लो क सं घ र्ष !: जियरा अकुलाय

खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय,
विकल तन मन जियरा अकुलाय

तुम का जानौ मोरि बलमुआ मुनउक चढा बुखार,
घरी घरी पिया तुमहेंक पूंछैं फिरि अचेत होई जायं,

खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय,
विकल तन मन जियरा अकुलाय

किहें रहो तैं जिनते रिश्ता उई अतने सह्जोर ,
बिटिया कैंहा द्यउखै अइहैं पुनुवासी के भोर,

खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय,
विकल तन मन जियरा अकुलाय

चढा बुढापा अम्मा केरे बापू भे मजबूर,
खांसि खंखारि होति हैं बेदम गंठिया सेनी चूर,

खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय,
विकल तन मन जियरा अकुलाय

गिरा दौंगरा असाढ़ ख्यातन मां जुटे किसान ,
कौनि मददि अब कीसे मांगी घरमा चुका पिसान,

खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय,
विकल तन मन जियरा अकुलाय

काहे हमसे मुंह फेरे हो जाय बसेउ परदेश ,
साल बीत तुम घरे आयेव धरेव फकीरी भेष,

खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय,
विकल तन मन जियरा अकुलाय

हँसी उडावे पास पड़ोसी रोजू दियैं उपदेश,
चोहल करैं सब मोरि कन्त कब अइहैं अपने देश ,

खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय,
विकल तन मन जियरा अकुलाय

डॉक्टर सुरेश प्रकाश शुक्ल
लखनऊ

3 comments:

Praphulla said...

touching lines........excellent effort......

Mumukshh Ki Rachanain said...

दिल से निकली खरी बातें सुन्दर अल्फाजों में

हार्दिक बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

डा.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

डॉक्टर सुरेश जी की बेहतरीन रचना लाने के लिये सुमन भाई आपको हार्दिक धन्यवाद। ऐसे ही मोती चुन कर लाइये...
जय जय भड़ास

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