तस्वीरों में बचपन



रविवार की वो शाम, हलकी हलकी बूंदा बांदी के बीच ऑफिस से घर के लिए निकला, हलकी बरसात हमेशा से ही मेरा पसंदीदा मौसम रहा है सो मैं इसका लुत्फ़ लेने से चूकता नही हूँ और ये ही वजह थी कि बारिश और मैं साथ साथ अपनी मंजिल को रवाना हुए।



ओ सजना, बरखा बहार आयी रस की फुहार लायी अंखियों में प्यार लायी..........



सुमन कल्याणपुर की सुमधुर आवाज मौसम में एक खुशनुमा रंग घोल रहे थी।



चलते चलते बीच में एक खाली छोटा सा मैदान जहाँ मैं रुक गया, कुछ बच्चे पिट्टो-पिट्टो ( एक छोटा सा टीला बनाकर रबड़ की गेंद से उसे गिरना और गिर जाए तो वापस लगना, इस बीच विरोधी खेमा के गेंद के निशाने से भी बचना) शायद अलग अलग हिस्सों में अलग अलग नामों से जाना जाता हो मगर खेल का प्रारूप यही रहता है।



बारिश में भीगता हुआ रूक गया और बच्चों के उस खेल का दर्शक बन गया और खो गया अपनी बचपन में। सच में हमने कितने ही पारंपरिक खेल को खेला। चाहे गिल्ली डंडा हो या कंचे चोर सिपाही या फ़िर पिट्टो, मगर बदलते परिवेश में हमारी पारम्परिकता समाप्त तो नही होती जा रही है। इसी उधेड़बुन में यहीं बैठ गया और एक तरफ़ जहाँ पिट्टो के बहाने बचपन की यादें ताजा वहीँ शहरीकरण में ख़तम होती भारत की परम्परा।



कम्पूटर और तकनीक के बयार में बह गया परम्परा।





बस अब तो यादें ही हैं।

5 comments:

amitraghat said...

भाई मैं भी खो गया, कंप्यूटर टीवी और निजता से फुर्सत मिले तो ऐसे ही ख्याल मन मैं उमड़ते हैं

Amitraghat said...

भाई मैं भी खो गया, कंप्यूटर टीवी और निजता से फुर्सत मिले तो ऐसे ही ख्याल मन मैं उमड़ते हैं
pranav saxena

रूपम said...

जीवन में जाने क्या क्या खो जाता है,इस दौड़ धूप में
मगर गलती हमारी अकेले नहीं है,क्योंकि परम्पराओं के देहांत के लिए ये समाज ही दोषी है ,जो जाने अनजाने क्या क्या भूख भर देता है एक स्वतंत्र अस्तित्व में ,सिर्फ उत्तरदायित्वों के नाम पर .

sudhakar soni,cartoonist said...

bachpan ki yadon me khona wakai badhiya anubhav h

Udan Tashtari said...

बस, यादें रह जाती हैं शेष..

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