डॉ. रुपेश की टिप्पणी पर मटुक का जवाब
मेरे ब्लाॅग पर 'हिन्दू दर्शन संकीर्ण नहीं' शीर्षक लेख पढ़ने के बाद मुंबई से आयुर्वेदिक चिकित्सक डॅा. रूपेश श्रीवास्तव ने टिप्पणी की है- 'मटुक बाबू आपके द्वारा भेजे मेल से आपके ब्लाग का पता मिला। आपने जो लिखा वह कुछ वैसा ही है कि जिसे अण्डे खाने हैं वह उसके पक्ष में तर्क और तथ्य जुटा लेता है कि प्रोटीन है वगैरह जिसे नहीं खाना है वह कहता है कि न फाइबरस फूड है दिल के दौरे का कारण हो सकता है। सब अपने चश्में से दुनिया देखते हैं। आप करो भाई जो आपको करना है किसी को सहमत नहीं कर सकते हां बस तर्क से निरुत्तर जरूर कर सकते हैं। हम अगर सुअर हैं तो मानव मल हमारे भोजन है अब ऐसे में हम अगर मनुष्यों से शास्त्रार्थ करें तो क्या परिणाम निकलने वाला है। उल्लू चमगादड़ जैसे प्राणी अगर शिक्षक हों इंजीनियर हों साइंसदान हों और वे मनुष्यों से जिरह करें कि तुम सबकी जीवन की सोच एक नामालूम अस्तित्व सूर्य पर केन्द्रित है तो मनुष्य क्या कहेगा कि भाई तुम्हें दिखेगा नहीं क्योंकि तुम उल्लू हो। आप करो जो आपको करना है क्योंकि हम जो मानते हैं वही सत्य होता है जो मानते ही नहीं वह कैसे सत्य हो सकता है। आपकी पूर्व पत्नी और परिवार के प्रति मुझे कोई सहानुभूति होनी चाहिये क्या ये आपसे जानना है... अवश्य बताएं। मैं सोचता हूं कि आप समलैंगिक संबंधों पर भी कलम चलाएं आपके स्पष्ट विचार जान कर अच्छा लगेगाए वो भी प्रेम-व्रेम जैसा ही कुछ बताया जाता है।'' भड़ास! आदरणीय डाॅक्टर साहब मेरे लेखन का उद्देश्य किसी की सहमति पाना नहीं है. सहमति लेकर मैं करूँगा क्या ? और असहमति से मेरा बिगड़ेगा क्या ? मैं जो कुछ भी करता हूँ, अपने बुद्धि-विवेक से. अपने द्वारा किये गये कर्म का नियंता मैं हूँ, भोक्ता मैं हूँ. अगर मैं दूसरों की देखादेखी करता तो स्वभावतः मेरे बहुत समर्थक होते, लेकिन मेरा आनंद खो जाता. अगर मैं भूलवश कुछ गलत कर गुजरता तो शायद उसे सही साबित करने का प्रयास इसलिए करता ताकि लोगों का समर्थन मिले और मैं जिंदा रह सकूँ. जो दूसरों के अनुसार चलता है, उसे ही दूसरों के समर्थन और प्रशंसा की जरूरत पड़ती है. मैंने कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं की. अपने स्वाराज्य में रहता हूँ. आनंद से विचरता हूँ. अपनी तरफ से 'ना काहू सों दोस्ती ना काहू सौं बैर'. मनुष्य जाति एक बड़े भ्रम का शिकार रही है कि कोई उसकी सहायता कर सकता है, कोई उसको नुकसान पहुँचा सकता है. मैंने अपने एकांत के उस कोने में ठहर कर देखा है, जहाँ कोई सहायता नहीं पहुँचा सकता, जहाँ कोई नुकसान भी नहीं पहुँचा सकता. इसलिए इसके लिए कोई प्रयास भी मैं नहीं करता. यह बात जरूर है कि एक प्राकृतिक व्यवस्था के तहत सहायताएँ स्वयमेव आती हैं, नुकसान भी स्वयमेव होता है. मैं दोनों के बीच समभाव रखते हुए अपने को संतुलित रखने का प्रयास करता हूँ. 