क्रिकेट के लिए मीडिया की दोगली मानसिकता

आज सुबह सुबह मैंने लिखा था की आस्ट्रेलिया के हेडेन का आउट देना और मीडिया की चुप्पी पत्रकारिता की दलाली का बेहतरीन उदाहरण है, शाम को घर लौटा और मीडिया की क्रिकेट पर दलाली शुरू हो चुकी थी, आख़िर भारत की बैटिंग थी और मीडिया की नजर में कई विवादास्पद निर्णय देने वाले असद राउफ निशाने पर थे।राहुल का दिया जाने वाला आउट मीडिया की नजर में ग़लत था और सारे मीडिया चैनल अपने अपने दूकान पर इसे ग़लत ठहराने की होड़ में लगे हुए थे, जैसा की सुबह ही लिखा था की हेडेन को तब आउट दिया गया जब गेंद ने उनके बल्ले को कहीं नही छुआ था, सहवाग का आउट न देना मीडिया को गवारा था मगर ख़बर को तरसती बाजारों ओ चुकी मीडिया के इए लोटरी लगने वाली बात थी की राहुल का आउट होना संदेहास्पद था।



उंगली उठानी से पहले सोचो राउफ की अम्पायरिंग करनी है या नही

हरेक के फटे में तंग अडाने की आदी मीडिया जब लोगों के बिस्तर तक पहुँच चुकी है तो एक भारतीय के लिए पूजा जैसी क्रिकेट को अपने गंदगी से कैसे छोर सकती है। खेल जिसमे अम्पायर की भूमिका कभी संदेह के घेरे में नही आ सकती को भारतीय बाजार के मुखबिर समाचार चैनलों ने इस पवित्र खेल को विवादों का जामा पहना दिया, बकनर का भारतीय मैचों से बाहर रहना एक उदाहरण मातृ है,मीडिया का नया शिकार राउफ के साथ तमाम उम्पायर का समूह जरूर सोच रहा होगा की भारत के मैचों में अम्पायरिंग करें की नही।बेगुनाह को गुनाहगार, एक बाप को बलात्कारी, रात के अंधेरे को भूतों का शिकंजा में तब्दील करने वाली हमारी मीडिया अपने कार्यप्रणाली से अपने आप को संदेह के घेर में नही डाल रही अपितु भारतीय समाज का गुनाहगार बनती जा रही है। बाजारू होते इस समाज में मानवीय मुल्यौं का बाजारीकरण के लिए निश्चय मीडिया ही दोषी है और दोषी हैं पत्रकारिता के दुर्योधन जो कहने को तो पत्रकार हैं मगर व्यवसाय में अपने लाला जी की दलाली से ज्यादा नही कर रहे,लानत ऐसी पत्रकारिता की और मलानत ऐसे पत्रकारों के हुजूम की।

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