परम फ़ादरणीय गौरव महाजन जी - ५

पूज्य पिता जी हिंदी के साथ सभी भाषाओं का सम्मान करते हैं लेकिन लिखते सिर्फ़ अंग्रेजी में हैं, बताते हैं कि अंग्रेजी उनकी व्यवसायिक भाषा है जिस पर उन्हें गर्व है तो बज़ पर वे कौन सा व्यवसाय कर रहे हैं अब तक स्पष्ट नहीं करा। ऐसा भी हो सकता है कि अपनी मातृभाषा में लिखने में शर्म महसूस होती हो या फिर लिख ही न पाते हों क्योंकि अब तक जितना बजबजाए हैं बज़ पर अंग्रेजी में ही कुलबुलाए हैं। पूज्य पिता श्री ने पहले पहल तो सहर्ष हमारा पिता बनना स्वीकार लिया लेकिन अब लिखते हैं कि मैं डॉ.रूपेश श्रीवास्तव सिर्फ़ एड्स की दवा बेंचू(शायद पिताजी ने हमारा एड्स पर लिखा शोधपत्र पढ़ लिया है) या तो कविता लिखूं या फिर बकवास समाचार लिखूं लेकिन अपनी औकात न दिखाऊं। हमें अक्ल का अंधा बताने में कोई विलंब न करा और ये भी बताया कि भगवान भी हमे नहीं सुधार सकता लेकिन स्वयं को भगवान से भी आगे मानते हुए तत्काल हमारे बाप होना स्वीकार कर सुधारने आगे आ गये। हो सकता है कि ये हमारा महासौभाग्य हो कि ऐसे "महा"जन को हमारा धर्मपिता होना लिखा हो लेकिन समाज की गहरी समझ रख्नने वाले पिता श्री इतने सौम्य स्वभाव के हैं कि स्वयं लिखते हैं कि आपसे अलग सोच रखने वाला आपका दुश्मन नहीं होता लेकिन हमारे मामले में तत्काल तू-तड़ाक की भाषा पर उतर आते हैं शायद यही इनकी मातृभाषा है।
जय जय पूज्य पिता जी हिंदी के साथ सभी भाषाओं का सम्मान करते हैं लेकिन लिखते सिर्फ़ अंग्रेजी में हैं, बताते हैं कि अंग्रेजी उनकी व्यवसायिक भाषा है जिस पर उन्हें गर्व है तो बज़ पर वे कौन सा व्यवसाय कर रहे हैं अब तक स्पष्ट नहीं करा। ऐसा भी हो सकता है कि अपनी मातृभाषा में लिखने में शर्म महसूस होती हो या फिर लिख ही न पाते हों क्योंकि अब तक जितना बजबजाए हैं बज़ पर अंग्रेजी में ही कुलबुलाए हैं। पूज्य पिता श्री ने पहले पहल तो सहर्ष हमारा पिता बनना स्वीकार लिया लेकिन अब लिखते हैं कि मैं डॉ.रूपेश श्रीवास्तव सिर्फ़ एड्स की दवा बेंचू(शायद पिताजी ने हमारा एड्स पर लिखा शोधपत्र पढ़ लिया है) या तो कविता लिखूं या फिर बकवास समाचार लिखूं लेकिन अपनी औकात न दिखाऊं। हमें अक्ल का अंधा बताने में कोई विलंब न करा और ये भी बताया कि भगवान भी हमे नहीं सुधार सकता लेकिन स्वयं को भगवान से भी आगे मानते हुए तत्काल हमारे बाप होना स्वीकार कर सुधारने आगे आ गये। हो सकता है कि ये हमारा महासौभाग्य हो कि ऐसे "महा"जन को हमारा धर्मपिता होना लिखा हो लेकिन समाज की गहरी समझ रख्नने वाले पिता श्री इतने सौम्य स्वभाव के हैं कि स्वयं लिखते हैं कि आपसे अलग सोच रखने वाला आपका दुश्मन नहीं होता लेकिन हमारे मामले में तत्काल तू-तड़ाक की भाषा पर उतर आते हैं शायद यही इनकी मातृभाषा है।
जय जय भड़ास

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