था। सलवा जुडूम एक राज्य पोषित सशस्त्र संगठन है जिसको छत्तीसगढ़ राज्य में उन राजनैतिक आन्दोलन कारियों एवं लोगों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए सरकार द्वारा खुली छूट दे दी गई हैं जो भारतीय कारपोरेट कम्पनियों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों के द्वारा जमीन एवं संशाधनों पर कब्जे का प्रबल विरोध कर रहे हैं। हजारों आदिवासियों को पैरामिलिट्री सेनाओं के द्वारा छोटे-छोटे गाँवों में बन्दी बना दिया गया है। नागरिकों द्वारा गठित की गई जाँच समितियों ने फैसला दिया है कि डा0 विनायक जेल अधिकारियों की पूर्व अनुमति से जेल के अन्दर वृद्ध माओवादी कैदी को चिकित्सीय सहायता देने के लिए गए थे। इसी कारण उनको छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट 2005 एवं अवैध गतिविधियाँ (रोकथाम) एक्ट 1967 के तहत गिरफ्तार किया गया। उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे गुप्त दस्तावेज ले जाने का कार्य करते हैं। इस राक्षसी कानून के अन्तर्गत 1000-से ऊपर राजनैतिक कैदी राज्य की विभिन्न जेलोें में विगत कई वर्षों से सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन जो हृदय रोग के गंभीर मरीज हैं, उनको आवश्यक चिकित्सीय सुविधा नहीं पहुँचाई गई। अदालत ने अभी जल्दी ही ये आदेश दिया है कि कैदी की मेडिकल रिपोर्ट प्राप्त की जाए एवं उन्हें आवश्यक चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराई जाए। (डा0 विनायक सेन को इस लेख के लिखने के दो महीने के बाद मई 2009 में अन्ततोगत्वा रिहा कर दिया गया।)
20 जनवरी 2005 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने पूरे हिन्दुस्तान की टेªड यूनियनों के पदाधिकारियों एवं सदस्यों को आश्चर्य में डाल दिया। सुप्रीम कोर्ट ने, एक विशेष अनुमति याचिका जिसको सी0बी0आई0, मध्य प्रदेश राज्य, एवं छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा आदि ने दायर किया था, पाँच मुख्य षड़यंत्रकारियों को रिहा कर दिया जिन पर टेªड यूनियन लीडर गुहानियोगी की हत्या का आरोप था। इन पाँचों में दो उद्योगपति, ओसवाल आॅयल एण्ड स्टील प्राइवेट लिमिटेड के मालिक चन्द्रकान्त शाह तथा सिम्पलेक्स इण्डस्ट्रीज के मालिक, मूलचन्द भी थे। सुप्रीम कोर्ट ने छठे व्यक्ति अर्थात जिस व्यक्ति को गुहा नियोगी को मारने की सुपारी दी गई थी, को उम्रकैद की सजा सुनाई। इसके पूर्व दुर्ग की सेशन कोर्ट ने पाँच अभियुक्तों जिसमें दो उद्योगपति शामिल थे उम्र कैद की सजा दी थी तथा छठे को जिसने सुपारी ली थी मौत की सजा सुनाई थी। गुहा नियोगी, जो मशहूर ट्रेड यूनियन नेता थे, को 25 सितम्बर 1991 को पत्तन मल्लाह, जो भाड़े का कातिल था, जिसके साथ गुहा की कोई शत्रुता न थी, के द्वारा निर्ममता से हत्या कर दी गई थी। सेशन्स कोर्ट के मुकदमें के दौरान सरकारी वकील ने यह आरोप लगाया था कि भिलाई के दो अग्रणी उद्योगपतियों ने शंकर गुहा नियोगी की हत्या करवाई क्योंकि नियोगी मजदूरों को संगठित कर रहा था और उनसे टेªड यूनियनें बनवा रहा था। जिसके कारण मजदूरों से सम्बंधित बहुत से कानून उस क्षेत्र में लागू करने पड़ रहे थे। इसके पूर्व, हाईकोर्ट ने सेशन्स कोर्ट के फैसले को उलटते हुए सभी 6 अभियुक्तों को रिहा कर दिया था।
उपर्युक्त न्यायिक निर्णयों का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट रूप से जाहिर हो रही है कि न्यायालय की स्वतंत्रता तो सैद्धांतिक रूप से मौजूद है परन्तु वास्तव में न्यायालय दुनिया के दो बड़े प्रजातंत्रों एवं अन्य में स्वतंत्र नहीं हैं। संसार में बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं। पुरानी प्रजातांत्रिक व्यवस्था, अपने सामाजिक एवं आर्थिक महत्व एवं उपयोगिता को खो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, ‘‘बानकी मून’’ ने वर्तमान राजनैतिक एवं आर्थिक संस्थाओं की निरर्थकता को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित टिप्पणी की है क्योंकि ये संस्थाएँ आर्थिक एवं राजनैतिक संकट का सामना नही कर पा रही हैः-
‘‘हमने परिवर्तन की भयानकता को देखा है, मुझे डर है कि अभी हालात इससे भी खराब आने हैं। एक ऐसा राजनैतिक तूफान आएगा, जिससे समाज में अव्यवस्था बढ़ेगी, सरकारें और निर्बल होंगी एवं जनता और क्रुद्ध होगी-ऐसी जनता जिसने अपने नेताओं और स्वयं अपने भविष्य में विश्वास को खो दिया होगा।’’

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

अन्तिम भाग
( समाप्त )

loksangharsha.blogspot.com

रक्त चाहिए !!!

मेरे एक मित्र के पिता जी जो दिल्ली ने हैं बीमार हैं, इनके रक्त को बदलना है जिसके लिए रक्त चाहिए।

इनके परिवार वाले साथ हैं मगर इनके रक्त बेमेल हो जाने के करण रक्त की आवश्यकता आन पड़ी है।

तमाम मित्रों से साग्रह निवेदन है कि अगर (A+) ग्रुप के रक्त दाता रक्त दान कर सकते हैं तो संपर्क करें।

मानव सेवा माधव सेवा।

मैं दिल्ली से बाहर हूँ मगर आशा है कि मेरे मित्रों कि टोली इस सहकर्म में सहभागिता करेगी।

फ़ोन :- 09899730304


रक्त चाहिए !!!

