जूली जी मुझे नहीं पता कि आपके अन्य चाहने वालों का क्या हाल हुआ किन्तु आपके अंदाज ने हवा तंग कर दी है और समझ गया हूं कि आप भले पटने की हैं लेकिन पटने वालियों में से नहीं हैं। पता नहीं कौव्वे का भाग्य है, उसका बल है या आपका विशेष वरदान लेकिन जो कहा वह मैंने पूरी सच्चाई से कहा कोई झूठ नहीं कि जबरन आपके प्रति आदर दर्शाऊं। भड़ास पर हम जैसे कुंठित और वंचित लोगों की कुंठाएं ही निकल पाती हैं । हम तो आपको अब भाभी कह कर मन की कुंठाएं परंपराओं की आड़ में निकाल सकते थे लेकिन भड़ास की सच्चाई हमारे लटपटाते जीवन का आधार है इसलिये जो मन में था आपके सामने उगल कर मन हल्का कर लिया। दूसरी बात कि मटुक भाई ने इन्वर्टेड कामाज़ में बंद करके मुनव्वर आपा को जिस "वास्तविक सहानुभूति" की सलाह दी है कि सिर्फ़ वे ही दे सकती हैं वह तो आप भी दे सकते हैं क्योंकि आजकल तो हाइकोर्ट ने इस इन्वर्टेड कामाज़ में बंद "वास्तविक सहानुभूति" के अन्य मार्ग को भी कानूनी ठहरा दिया है, क्या इरादा है तैयार हैं? सच तो ये है कि भड़ास पर कभी भी सच्चे इंसान पर भड़ास नहीं निकाली गयी है और हम निःसंदेह स्वीकारते हैं कि आप दोनो सच्चे और साहसी हैं भले कोई आपसे सहमत हो या न हो उससे सत्य को क्या फर्क पड़ता है। जूली जी ने मेरे परिहास को नाराजगी में ले लिया इसके लिये बिना किसी बनावटीपन के क्षमा चाहता हूं। आप हम भड़ासियों के लिये लिखी थोड़ी सी बातें स्वीकारिये जो कि पूर्व में लिखी गयी थीं
थोड़े शराबी हैं,
थोड़े अराजक हैं,
थोड़े लंठ हैं,
थोड़े लुच्चे हैं,
थोड़े क्रिमिनल हैं,
थोड़े बलात्कारी हैं,
थोड़े हत्यारे हैं,
थोड़े देहाती हैं,
थोड़े गंवार हैं,
थोड़े झूठे हैं,
थोड़े क्रूर हैं,
थोड़े उजबक हैं,
थोड़े डरपोक हैं,
थोड़े हिंसक हैं,
थोड़े फ्रस्टेट हैं,
थोड़े डिप्रेस्ड हैं,
थोड़े मुंहफट हैं
थोड़े अनपढ़ हैं
थोड़े विकलांग हैं,
थोड़े रुवांसे हैं,
थोड़े बेचारे हैं,
थोड़े जानवर हैं,
थोड़े लंगूर हैं,
थोड़े बंदर हैं,
थोड़े कुत्ते हैं,
थोड़े कमीने हैं,
थोड़े गदहे हैं,
थोड़े भेड़ हैं
थोड़े बकरी हैं,
थोड़े कट्टरपंथी हैं,
थोड़े पोंगापंथी हैं,
थोड़े बेवकूफ हैं,
थोड़े अनप्लांड हैं,
थोड़े सतही हैं,
थोड़े छिछले हैं,
थोड़े अगंभीर हैं,
थोड़े मजबूर हैं,
थोड़े कुंठित हैं,
थोड़े पीड़ित हैं,
थोड़े अकेले हैं,
थोड़े अश्लील हैं,
थोड़े गोबर हैं,
थोड़े घृणित हैं,
थोड़े अपरिपक्व हैं,
थोड़े परेशान हैं,
थोड़े हैरान हैं,
थोड़े नादान हैं,
थोड़े सताये हैं,
थोड़े गरियाये हैं,
थोड़े उजियाये हैं,
थोड़े बौराये हैं,
थोड़े बकलोल हैं,
थोड़े गोलमोल हैं,
थोड़े काहिल हैं,
थोड़े काइयां हैं,
थोड़े बेशरम हैं,
थोड़े ढीठ हैं,
थोड़े कायर हैं,
थोड़े लिजलिजे हैं,
थोड़े बददिमाग हैं,
थोड़े बेचारे हैं,
थोड़े किनारे हैं,
थोड़े खिसियाये हैं,
थोड़े पिनपिनाये हैं,
........
........
.......
और.....
इसी थोड़े थोड़े
से बनकर हम
बन गए हैं
एक अपूर्ण आदमी
जिसे तलाश है
पूर्णता की....
अनचीन्हे राह
अनजाने विचार
अलमस्त दोस्त
के साथ कदमताल
करते हुए तलाश
रहे हैं कुछ
इस सड़ी सभ्यता के
घुप्प अंधेरे में इधर-उधर
हाथ-पांव मारते हुए
पर ये सच है
कि हम
इस सड़ी हुई सभ्यता
के गले हुए विद्वानों की तरह
कतई हिप्पोक्रेट नहीं हैं, कतई
सौ फीसदी घोषित शरीफ नहीं है
क्योंकि बदबूदार सभ्यता के सांचे में ढले
चमचमाते सच को बूझा है हमने
हर उस क्षण जब निकले था गांव से
कमाने, जानने, बनने, बूझने, लड़ने,दिखने, दिखाने..
तब छले गए हर क्षण
इन चमचमाते सचों द्वारा
और नतीजा ये हुआ कि
हम हर क्षण थोड़े बुरे बने
वो हर क्षण थोड़े सुर्ख स्वर्ण हुए
हम भड़ासी
सौ कैरट सच्चाई से कहते हैं कि
हम गंदे, बुरे, बदमाश, गंवार
लोग हैं
और जीना चाहते हैं
अपनी पूरी असभ्यता
सभ्यता के सिंहासन पर लात रखकर
अति असभ्यता के साथ
ताकि सभ्यता की सड़न
से उठ रही मारक गैसों
की मात्रा हो सके कम
माफ करो
पूजा ममता मीरा मेघा गरिमा...
तुम जो भी जहां भी हो
बनी रहना अच्छी बच्चियां
तुम शरीफ लड़कियां हो
अच्छी लड़कियां हो
सभ्य लड़कियां हो
चली जाओ यहां से
सभ्यता की किसी शरीफ दालान में
जहां तुम्हारी अच्छाइयों का हवाला देकर
अच्छे लोग तुम्हें पूजते हों या पीटते हों
पर बराबरी पर नहीं जीने देते
और जब जाओगी न
तो करोगी हम पर एहसान
ताकि हम तुम्हारे डर से
बकने से बच जाएंगे अच्छी अच्छी बात
और जाने से रह जाएंगे
हिजड़ों की सभ्यता के साथ
जीने दो हमें दो कौड़ी की ज़िंदगी
दो कौड़ी की बातें करते हुए
क्योंकि हर तरफ गंभीर और सच्ची बहसें चल रही हैं
और हमें उनसे उबकाई आती है
जीने दो हमें हलकी हलकी बातें करते हुए
हल्केपन के साथ भारी लग रही जिंदगी
क्योंकि हर तरफ हैं गूढ़ व गंभीर लोग गरिष्ठ विमर्श मथते हुए
और हमें उन पर थूकने का मन करता है...
हम बंद दरवाजे हैं, खुल रहे हैं,
अभी और खुलेंगे
और दिखेगा हमारे अंतस का गहन अंधकार
जो सदियों से इकट्ठा है
तब हम खुश होंगे....
प्रसन्न होंगे...
जैसे मिल रहा हो मोक्ष
तर गई हो आत्मा
तब जाग्रत कुंडलिनी का सुख
महसूस कर सकेंगे
हम गंवार लोग
जिसे सभ्यता ने सभ्य बनाने के चक्कर में
और ज्यादा बेवकूफ बना दिया....
सादर जय जय भड़ास
अब भाभी कह कर मन की कुंठाएं परंपराओं की आड़ में निकाल सकते थे .nice
ReplyDeleteओप्स !
ReplyDeleteदीनबंधु भाई जितनी सहजता से भड़ास पर आने के बाद भड़ासियों ने सहजता और सरलता को जाना समझा है वह मेरे अनुसार जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। पूरा यकीन है कि अब मटुक नाथ भाई और जूली बहन जी शायद भड़ास की सरलता को जान पाएंगे। बेहतरीन प्रस्तुति..... साधुवाद
ReplyDeleteजय जय भड़ास
बेहतरीन है दीनबंधु भाई आपने जिस तरह से भड़ास को एक्सप्लेन करा वह बड़े बड़ों को "ओप्स..." करा देगा।
ReplyDeleteसत्य है महाराज सत्य है
जय जय भड़ास
ये कविता कहीं पहले पढ़ी है, चोरी कर डाला हैय़
ReplyDelete@ Anonymous
ReplyDeleteचोरी करना भड़ास पर बिलकुल अनुचित नहीं माना जाता है कभी दिल चुरा लेते हैं और कभी कविता। मैं आपको बताता हूं ये कविता एक महामुखौटेबाज बनिए और धूर्त की लिखी हुई है जिसका मुखौटा भड़ास का और चेहरा सियार का है। आपको खूब अच्छी तरह से याद होगा कि भड़ास पहले जिस मंच पर था उसका नाम बदल कर भड़ास blog कर दिया गया है किसी ने कारण नहीं जानना चाहा था कि ऐसा क्यों करा उस घोड़े की लीद को धनिया कहकर बेचते बनिया ने? जो भावनाओं के टके करा रहा है वह भड़ासी कैसे हो सकता था जब मुखौटा नोचा तो बिलबिला गया और हम तमाम लोगों को तकनीकी चालाकी से हटा दिया गया उस मंच से बिना किसी चर्चा या विमर्श के। हम भड़ासी हैं तो उस मुर्दा भड़ास blog को छोड़ आए और उसकी आत्मा चुरा लाए और यहां इस मंच पर दोबारा पीड़ा झेलते हुए प्रसव कराया। उस दुष्ट के लिये इतनी सजा काफ़ी नहीं है इसलिये प्रतीक्षा करो बेनामी-गुमनामी-अनामी पिक्चर अभी बाकी है....
जय जय भड़ास