क्या यही खबर है ??????




ख़बर और ख़बरों की दुनिया, बड़ी निराली है, अद्भुत है, क्यूंकि ख़बरनवीस बड़े ताकतवर होते हैं इनका कोई कुछ नही बिगार सकता है क्योँकी ये पुलिस ,प्रशाशन और सत्ता के बड़े करीबी होते हैं। मगर क्या सचमुच में ये ही ख़बरनवीस हैं क्योँकी भाई ये तो लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ हैं। और लोकतंत्र में इन्हें लोक और तंत्र की सीढ़ी कहा जाता है मगर सच में ये इसे सीढ़ी की तरह ही इस्तेमाल करते हैं और अपने आप को ऊपर चढा लेते हैं।
अभी कुछ दिनों पूर्व अपने डॉक्टर साहब का फोन आया की भाई भडासी जरा म्यांमार के आपात पर नजर रखें, तुरंत बाद डॉक्टर साब का पोस्ट भी आ गया। सचमुच म्यांमार की विपदा ह्रदय विदारक है । मैं थोड़ा सा लेट हो गया था सो घर चला गया , सोचा की घर पर इस से अपडेट हो जाऊँगा। घर पंहुचा और न्यूज़ चैनल खोला तो सारे समाचार के चैनल खंगाल डाले कहीं भी मुझे म्यांमार का तूफ़ान नहीं दिखा, मगर अद्भुत सारे चैनल एक्सक्लूसिव खबर ही दिखा रहे थे. अंत में थक के सोने चला गया, सुबह के ११ बजे ;-) (माफ़ करना अपना सुबह इसी समय होता है) उठा चाय ली और अखबार भी. हमारे यहाँ मुम्बई की एक बड़ी अखबार (पता नहीं कैसी बड़ी है राम जाने) "डी एन ए" आती है. सारे पन्ने पलट दिए मगर यहाँ भी ढाक के वो ही तीन पात एक्सक्लूसिव में यहाँ बच्चों की बातें थी जिसे बड़ा ही रोचक बना दिया गया था, हेल्प लाइन पे बच्चे पूछ रहे हैं की आंटी हम कंडोम कैसे उपयोग में लायें। मन खिन्नता से भर गया. समझ में नहीं आ रहा था की ये अखबार है या मैने मनोरंजन की कोई पुस्तक उठा ली है. फिर याद आया अपने दद्दा वाला लेख की कोन ऊपर गया और कोन नीचे. सचमुच अगर समाचार चैनल को दर्शक नहीं मिल रहे तो कारण भी सामने है वैसी ही भाई अंग्रेज के नामुराद वंशजों, तुम्हें समझना चाहिए की पिछडों की हिंदी क्योँ आगे बढ़ रही है, क्योँ उसके पाठक में इजाफा हो रहा है और तुम क्योँ धरातल पर आते जा रहे हो। कहने को अखबार, समाचार चैनल. यानी की समाचारों का जखीरा. अन्दर जाओ तो लोगों को वो मिलता है जो किसी दुसरे बगैर खबर वाले जगह पे देख चुके होते हैं या सुन चुके होते हैं.लानत मलानत ऐसे समाज के, लोकतंत्र के टूटे हुए पाये की।पत्रकारिता और एक्सक्लूसिव के सचित्र उदाहरण ऊपर हैं. अब आप ही बताइए इन्हें लानत मलानत ना दूं तो क्या करूं.

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