मेरे एक मित्र के पिता जी जो दिल्ली ने हैं बीमार हैं, इनके रक्त को बदलना है जिसके लिए रक्त चाहिए।

इनके परिवार वाले साथ हैं मगर इनके रक्त बेमेल हो जाने के करण रक्त की आवश्यकता आन पड़ी है।

तमाम मित्रों से साग्रह निवेदन है कि अगर (A+) ग्रुप के रक्त दाता रक्त दान कर सकते हैं तो संपर्क करें।

मानव सेवा माधव सेवा।

मैं दिल्ली से बाहर हूँ मगर आशा है कि मेरे मित्रों कि टोली इस सहकर्म में सहभागिता करेगी।

फ़ोन :- 09899730304


बगा़वतें जन्मती हैं इंसानी शक्ल में तब कहीं एक रजनीश पैदा होता है

जन्मदिन की हार्दिक भड़ाभड़ भड़ासी शुभकामना
भड़ास के संचालक भाई रजनीश झा
सड़ी गली परंपराओं की दुर्गंध जब इतनी अधिक हो जाए कि सहना मुश्किल हो तब प्रतिक्रिया से एक सुगंध का कतरा उपजता है। वो कतरा अपनी फितरत से बढ़ता जाता है और दुर्गंध के बराबर सीधा खड़ा रह कर बुराइयों को नकारा कर देता है। साहस चाहिये इस काम के लिये जो कि वो लेकर पैदा होगा है। भाई रजनीश झा की शख्सियत के बारे में जितना लिखा जाए कम है। भड़ास पर कमान सम्हाले रहना ताकत की बात है जो कि भाई रजनीश जैसे लोग ही कर सकते हैं। जिस दिन भड़ास की हत्या यशवंत सिंह ने कर दी थी और भड़ास की आत्मा उस ताबूत में तड़प रही थी तब मैंने भड़ासी धर्म का निर्वाह करते हुए भड़ास की मूल आत्मा चुरा ली। यशवंत सिंह ने मुर्दा ताबूत में सजा रखा था और फूल माला चढ़ा कर उसकी नुमाइश लगा ली। मुर्दे की प्रदर्शनी का धंधा उस धंधेबाज ने लगा लिया। मैं अकेला भड़ास की आत्मा को अपने अस्तित्त्व पर चढ़ाए भटकता रहा कई दिनों तक फिर एक दिन फैसला लिया कि भड़ास को दुबारा जन्म दिया जाए। इस प्रसव में दाई का काम करा हमारे बाग़ी भाई रजनीश के.झा ने। भड़ास दुबारा पैदा हुआ और हमारे प्यार से पोषित होकर युवा हो गया, अब भड़ास अजर-अमर है। इस शक्ति का श्रेय है भाई रजनीश को जिनका आज जन्मदिन है। एक बात तो स्पष्ट हो गयी है कि भड़ास के साथ ही हम दोनो भी अब अमर हो गये हैं। भाई रजनीश को जन्मदिन की हार्दिक शुभेच्छा।
जन्मदिन पर किसी की ले ली जाए तो भड़ासी जन्मदिन पूरा हो।
जय जय भड़ास

बगा़वतें जन्मती हैं इंसानी शक्ल में तब कहीं एक रजनीश पैदा होता है

जन्मदिन की हार्दिक भड़ाभड़ भड़ासी शुभकामना
भड़ास के संचालक भाई रजनीश झा
सड़ी गली परंपराओं की दुर्गंध जब इतनी अधिक हो जाए कि सहना मुश्किल हो तब प्रतिक्रिया से एक सुगंध का कतरा उपजता है। वो कतरा अपनी फितरत से बढ़ता जाता है और दुर्गंध के बराबर सीधा खड़ा रह कर बुराइयों को नकारा कर देता है। साहस चाहिये इस काम के लिये जो कि वो लेकर पैदा होगा है। भाई रजनीश झा की शख्सियत के बारे में जितना लिखा जाए कम है। भड़ास पर कमान सम्हाले रहना ताकत की बात है जो कि भाई रजनीश जैसे लोग ही कर सकते हैं। जिस दिन भड़ास की हत्या यशवंत सिंह ने कर दी थी और भड़ास की आत्मा उस ताबूत में तड़प रही थी तब मैंने भड़ासी धर्म का निर्वाह करते हुए भड़ास की मूल आत्मा चुरा ली। यशवंत सिंह ने मुर्दा ताबूत में सजा रखा था और फूल माला चढ़ा कर उसकी नुमाइश लगा ली। मुर्दे की प्रदर्शनी का धंधा उस धंधेबाज ने लगा लिया। मैं अकेला भड़ास की आत्मा को अपने अस्तित्त्व पर चढ़ाए भटकता रहा कई दिनों तक फिर एक दिन फैसला लिया कि भड़ास को दुबारा जन्म दिया जाए। इस प्रसव में दाई का काम करा हमारे बाग़ी भाई रजनीश के.झा ने। भड़ास दुबारा पैदा हुआ और हमारे प्यार से पोषित होकर युवा हो गया, अब भड़ास अजर-अमर है। इस शक्ति का श्रेय है भाई रजनीश को जिनका आज जन्मदिन है। एक बात तो स्पष्ट हो गयी है कि भड़ास के साथ ही हम दोनो भी अब अमर हो गये हैं। भाई रजनीश को जन्मदिन की हार्दिक शुभेच्छा।
जन्मदिन पर किसी की ले ली जाए तो भड़ासी जन्मदिन पूरा हो।
जय जय भड़ास

नितीश रिपोर्ट कार्ड ......चार साल पुरे......

पिछले कुछ दिनों से बिहार सरकार के सुचना विभाग ने पुरे हिन्दुस्तान के सब प्रमुख समाचार पत्रों मैं नितीश जी के चार साल की उपलब्धियों का गुणगान करने मैं करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाने मैं कोई कंजूसी नही बरती है।
वो राज्य जिसके पास अपने राजस्व बढ़ाने का कोई रास्ता नही है, वो राज्य जो पिछले चार सालों मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ "विशेष राज्य" का दर्ज़ा पाने की गुहार लगाते दिखी, अपने थोड़े से राजस्व का इस कदर दुरूपयोग देख कर ऐसा लगता है की कहीं नितीश जी का भी हाल "India Shining" campaign के बाद NDA की तरह ना हो जाए....

