अभी एक हिन्दी पत्रिका का ताजा संस्करण देख रहा था। देखते देखते एक ख़बर पर आ के अटक गया। मध्य प्रदेश के इन्दोर शहर में हुई इस घटना ने जहाँ आत्मा तक को हिला दिया वहीँ समाज को शर्मशार करती पोलिस के बारे में सोचने पर मजबूर हो गया की क्या हमारे समाज को व्यवस्था सम्हालने के लिए पोलिस की जरुरत है ?
कहानी एक आम आदमी के पुलिसिया शिकार होने की कि किस तरह पोलिस पैसे वाले के हाथों बिक कर एक खुशहाल परिवार को यातना और वेदना के ऐसे आग में झोंक देता है जहाँ उसके लिए सामाजिक जीवन ही समाप्त हो जाता है, कहर ऐसा कि पीड़ित की पत्नी के साथ थाने में अमानवीय हरकतों की सारी सीमायें तोड़ कर नंगा कर के तमाम कैदियों पोलिस पधाधिकारियों और दबंगों के सामने पीटा जाता है और इस सारे प्रकरण पर प्रशासन और सरकार मामले को देख कर उचित कार्रवाई की बात कह कर पल्ला झार लेती है.
नीचे वो डाक्टरी रिपोर्ट है जो महिला पर हुए अत्याचार का गवाह इसके बावजूद प्रशासन और सरकार को मामले को देखने की बात, अजीब है ?
रिपोट जो डॉक्टर ने दी, के मुजाबिक गुप्तांगों में डंडे तक घुसेड दिए गए,
एक सच्चाई जिसे सामने लाने की बहादुरी दिखाई मित्र आलोक ने।
हाल का वाकया है जब दिल्ली में बम धमाके हुए, आनन् फानन में कार्रवाई की गयी, जामिया में पोलिस मुठभेड़ हुआ और एक पुलिसिया गोली का शिकार भी जिसे शहादत की संज्ञा दी गयी, जबकी ये मुठभेड़ ही विवादास्पद था। दैनिक दिनचर्या की तरह अपना खानापूर्ति करती पोलिस जामिया में गलती से आरोपियों से टकरा बैठी। और शर्मा जी को अपनी जान गवानी परी, हम शर्मा जी को सलूट करते हैं बहादुरी के लिए मगर उसके बाद दिल्ली के पूर्व पोलिस कमिश्नर परेरा साहब का एक टी वि चैनल पर भावुक हो कर पोलिस के पक्ष में बयां अपने आप में पोलिस के प्रति सहानुभूति पैदा करने के लिए काफी है मगर क्या वास्तव में ऐसा है जैसा पूर्व पोलिस कमिश्नर ने कहा, परेरा साहब के मुताबिक सबसे ज्यादा ज्यादतियां पोलिस पर होती हैं और सरकार बस पोलिस से काम लेना जानती है, परेरा साहब को कहना चाहूँगा की हुजूर पोलिस पब्लिक के लिए है, पब्लिक का तनखाह लेती है मगर बदले में पब्लिक के प्रताड़ना में सबसे अधिक पोलिस का ही हाथ होता है। आज लोग सबसे ज्यादा पोलिस से असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
दिनों दिन पोलिस की आपराधिक छवि बढ़ रही है, लोग पोलिस से अपने आप को असुरक्षित समझ रहे हैं, किरण बेदी की माने तो हमारे समाज में है पोलिस की जरुरत ही नही होनी चाहिए बल्की हमें अपना प्रशाशन ख़ुद अपने हाथों में सम्हाल लेनी चाहिए. राजनेताओं के हाथों की बनती कठपुतली पोलिस, धनाढ्यों के हाथों का दलाल पोलिस क्या आम आदमी के लिए है, आम आदमी पोलिस से अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है.... प्रश्न तो है और यक्ष प्रश्न? हाल ही में भड़ास के प्रधान संरक्षक पर स्थानीय ठेकेदार के पैसे और दवाब से जिस प्रकार पोलिस ने प्रताड़ना का दौर चलाया हम नि:संकोच कह सकते हैं की मुंबई में भाईगिरी का काम काज मुंबई पोलिस ने बखूबी सम्हाल लिया है,
प्रश्न और यक्ष प्रश्न हम, और हमारे समाज को पोलिस चाहिए या नही, बेतुका है मगर प्रश्न तो है। और जवाब समाज के पैरोकार ही दे सकते हैं.
साभार :- आलोक इन्दोरिया (इंडिया न्यूज़,)
2 comments:
बर्बरता की सीमा को पार करती अमानुषिक प्रताडना । इसकी जितनी निन्दा करी जाये वो कम है। पीडित परिवार के साथ दिल से संवेदना है। पुलसिया व्यवहार के भी कई कारण है परोक्षतः राजनीतिक दखलन्दाजी दूसरे कार्य की अधिकता । तनाव की पराकाष्ठा शायद इस तरह के व्यवहार का प्रमुख कारण है।
रजनीश जी, लेख श्लालघनीय है । हिन्दी में लिखने का प्रयास सराहनीय है । किन्तु हिन्दी में लिख रहें हैं तो शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करें । आशा है आगे से पोलिस नहीं अपितु पुलिस शब्द का प्रयोग करेंगे ।
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