'प्रयास' शब्द भी बहुत सही नहीं है. कहना चाहिए संतुलन भी अपने आप आ जाता है. मेरा उद्देश्य है विचार-विमर्श के द्वारा सत्य के करीब पहुँचना. सत्य की छाया बनना. एक ऐसे विचार को पैदा करना जो अपने चश्मे का भी रंग देख सके और दूसरों के चश्मे को भी पहचान सके. पूर्वग्रहरहित तथ्यपरक वाद-विवाद अगर हो तो शायद कोई संवाद बन सके. एक ऐसे ही संवाद की तलाश है. सत्य सत्य है. वह हमारे मानने, न मानने पर निर्भर नहीं हैै. मैं जब किसी के विचारों की शव-परीक्षा करता हूँ, तो इसलिए कि उसके माध्यम से सचाई सामने आये. तथ्य और सत्य को न देखनेवाले अंधे नैतिकतावादियों को निरुत्तर करने में मुझे आनंद जरूर आता है. उनको देखते ही मेरा क्षात्र-धर्म दीप्त हो उठता है. लगता है, भीतर किसी ने पंाचजन्य फूँक दिया. विचारों के आक्रमण -प्रत्याक्रमण , उनके दाँव-पेंच को देख मैं उसी तरह आनंदित होता हूँ जैसे युद्ध के मैदान में तलवार भाँजता हुआ कोई सच्चा सूरमा. आप लिखते हैं -'' आपकी पूर्व पत्नी और परिवार के प्रति मुझे कोई सहानुभूति होनी चाहिए क्या ये आपसे जानना है ? '' बिल्कुल मुझसे नहीं जानना है. लेकिन इतना जरूर जानना है कि आपकी सहानुभूति का आधार क्या है ? आपकी आँखों के द्वारा निकट से सम्यक् रूप से देखी गयी मेरी वास्तविक पत्नी या मीडिया में प्रकट हुई मेरी कलाकार पत्नी या इस तरह के मिलते-जुलते मामले में देखी गयी दूसरों की पत्नियाँ ? अगर हर मामले की विशिष्टता की पहचान आपके पास नहीं है तो आपकी सहानुभूति, आपकी धारणायें सब हवा-हवाई हैं. सामान्यीकरण सत्यान्वेषण के लिए विकट दीवार है. जब एक भी मनुष्य एक-दूसरे के समान नहीं है, तो यह सामान्यीकरण आयेगा कहाँ से ? आदमी का दुर्भाग्य है कि किसी दूसरे को देखकर किसी दूसरे के बारे में निर्णय ले लेता है. मनुष्य की कुछ विशिष्टता ही उसे पशु से अलग करती है. हर व्यक्ति की विशिष्टता ही उसे दूसरों से अलग करती है. लेकिन आप एक दृष्टि से सही हैं, क्योंकि मनुष्य की विशिष्टता को प्रकट करने वाली शिक्षा कहाँ है ? एक ही फर्मे में सबको ढालने वाली शिक्षा ने मनुष्य को निर्जीव जैसा बना दिया. निर्जीवों में बड़ी समानता होती है. फैक्ट्री में ढाली गयी कारें एक समान होती हैं. श्मशान घाट में लाये गये मुर्दे समान होते हैं. जीवंत आदमी एक समान नहीं हो सकता. मैं अपनी बात और स्पष्ट करने के लिए अपने जीवन की एक घटना सुनाता हूँ. मैंने इंटरमीडिएट में पटना काॅलेज, पटना में नाम लिखाया. मैट्रिक अपने गाँव से किया. मैंने देखा कि मेरे वर्ग में एक लड़का है जो अंधा है. मैं करुणामिश्रित आश्चर्य में डूब गया, क्योंकि अब तक मैंने ट्रेन में, गाँव-घर में, मेले-मंदिर में भीख माँगते असहाय अंधों को ही देखा था. दया मुझे बहुत आयी थी. संस्कारवश मैंने उस नयनविहीन सहपाठी पर सहानुभूति उड़ेल दी. उन्होंने मुझे सावधान किया - 'मुझ पर सहानुभूति जताने की जरूरत नहीं. कोई भी आँखवाला मुझसे बेहतर नहंीं है. मैं किसी से कम नहीं हूँ.' मेरी पत्नी और मेरे परिवार के प्रति सहानुभूति जताने के लिए मुझसे पूछने की जरूरत नहीं, लेकिन कम से कम मेरी पत्नी से तो पूछ लेते ! उन्हें आपकी सहानुभूति की जरूरत है या नहीं ? कोई भी स्वाभिमानी आदमी क्यों किसी की सहानुभूति चाहेगा ? सच्ची सहानुभूति वह है जो क्रियारूप धारण करे. मेरी पत्नी और परिवार के प्रति आप जैसे लाखों लोग सहानुभूति रखते हैं. लेकिन केवल मन में. किसी ने मेरे परिवार से हाल-चाल तक नहंीं पूछा. ऐसी सहानुभूति किसी के पास हो, किसी के पास न हो, उससे क्या फर्क पड़ता है ? एक और गुप्त बाद बता दूँ. मनुष्य बहुत जटिल प्राणी है. वह किसी भाव का नाम बदलकर उपयोग कहीं कर लेता है. मैं आपको नहीं घेर रहा हूँ. लेकिन ऐसे कई लोगों को मैंने देखा है जो मेरे प्रति उत्पन्न हुई ईष्र्या को पत्नी के प्रति सहानुभूति में बदलकर अपनी आक्रामकता को सही सिद्ध करना चाहते हैं. आपकी सहानुभूति कहीं अपने आपको अत्यधिक मानवीय दिखलाने की सुषुप्त लालसा तो नहीं है ? झाँक कर देखियेगा. यह काम आप ही कर सकते हैं. इतना जरूर कह देना चाहता हूँ कि जो भी विचार मैंने व्यक्त किया, जरूरी नहीं कि वह ठीक हो. सत्य इससे परे भी हो सकता है. सत्य का जो पहलू आपको दिखता है, उसे आप रखने की कृपा करेंगे. आपकी इच्छा है कि मैं समलैंगिक संबंधों पर भी कलम चलाऊँ. कुछ दिनों बाद आपकी फरमाइश पूरी करने का प्रयास करूँगा. मटुक
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5 comments:
मटुक बाबू काश अगर हमारे जैसे लोगों के पास भी आपके जैसे शब्दों की दुकान होती तो एकाधा बन्नो हमारे भी आलिंगन में होती और हम भी साहित्यिक शब्दों का प्रयोग करके इसी तरह अपनी बातों को सही सिद्ध करके आनंदित होते रहते। मानवीय, दानवीय, वैचारिकता, विचारों की शव-परीक्षा, नैतिक-अनैतिक,ईर्ष्या,बहस, मेहरबानी,सत्य..... हे प्रभु तुमने मुझे ओशो महाराज की कुछ किताबें पढ़ने की सद्बुद्धि दी होती तो मैं भी अपने पादने पर आवाज़ आने पर वकालत कर सकता था कि गनीमत है सिर्फ़ आवाज़ है दुर्गंध नहीं.... मैं ...मेरा एकांत... मेरी मैं..मैं...
शब्दों का पिष्टपेषण है ज्यादा कुछ नहीं सादे शब्दों में हग कर लीपापोती करना।
जय जय भड़ास
तू ही सागर है तू ही किनारा ढून्ढता है तू किस का सहारा
आपकी पीड़ा को समझा । सहानुभूति है।
मटुक
अरे मटुक भाई! अगर हो सके तो बालक आफ़ताब की पीड़ा दूर कर दीजिये सिर्फ़ शाब्दिक सहानुभूति से क्या होने वाला है :)
जय जय भड़ास
बहन सुल्ताना
‘वास्तविक सहानुभूति’ चाहें तो आप दे सकती हैं. पुरुष के पास पुरुष को देने के लिए तो शब्द ही हो सकता है. हाँ, इन शब्दों से आपकी आरजू कर सकता हूँ कि बालक की पीड़ा दूर कर दें.
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