कमाल की बात है की नगण्य विकास के वावजूद नितीश जी कहते हैं की " आने वाले समय मैं बिहार" विकसित राज्यों की श्रेणी मैं अग्रणी होगा। कैसे? शायद वो अपने राजनितिक रूप से जागरूक और आर्थिक समझ से परे गरीब जनता को झांसा देने मैं कामयाब हो जायें परन्तु उनकी बात का कोई सार्थक अर्थ नही दीखता है। एक सरकार जो अपने चुनावी वादों मैं बिहार की सारी बंद पड़ी चीनी मीलों को शुरू करने की बात तो करती है परन्तु जब अमली जामा पहनाने का समय आता है तो कोई कार्य नही हो पाता, सारी चीनी मिलें अभी भी बंद पड़ी हैं..... जब बंद पड़ी उद्योग पर कोई काम ना हो तो नए निवेश की बात बेमानी सी लगती है......

जिस सरकार ने पिछले चार साल मैं रोज़गार मुहैया कराने के नाम कुछ न किया हो उस राज्य के मुख्यमंत्री का पुरे हिन्दुस्तान मैं अपने सफलता का ढोल पीटते देख अफ़सोस ही हो सकता है, कोई कुछ कर नही सकता क्यूंकि नितीश जी का autocratic attitude से हर कोई वाकिफ है।

राज्य के प्रमुख सड़कों को अगर छोड़ दिया जाय तो पुरे राज्य भर के सुदूर क्षेत्रों की हालत जस की तस है....... यकीं न हो तो पटना से गया की यात्रा कीजिये (वो क्षेत्र जो नितीश जी के पड़ोस का है) या फ़िर मधुबनी से मधवापुर की यात्रा करें .....आपकी खुस्किस्मती अगर आप सही सलामत अपने प्रियजनों से मिल पाये :-)........

सरकारी अस्पताल मैं दवाइयाँ अभी भी नदारद मिलेंगी और किसी भी स्कूल मैं शिक्षक अपने क्लास लेते नही मिलेंगे....(ये नितीश विरोध नही, आंखों देखी वृत्तांत है)


कन्याओं को शिक्षा के क्षेत्र मैं बढ़ावा देने वाले नितीश जी ५०० करोड रूपये साइकिल खरीद पर खर्चते हैं (बधाई) परन्तु बिहार के किसी भी विस्वविद्यालय का शिक्षा सत्र अपने समय पर नही है , चाहे पटना विश्विद्यालय हो या मगध या फ़िर बिहार विश्वविद्यालय हो या मिथिला..... २००७ मैं नामांकित छात्र २००९ तक अपने प्रथम वर्ष की परीक्षा न दें पाये तो स्थिति सचमुच ही भयानक प्रतीत होती है.....

वोट के लिए चाँद हज़ार बेरोजगारों को शिक्षक (वो भी अनियमित) बनाने का झांसा देने के अलावे शिक्षा के क्षेत्र मैं नितीश जी की सरकार ने कुछ भी नही किया जिसपर गर्व से कहा जाए की बिहार की शिक्षा प्रणाली बेहतरीन है.....

आख़िर किस बात पर पीठ थपथपाई जाए या फ़िर नितीश जी कौन सा गुणगान कर रहे हैं समझ से परे है......
साभार :- http://kahtahoon.blogspot.com/

नितीश रिपोर्ट कार्ड ......चार साल पुरे......

पिछले कुछ दिनों से बिहार सरकार के सुचना विभाग ने पुरे हिन्दुस्तान के सब प्रमुख समाचार पत्रों मैं नितीश जी के चार साल की उपलब्धियों का गुणगान करने मैं करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाने मैं कोई कंजूसी नही बरती है।
वो राज्य जिसके पास अपने राजस्व बढ़ाने का कोई रास्ता नही है, वो राज्य जो पिछले चार सालों मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ "विशेष राज्य" का दर्ज़ा पाने की गुहार लगाते दिखी, अपने थोड़े से राजस्व का इस कदर दुरूपयोग देख कर ऐसा लगता है की कहीं नितीश जी का भी हाल "India Shining" campaign के बाद NDA की तरह ना हो जाए....

कमाल की बात है की नगण्य विकास के वावजूद नितीश जी कहते हैं की " आने वाले समय मैं बिहार" विकसित राज्यों की श्रेणी मैं अग्रणी होगा। कैसे? शायद वो अपने राजनितिक रूप से जागरूक और आर्थिक समझ से परे गरीब जनता को झांसा देने मैं कामयाब हो जायें परन्तु उनकी बात का कोई सार्थक अर्थ नही दीखता है। एक सरकार जो अपने चुनावी वादों मैं बिहार की सारी बंद पड़ी चीनी मीलों को शुरू करने की बात तो करती है परन्तु जब अमली जामा पहनाने का समय आता है तो कोई कार्य नही हो पाता, सारी चीनी मिलें अभी भी बंद पड़ी हैं..... जब बंद पड़ी उद्योग पर कोई काम ना हो तो नए निवेश की बात बेमानी सी लगती है......

जिस सरकार ने पिछले चार साल मैं रोज़गार मुहैया कराने के नाम कुछ न किया हो उस राज्य के मुख्यमंत्री का पुरे हिन्दुस्तान मैं अपने सफलता का ढोल पीटते देख अफ़सोस ही हो सकता है, कोई कुछ कर नही सकता क्यूंकि नितीश जी का autocratic attitude से हर कोई वाकिफ है।

राज्य के प्रमुख सड़कों को अगर छोड़ दिया जाय तो पुरे राज्य भर के सुदूर क्षेत्रों की हालत जस की तस है....... यकीं न हो तो पटना से गया की यात्रा कीजिये (वो क्षेत्र जो नितीश जी के पड़ोस का है) या फ़िर मधुबनी से मधवापुर की यात्रा करें .....आपकी खुस्किस्मती अगर आप सही सलामत अपने प्रियजनों से मिल पाये :-)........

