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द्वयता से क्षिति का रज कण ,
अभिशप्त ग्रहण दिनकर सा।कोरे षृष्टों पर कालिख ,
ज्यों अंकित कलंक हिमकर सा॥सम्पूर्ण शून्य को विषमय,
करता है अहम् मनुज का।दर्शन सतरंगी कुण्ठित,
निष्पादन भाव दनुज का ॥सरिता आँचल में झरने,
अम्बुधि संगम लघु आशा।जीवन,
जीवन-
घन संचित,
चिर मौन हो गई भाषा॥-
डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल '
राही'
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