सरकारी अस्पताल मैं दवाइयाँ अभी भी नदारद मिलेंगी और किसी भी स्कूल मैं शिक्षक अपने क्लास लेते नही मिलेंगे....(ये नितीश विरोध नही, आंखों देखी वृत्तांत है)


कन्याओं को शिक्षा के क्षेत्र मैं बढ़ावा देने वाले नितीश जी ५०० करोड रूपये साइकिल खरीद पर खर्चते हैं (बधाई) परन्तु बिहार के किसी भी विस्वविद्यालय का शिक्षा सत्र अपने समय पर नही है , चाहे पटना विश्विद्यालय हो या मगध या फ़िर बिहार विश्वविद्यालय हो या मिथिला..... २००७ मैं नामांकित छात्र २००९ तक अपने प्रथम वर्ष की परीक्षा न दें पाये तो स्थिति सचमुच ही भयानक प्रतीत होती है.....

वोट के लिए चाँद हज़ार बेरोजगारों को शिक्षक (वो भी अनियमित) बनाने का झांसा देने के अलावे शिक्षा के क्षेत्र मैं नितीश जी की सरकार ने कुछ भी नही किया जिसपर गर्व से कहा जाए की बिहार की शिक्षा प्रणाली बेहतरीन है.....

आख़िर किस बात पर पीठ थपथपाई जाए या फ़िर नितीश जी कौन सा गुणगान कर रहे हैं समझ से परे है......
साभार :- http://kahtahoon.blogspot.com/

सर्दियों के दौरान बच्चों को कैसे स्वस्थ रखें !!


सर्दियों के शुरू होते ही बच्चों में नाक बहना, गले में खराश, जुकाम जैसी समस्याएं होने लगती हैं। बच्चों की इन बीमारियों से सबसे ज्यादा उनके अभिभावक परेशान हो उठते हैं। अगर आप चाहते हैं कि आपका बच्चा सर्दियों के दौरान
स्वस्थ रहे तो छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखें :


बच्चों को तलाभुना या फास्टफूड खिलाने के बजाए सुबह पौष्टिक नाश्ता दें। उन्हें फल, हरी सब्जियां और दालों से परिपूर्ण नाश्ता कराएं।
-रात में बादाम को भिगो दें। सुबह बादाम घिसकर गुनगुने दूध में डालकर पिलाएं।
-बच्चों को कमरे में बैठे रहने देने के बजाए धूप में निकलने को कहें। इससे उन्हें विटामिन डी मिलेगा, जो शरीर की हड्डियों को मजबूत बनाता है।
-ठंड के दौरान बच्चों को ठंडी चीजें देने से परहेज करें।
-बच्चों को खाने से पहले और बाद में एंटी बैक्टीरियल साबुन से हाथ धुलाना न भूलें। इससे कीटाणु नहीं फैलेंगे।
-घर पर कंप्यूटर पर खेलने देने के बजाए रोजाना बीस मिनट मैदान में खेलने के लिए प्रेरित करें। इससे उनका शारीरिक विकास अच्छा होगा।
-बच्चों को ठंड में जरूरत से ज्यादा गर्म कपड़े न पहनाएं।
-रोजाना साफ सुथरे स्वेटर पहनाएं। लगातार कई दिन तक एक ही स्वेटर पहनने से उसमें धूल और गंदगी जम जाती है। इससे कीटाणु उसमें जम जाते हैं और कीटाणुओं के कारण बीमारी फैलने की आश्ाका रहती है।
-ठंड में रोज नहलाना संभव न हो तो गीले कपड़े से बच्चों का बदन पोंछे।
-बच्चों को समय पर सोने की आदत डालें। सोने से पहले टीवी देखने देने के बजाए उन्हें कुछ पढ़ने के लिए प्रेरित करें।





सर्दियों के दौरान बच्चों को कैसे स्वस्थ रखें !!


सर्दियों के शुरू होते ही बच्चों में नाक बहना, गले में खराश, जुकाम जैसी समस्याएं होने लगती हैं। बच्चों की इन बीमारियों से सबसे ज्यादा उनके अभिभावक परेशान हो उठते हैं। अगर आप चाहते हैं कि आपका बच्चा सर्दियों के दौरान
स्वस्थ रहे तो छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखें :


बच्चों को तलाभुना या फास्टफूड खिलाने के बजाए सुबह पौष्टिक नाश्ता दें। उन्हें फल, हरी सब्जियां और दालों से परिपूर्ण नाश्ता कराएं।
-रात में बादाम को भिगो दें। सुबह बादाम घिसकर गुनगुने दूध में डालकर पिलाएं।
-बच्चों को कमरे में बैठे रहने देने के बजाए धूप में निकलने को कहें। इससे उन्हें विटामिन डी मिलेगा, जो शरीर की हड्डियों को मजबूत बनाता है।
-ठंड के दौरान बच्चों को ठंडी चीजें देने से परहेज करें।
-बच्चों को खाने से पहले और बाद में एंटी बैक्टीरियल साबुन से हाथ धुलाना न भूलें। इससे कीटाणु नहीं फैलेंगे।
-घर पर कंप्यूटर पर खेलने देने के बजाए रोजाना बीस मिनट मैदान में खेलने के लिए प्रेरित करें। इससे उनका शारीरिक विकास अच्छा होगा।
-बच्चों को ठंड में जरूरत से ज्यादा गर्म कपड़े न पहनाएं।
-रोजाना साफ सुथरे स्वेटर पहनाएं। लगातार कई दिन तक एक ही स्वेटर पहनने से उसमें धूल और गंदगी जम जाती है। इससे कीटाणु उसमें जम जाते हैं और कीटाणुओं के कारण बीमारी फैलने की आश्ाका रहती है।
-ठंड में रोज नहलाना संभव न हो तो गीले कपड़े से बच्चों का बदन पोंछे।
-बच्चों को समय पर सोने की आदत डालें। सोने से पहले टीवी देखने देने के बजाए उन्हें कुछ पढ़ने के लिए प्रेरित करें।





जै प्रसाद संगे भूरी बाई

ऊपर मंगलमय भगवान एवम नीचे भूरी बाई की माता की असीम अनुकम्पा से
चिरजीवी जै प्रसाद संगे आयुसमती भूरी बाई
के
ब्याह की मांग्लिक बेला पे आप सभई की उपस्थिति एबम सुभासीस हेतु हमार इस्नेह
भरा आमंत्रण स्वीकार करें ।
दशनाभिलाषी सवागतऔउत्सुक् बिनीत्
कालुराम डालू राम मूल्चन्द फूल्चन्द भड़ासी जन बल्लू प्रसाद
पट्का सिग नंकू राम ढेला सिंघ छ्गन सिंघ सर्रोजिनी देबी
एबम समस्त प्रसाद परिवार
( हर्र भडासी को चक्री डांस , नागिन डांस करना जरूरी है । टुन्न होने का पूरा प्रबन्ध है )
गिफ्ट है .... है .... है .... हाथ मै बाकि भडासी तो समझदारो के पिता जी लगते हैं
मेरा URL
प्रणव सक्सेना

जै प्रसाद संगे भूरी बाई

ऊपर मंगलमय भगवान एवम नीचे भूरी बाई की माता की असीम अनुकम्पा से
चिरजीवी जै प्रसाद संगे आयुसमती भूरी बाई
के
ब्याह की मांग्लिक बेला पे आप सभई की उपस्थिति एबम सुभासीस हेतु हमार इस्नेह
भरा आमंत्रण स्वीकार करें ।
दशनाभिलाषी सवागतऔउत्सुक् बिनीत्
कालुराम डालू राम मूल्चन्द फूल्चन्द भड़ासी जन बल्लू प्रसाद
पट्का सिग नंकू राम ढेला सिंघ छ्गन सिंघ सर्रोजिनी देबी
एबम समस्त प्रसाद परिवार
( हर्र भडासी को चक्री डांस , नागिन डांस करना जरूरी है । टुन्न होने का पूरा प्रबन्ध है )
गिफ्ट है .... है .... है .... हाथ मै बाकि भडासी तो समझदारो के पिता जी लगते हैं
मेरा URL
प्रणव सक्सेना

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-5

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
रैण्डल बनाम विलियम एच साॅरेल 548 यू0एस0 230 (2006) मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट ने छः भिन्न विचार व्यक्त किए उनमें से तीन जजों ने बहुमत राय से अभियान खर्चे की सीमाओं को समाप्त कर दिया एवं यह विचार व्यक्त किया कि खर्च पर कोई सीमा निर्धारित करना असंवैधानिक है। इस निर्णय से उन प्राइवेट कम्पनियों को काफी फायदा पहुँचा जो खुले तौर से राजनैतिक पदों की लालसा करती थीं।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता को बचाने में बुरी तरह से असफल रहा है। जार्ज डब्लू बुश बनाम अलवर्ट गोरे जू0 531 यू0 एस0 98 (2008) के मुकदमें में यह बात साबित हो गईं। 5-4 जजों ने बहुमत से यह निर्णय दिया कि फ्लोरिडा में वोटों की गिनती रोक दी जाय। यह भी निर्णय में कहा गया कि ‘‘व्यक्तिगत वोटर को यू0एस00 के राष्ट्रपति के चुनाव में वोट देने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है, जब तक कि राज्य की विधायिका निर्णय दे।’’ जस्टिस जाॅन पाल स्टीवेन्स ने इस निर्णय से असहमति व्यक्त की एवं फैसला दिया कि ‘‘बहुमत निर्णय ने असंख्य वोटरों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया। यद्यपि हमें कभी निश्चित रुप से यह पता नहीं चल सकता है कि इस वर्ष राष्ट्रपति के चुनाव में वास्तविक विजेता कौन है। लेकिन एक बात पूर्णतया स्पष्ट है कि वास्तविक पराजय किसको मिली। वास्तविक हार राष्ट्र के उस विश्वास की हुईं जो जज को कानून के संरक्षक के रूप में देखती थी।’’
भारत वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णयों में, जो 1950 से 1989 के मध्य दिए हैं एवं उन निर्णयों में जो 1990 से 2008 के मध्य दिए गए हैं, स्पष्ट अन्तर हैं क्योंकि राजनैतिक वातावरण आर्थिक नीतियों से काफी प्रभावित हुआ। मल्टी नेशनल कम्पनियाँ वजूद में आईं। प्रबल भारतीय बिजनेस घराने पहले से ही राजनैतिक शक्ति के साथ मौजूद थे। 1950 से 1989 के मध्य सम्पत्ति के अधिकार के क्षेत्र में त्रुटिपूर्ण निर्णय दिए गए जिसके कारण पचास तथा साठ के दशक में भूमि सुधार कानूनों में अवरोध उत्पन्न हुआ तथा सामन्त वादियों एवं पूँजीपतियों को फायदा पहुँचा। सत्तर के दशक के मध्य सुप्रीम कोर्ट ने 1975 में राजनैतिक इमरजेन्सी के दौरान बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं के निलम्बन को उचित ठहराया, जिसके कारण जनता में सुप्रीम कोर्ट की काफी आलोचना हुई एवं बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए माफी भी माँगी। निर्णय के प्रभाव को संसद के द्वारा संविधान में संशोधन करके समाप्त किया गया। बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं का निलंबन अस्थाई रहा क्योंकि 1977 में चुनाव कराए गए। सामान्य तौर से किसी भी शैक्षिक एवं राजनैतिक परिचर्चा में जिस चीज की उपेक्षा की जाती है वह यह कि 1977 के पश्चात, भारत के कई हिस्सों में अधिक तानाशाही की परिास्थतियाँ मौजूद हैं। तथाकथित आतंकवाद विरोधी कानून इसका प्रमाण है। अनके फर्जी इनकाउन्टर इसके आवरण में कराए जाते हैं। न्यायिक-समाज अथवा बुद्धिजीवियों के द्वारा इस पर कोई विचार विमर्श नहीं किया जाता है क्योंकि जो लोग इन कानूनों से प्रभावित हैं वे या तो सामान्य (मज़दूर) लोग हैं या निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं।
1990 के पश्चात, भारत का सर्वोच्च न्यायालय कारपोरेट घरानों के आक्रमण के प्रभाव से अपने आप को नहीं बचा सका। यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया एवं अन्य (0आई0आर0 1990 सुप्रीम कोर्ट 273) भोपाल गैस काण्ड मुकदमे में यह पूर्णतया दृष्टिगोचर है। यूनियन कार्बाइड की लापरवाही के कारण दो-तीन दिसम्बर 1984 को मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ, जो बहुत ही जहरीली गैस है। इस रिसाव के फलस्वरूप औद्योगिक एवं वातावरण सम्बंधी बहुत ही गंभीर दुर्घटना हुई जिसमें हजारों लोग मारे गए। इस मामले में यूनियन कार्बाइड, भारत सरकार से अपनी शर्तों को मनवानी चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड की शर्तों को जल्दबाजी में स्वीकार कर लिया। इन शर्तों के तहत यूनियन कार्बाइड को, विश्व के सबसे भयानक वातावरण सम्बंधी (गैस) दुर्घटनाओं में से एक में बहुत ही कम क्षति पूर्ति करनी थी। यह क्षतिपूर्ति यू0एस00 में की जाने वाली तुलनात्मक क्षतिपूर्ति के मुकाबले में बहुत कम थी। साथ ही साथ भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार के उस अधिकार का भी सौदा कर दिया जिसके द्वारा यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों पर आपराधिक उपेक्षा एवं हत्या का मुकदमा चलाया जाता। भोपाल गैस काण्ड में लगभग तीन हजार लोग मारे गए, 60 हजार लोग गम्भीर रूप से घायल हुए तथा लगभग 2 लाख लोग स्थायी रूप से प्रभावित हुए। हजारों जानवर मारे गए। फसलंे नष्ट र्हुइं, व्यापार एवं वाणिज्य बाधित हुआ। सुप्रीम कोर्ट के उपर्युक्त निर्णय को पुनरावलोकित किया गया, क्योंकि पुनरावलोकन याचिकाएँ दायर की र्गइं एवं जनता में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की काफी आलोचना की गई। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस याचिका का निस्तारण प्रभावित लोगों के संतोष तक कभी नहीं किया गया। यूनियन कार्बाइड ने भारत मंे विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों को प्रभावित किया। इसका प्रमुख वारेन एण्डरसन जमानत के दौरान फरार हो गया। 5 जजांे वाली सुप्रीम कोर्ट की बेन्च ने यह फैसला दिया कि शर्तें सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इसलिए निर्धारित की गईं क्योंकि सम्बंधित पक्ष इस पर सहमत हुए एवं भारत में उपचार प्राप्त करने में विलम्ब हुई। इसी घटना के साथ एक अन्य घटना यह हुई कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में एक मशहूर भारतीय न्यायाधीश डा0 नगेन्द्र सिंह की मृत्यु के कारण वह सीट रिक्त हो गई थी। उनके स्थान पर एक दूसरे भारतीय के चुनाव के लिए उस देश का वोट आवश्यक था। जहँा पर यूनियन कार्बाइड का मुख्यालय था।
1991 के पश्चात, राजनैतिक रूप से शक्तिशाली भारतीय कम्पनियों के द्वारा फूट डालने वाला एक कार्यक्रम अपनाया गया। इस कार्यक्रम में मल्टी नेशनल कम्पनियों एवं बैंकों ने फासीवादी पार्टियों जैसे भारतीय जनता पार्टी, शिव सेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना आदि पार्टियों का प्रयोग खुले तौर पर किया। यह कार्य मुम्बई तथा अन्य स्थानों पर भिन्न नामों से इसलिए किया गया ताकि जनता का ध्यान उन हानिप्रद आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके जो वे कम्पनियाँ यहाँ सरकार की मदद से लागू कर रही थीं। इन कम्पनियों ने इन फासीवादी पार्टियों की मदद से धर्म की दुहाई शुरू की एवं मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यक लोगों को राक्षस बनाकर पेश किया ताकि लोगों के ध्यान को आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके। इसी समय सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेन्च ने मनोहर जोशी बनाम नितिन भाउराव पाटिल (0आई0आर0 1996 एस0सी0 796) मुकदमे में मुम्बई हाईकोर्ट के उस फैसले को उलट दिया जिसमें शिवसेना प्रत्याशी को लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951 के अन्तर्गत साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने वाला भाषण देने के लिए चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य घोषित किया गया था। शिवसेना प्रत्याशी ने आम सभा में घोषणा की थी कि यदि उनकी पार्टी विजयी हुई तो महाराष्ट्र को प्रथम हिन्दू राज्य घोषित किया जाएगा। यही प्रत्याशी जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी एवं शिवसेना के द्वारा मुख्यमंत्री चुना गया। इसके पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने केसवन भारती बनाम स्टेट आफ केरल मुकदमे में सात जजों के बहुमत ने यह फैसला दिया था कि धर्म निरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल भावना है। जिसको तो परिवर्तित किया जा सकता है और ही रद्द किया जा सकता है। किसी ऐसे मामले में जिसका सम्बन्ध चुनाव में धर्म के आधार पर अपील करने जैसी भ्रष्ट क्रियाओं से हो।
भारत की न्यायिक एवं कानूनी व्यवस्था निर्दोष नागरिकों की सामूहिक हत्या एवं अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्याओं के सम्बन्ध में पूरी तरह से कार्य करने में सक्षम सिद्ध नहीं हुई है। फासीवादी, राजनैतिक दलों ने, जिनकी पुश्तपनाही कारपोरेट घरानों, एवं धनी वर्ग के द्वारा की जाती है, अनेक जघन्य कार्य अंजाम दिए हैं ताकि वे लोगों के ध्यान को भारत की अर्थव्यवस्था पर कारपोरेट घरानों के कन्ट्रोल से हटा सकंे। यद्यपि इन कारपोरेट घरानों के मुख्य सदस्यों को, जाँच आयोगों द्वारा जिनकी अध्यक्षता हाईकोर्ट के कार्यरत जज करते हैं, दोषी पाया गया है। पहले तो इन मामलों में शिकायत दर्ज नहीं की जाती है और यदि दर्ज कर ली गई तो उसकी जाँच पड़ताल नहीं की जाती है एवं अन्ततोगत्वा फाइल को बन्द कर दिया जाता है। दिसम्बर 1992 एवं जनवरी 1993 में मुम्बई (महाराष्ट्र राज्य) में हुई सामूहिक हत्या के मामलों में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है। इन साम्प्रदायिक हमलों में 2000 से अधिक लोग मारे गए, सैकड़ों लोग लापता हो गए, तथा पुलिस सैकड़ों मामलों में केवल ऊपर के आदेश का पालन करती हुई मूक दर्शक बनी रही। इसके विपरीत, 1993 के मुम्बई विस्फोट घटनाओं के मुकदमों के मामले में, जिसके मुख्य अभियुक्त, अन्डरवल्र्ड के खरीदे हुए सदस्य थे, उनको बचने का मौका दिया गया। इन विस्फोटो में सभी धर्मों के लोग मारे गए थे।



लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

loksangharsha.blogspot.com

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-5

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
रैण्डल बनाम विलियम एच साॅरेल 548 यू0एस0 230 (2006) मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट ने छः भिन्न विचार व्यक्त किए उनमें से तीन जजों ने बहुमत राय से अभियान खर्चे की सीमाओं को समाप्त कर दिया एवं यह विचार व्यक्त किया कि खर्च पर कोई सीमा निर्धारित करना असंवैधानिक है। इस निर्णय से उन प्राइवेट कम्पनियों को काफी फायदा पहुँचा जो खुले तौर से राजनैतिक पदों की लालसा करती थीं।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता को बचाने में बुरी तरह से असफल रहा है। जार्ज डब्लू बुश बनाम अलवर्ट गोरे जू0 531 यू0 एस0 98 (2008) के मुकदमें में यह बात साबित हो गईं। 5-4 जजों ने बहुमत से यह निर्णय दिया कि फ्लोरिडा में वोटों की गिनती रोक दी जाय। यह भी निर्णय में कहा गया कि ‘‘व्यक्तिगत वोटर को यू0एस00 के राष्ट्रपति के चुनाव में वोट देने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है, जब तक कि राज्य की विधायिका निर्णय दे।’’ जस्टिस जाॅन पाल स्टीवेन्स ने इस निर्णय से असहमति व्यक्त की एवं फैसला दिया कि ‘‘बहुमत निर्णय ने असंख्य वोटरों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया। यद्यपि हमें कभी निश्चित रुप से यह पता नहीं चल सकता है कि इस वर्ष राष्ट्रपति के चुनाव में वास्तविक विजेता कौन है। लेकिन एक बात पूर्णतया स्पष्ट है कि वास्तविक पराजय किसको मिली। वास्तविक हार राष्ट्र के उस विश्वास की हुईं जो जज को कानून के संरक्षक के रूप में देखती थी।’’
भारत वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णयों में, जो 1950 से 1989 के मध्य दिए हैं एवं उन निर्णयों में जो 1990 से 2008 के मध्य दिए गए हैं, स्पष्ट अन्तर हैं क्योंकि राजनैतिक वातावरण आर्थिक नीतियों से काफी प्रभावित हुआ। मल्टी नेशनल कम्पनियाँ वजूद में आईं। प्रबल भारतीय बिजनेस घराने पहले से ही राजनैतिक शक्ति के साथ मौजूद थे। 1950 से 1989 के मध्य सम्पत्ति के अधिकार के क्षेत्र में त्रुटिपूर्ण निर्णय दिए गए जिसके कारण पचास तथा साठ के दशक में भूमि सुधार कानूनों में अवरोध उत्पन्न हुआ तथा सामन्त वादियों एवं पूँजीपतियों को फायदा पहुँचा। सत्तर के दशक के मध्य सुप्रीम कोर्ट ने 1975 में राजनैतिक इमरजेन्सी के दौरान बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं के निलम्बन को उचित ठहराया, जिसके कारण जनता में सुप्रीम कोर्ट की काफी आलोचना हुई एवं बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए माफी भी माँगी। निर्णय के प्रभाव को संसद के द्वारा संविधान में संशोधन करके समाप्त किया गया। बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं का निलंबन अस्थाई रहा क्योंकि 1977 में चुनाव कराए गए। सामान्य तौर से किसी भी शैक्षिक एवं राजनैतिक परिचर्चा में जिस चीज की उपेक्षा की जाती है वह यह कि 1977 के पश्चात, भारत के कई हिस्सों में अधिक तानाशाही की परिास्थतियाँ मौजूद हैं। तथाकथित आतंकवाद विरोधी कानून इसका प्रमाण है। अनके फर्जी इनकाउन्टर इसके आवरण में कराए जाते हैं। न्यायिक-समाज अथवा बुद्धिजीवियों के द्वारा इस पर कोई विचार विमर्श नहीं किया जाता है क्योंकि जो लोग इन कानूनों से प्रभावित हैं वे या तो सामान्य (मज़दूर) लोग हैं या निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं।
1990 के पश्चात, भारत का सर्वोच्च न्यायालय कारपोरेट घरानों के आक्रमण के प्रभाव से अपने आप को नहीं बचा सका। यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया एवं अन्य (0आई0आर0 1990 सुप्रीम कोर्ट 273) भोपाल गैस काण्ड मुकदमे में यह पूर्णतया दृष्टिगोचर है। यूनियन कार्बाइड की लापरवाही के कारण दो-तीन दिसम्बर 1984 को मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ, जो बहुत ही जहरीली गैस है। इस रिसाव के फलस्वरूप औद्योगिक एवं वातावरण सम्बंधी बहुत ही गंभीर दुर्घटना हुई जिसमें हजारों लोग मारे गए। इस मामले में यूनियन कार्बाइड, भारत सरकार से अपनी शर्तों को मनवानी चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड की शर्तों को जल्दबाजी में स्वीकार कर लिया। इन शर्तों के तहत यूनियन कार्बाइड को, विश्व के सबसे भयानक वातावरण सम्बंधी (गैस) दुर्घटनाओं में से एक में बहुत ही कम क्षति पूर्ति करनी थी। यह क्षतिपूर्ति यू0एस00 में की जाने वाली तुलनात्मक क्षतिपूर्ति के मुकाबले में बहुत कम थी। साथ ही साथ भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार के उस अधिकार का भी सौदा कर दिया जिसके द्वारा यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों पर आपराधिक उपेक्षा एवं हत्या का मुकदमा चलाया जाता। भोपाल गैस काण्ड में लगभग तीन हजार लोग मारे गए, 60 हजार लोग गम्भीर रूप से घायल हुए तथा लगभग 2 लाख लोग स्थायी रूप से प्रभावित हुए। हजारों जानवर मारे गए। फसलंे नष्ट र्हुइं, व्यापार एवं वाणिज्य बाधित हुआ। सुप्रीम कोर्ट के उपर्युक्त निर्णय को पुनरावलोकित किया गया, क्योंकि पुनरावलोकन याचिकाएँ दायर की र्गइं एवं जनता में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की काफी आलोचना की गई। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस याचिका का निस्तारण प्रभावित लोगों के संतोष तक कभी नहीं किया गया। यूनियन कार्बाइड ने भारत मंे विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों को प्रभावित किया। इसका प्रमुख वारेन एण्डरसन जमानत के दौरान फरार हो गया। 5 जजांे वाली सुप्रीम कोर्ट की बेन्च ने यह फैसला दिया कि शर्तें सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इसलिए निर्धारित की गईं क्योंकि सम्बंधित पक्ष इस पर सहमत हुए एवं भारत में उपचार प्राप्त करने में विलम्ब हुई। इसी घटना के साथ एक अन्य घटना यह हुई कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में एक मशहूर भारतीय न्यायाधीश डा0 नगेन्द्र सिंह की मृत्यु के कारण वह सीट रिक्त हो गई थी। उनके स्थान पर एक दूसरे भारतीय के चुनाव के लिए उस देश का वोट आवश्यक था। जहँा पर यूनियन कार्बाइड का मुख्यालय था।
1991 के पश्चात, राजनैतिक रूप से शक्तिशाली भारतीय कम्पनियों के द्वारा फूट डालने वाला एक कार्यक्रम अपनाया गया। इस कार्यक्रम में मल्टी नेशनल कम्पनियों एवं बैंकों ने फासीवादी पार्टियों जैसे भारतीय जनता पार्टी, शिव सेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना आदि पार्टियों का प्रयोग खुले तौर पर किया। यह कार्य मुम्बई तथा अन्य स्थानों पर भिन्न नामों से इसलिए किया गया ताकि जनता का ध्यान उन हानिप्रद आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके जो वे कम्पनियाँ यहाँ सरकार की मदद से लागू कर रही थीं। इन कम्पनियों ने इन फासीवादी पार्टियों की मदद से धर्म की दुहाई शुरू की एवं मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यक लोगों को राक्षस बनाकर पेश किया ताकि लोगों के ध्यान को आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके। इसी समय सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेन्च ने मनोहर जोशी बनाम नितिन भाउराव पाटिल (0आई0आर0 1996 एस0सी0 796) मुकदमे में मुम्बई हाईकोर्ट के उस फैसले को उलट दिया जिसमें शिवसेना प्रत्याशी को लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951 के अन्तर्गत साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने वाला भाषण देने के लिए चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य घोषित किया गया था। शिवसेना प्रत्याशी ने आम सभा में घोषणा की थी कि यदि उनकी पार्टी विजयी हुई तो महाराष्ट्र को प्रथम हिन्दू राज्य घोषित किया जाएगा। यही प्रत्याशी जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी एवं शिवसेना के द्वारा मुख्यमंत्री चुना गया। इसके पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने केसवन भारती बनाम स्टेट आफ केरल मुकदमे में सात जजों के बहुमत ने यह फैसला दिया था कि धर्म निरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल भावना है। जिसको तो परिवर्तित किया जा सकता है और ही रद्द किया जा सकता है। किसी ऐसे मामले में जिसका सम्बन्ध चुनाव में धर्म के आधार पर अपील करने जैसी भ्रष्ट क्रियाओं से हो।
भारत की न्यायिक एवं कानूनी व्यवस्था निर्दोष नागरिकों की सामूहिक हत्या एवं अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्याओं के सम्बन्ध में पूरी तरह से कार्य करने में सक्षम सिद्ध नहीं हुई है। फासीवादी, राजनैतिक दलों ने, जिनकी पुश्तपनाही कारपोरेट घरानों, एवं धनी वर्ग के द्वारा की जाती है, अनेक जघन्य कार्य अंजाम दिए हैं ताकि वे लोगों के ध्यान को भारत की अर्थव्यवस्था पर कारपोरेट घरानों के कन्ट्रोल से हटा सकंे। यद्यपि इन कारपोरेट घरानों के मुख्य सदस्यों को, जाँच आयोगों द्वारा जिनकी अध्यक्षता हाईकोर्ट के कार्यरत जज करते हैं, दोषी पाया गया है। पहले तो इन मामलों में शिकायत दर्ज नहीं की जाती है और यदि दर्ज कर ली गई तो उसकी जाँच पड़ताल नहीं की जाती है एवं अन्ततोगत्वा फाइल को बन्द कर दिया जाता है। दिसम्बर 1992 एवं जनवरी 1993 में मुम्बई (महाराष्ट्र राज्य) में हुई सामूहिक हत्या के मामलों में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है। इन साम्प्रदायिक हमलों में 2000 से अधिक लोग मारे गए, सैकड़ों लोग लापता हो गए, तथा पुलिस सैकड़ों मामलों में केवल ऊपर के आदेश का पालन करती हुई मूक दर्शक बनी रही। इसके विपरीत, 1993 के मुम्बई विस्फोट घटनाओं के मुकदमों के मामले में, जिसके मुख्य अभियुक्त, अन्डरवल्र्ड के खरीदे हुए सदस्य थे, उनको बचने का मौका दिया गया। इन विस्फोटो में सभी धर्मों के लोग मारे गए थे।



लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

loksangharsha.blogspot.com